राजतंत्र बहुत अच्छा हो सकता है या फिर बहुत बुरा, जबकि लोकतंत्र न तो बहुत अच्छा होता है और न बहुत बुरा। साम्यवादी क्रांतियों में धनसम्पन्न लोगों की क्रूरतापूर्वक हत्या और उसके बाद की सत्ताव्यवस्था से दुनिया ने बहुत कुछ सीखा है। चीन के साम्यवादी शासन में वैयक्तिक स्वतंत्रता की प्रतिदिन किसी न किसी रूप में हत्या कर दी जाती है, सोवियत संघ का विघटन हम देख ही चुके हैं। भारत और अमेरिका जैसे देशों के सत्ताधीश इन क्रांतियों से भयभीत हैं और इनकी पुनरावृत्ति नहीं चाहते।
रक्तसंघर्ष से बचने के लिए शासनव्यवस्था को बहुत अच्छा बनाना
होगा जो राजतंत्र में तो सम्भव है पर लोकतंत्र में बिल्कुल भी नहीं। तो क्या
अमेरिका और भारत का जन-असंतोष किसी रक्तक्रांति का कारक हो सकता है!
भारत जैसे लोकतंत्र में साम्प्रदायिक हिंसा तो हो सकती है पर
रक्तसंघर्ष नहीं। बोल्शेविक क्रांति के परिणामों से डरते हुये लोकतांत्रिक देशों
के सत्ताधीशों ने एक ऐसी क्रूर व्यवस्था विकसित कर ली है जिसमें वे गण को न जीने
देते हैं, न मरने देते हैं। यह व्यवस्था अपनी प्रजा को
अर्धमूर्छित बनाये रखने में विश्वास रखती है, इसके लिए
अमेरिका के सत्ताधीशों ने अपनी प्रजा को ज़ाइलाज़िन और फ़ेंटालिन जैसी औषधियों के
मादक प्रभाव का अभ्यस्त और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देकर अकर्मण्य बनाया तो भारत
के सत्ताधीशों ने आरक्षण, कर्ज माफ़ी, दानवितरण
और सुरा के माध्यम से अपनी प्रजा को अर्धमूर्छित कर दिया है। जनता इस मूर्छना की
अभ्यस्त हो चुकी है और अब इसे बदलने की बात सोचना भी जन-असंतोष उत्पन्न कर सकता
है। भारत के सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत रहते हैं कि सत्ता में बने रहने के
लिए गण को अर्धमूर्छित अवस्था में बनाये रहना आवश्यक है। लोकतंत्र वास्तव में एक
प्रतिस्पर्धा-तंत्र है जहाँ हर किसी को अपनी आसुरी या दैवीय शक्तियों के साथ अपने-अपने
वर्चस्व के लिये संघर्ष करते रहना होता है। भारत की प्रजा इस प्रतिस्पर्धा में
पराजित हो चुकी है, एलिट क्लास और सत्ताधीश बिजयी होते जा रहे
हैं।
आरक्षण और दान-वितरण किसी भी समाज को अपंग बनाने के लिये मीठे विष
की तरह प्रभावकारी होते हैं । आरक्षण से प्रतिभाओं की हत्या की जाती है और
दान-वितरण से लोगों को अकर्मण्य बना दिया जाता है। अब संसाधनों की लूटमार के स्थान
पर उत्पादों की लूटमार होने लगी है। उपभोक्ता वस्तुओं का दान-वितरण एक तरह से
साम्यवादी सिद्धांतों वाली लूटमार है जिसे कुछ कर्मठ लोगों से छीनकर अकर्मण्य
लोगों में बाँट दिया जाता है। बची-खुची कमी कर्जमाफ़ी से पूरी कर दी जाती है। ये वे
स्थितियाँ हैं जो कर्मठता, प्रतिस्पर्धा
और कुशलता को अपने पास भी नहीं आने देतीं। भारत में निजी क्षेत्र के शिक्षण
संस्थान और उद्योग न होते तो अब तक यह देश पूर्ण अपंगों का देश हो चुका होता।
भारत में ‘लोक’ अर्धमूर्छित है और सत्ता ‘लोक’ को अर्धमूर्छित बनाये रखने के उपायों के लिए सजग है । यह सब इसलिए
क्योंकि हमने पश्चिम की देखा-देखी धर्म के अंकुश को अपने जीवन के सभी क्षेत्रों से
निकालकर बाहर फेक दिया है। धर्म को पूजा-पाठ से जोड़ दिया और धर्म से सामाजिक
शुचिता और मानवीय मूल्यों को अलग कर राजनीति से जोड़ दिया जिसका कोई अर्थ ही नहीं
है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.