कल 25 मई 2013 को एक बार
पुनः बस्तर की रत्नगर्भा धरती रक्तरंजित हुयी । लोकतंत्र छलनी हुआ और आस्था
डगमगायी । कल दरभा घाटी से होकर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर माओवादी
नक्सलियों ने कांग्रेस के नेताओं को रक्त स्नान कराया और उन्हें क्रूरतापूर्ण
अंतिम विदायी दी । आज जबकि पूरे देश में इस नृशंस हत्याकाण्ड की चर्चा हो रही है,
विमर्श हो रहा है ...समाधान के उपायों पर राजनैतिक गलियारों में गम्भीरता से चिंतन
किया जा रहा है, वहीं माओवादी शिविर में विजय पर्व मनाया जा रहा है। उन्हें अपने
ख़ूनी हथियार उठाकर हर्षोल्लास में नाचते-गाते देखा जा रहा है ।
मानवीय सभ्यता का कितना
क्रूर और वीभत्स स्वरूप है यह ....बर्बरता
की सीमाओं को स्पर्श करता हुआ । यह समाज किस दिशा में जा रहा है ? सभ्यता का कैसा
पतन हो रहा है ?
राजनैतिक इच्छाशक्ति की
शिथिलतापूर्ण अक्षमतायें, सत्ता पाने के लिये किसी भी स्तर तक पतित होने के
निर्विरोध मार्ग , लोक समस्यायों की गम्भीर उपेक्षा , बढ़ती हुयी अराजकता और
भ्रष्टाचार के दैत्य ने देश को जिस गति से खोखला किया है उसका परिणाम आज जिस रूप
में प्रकट हुआ है वह आश्चर्यजनक कदापि नहीं है ।
छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा के कारण अब तक न जाने कितने पुलिस
और सेना के जवानों के साथ-साथ नागरिकों को भी अपने प्राण गंवाने पड़े हैं । न जाने
कितनी राष्ट्रीय संपत्ति नष्ट की जा चुकी है । न जाने कितना विकास कार्य अवरुद्ध
हुआ है । न जाने कितने बच्चे अनाथ हुये हैं । सरकार के आदेश भले ही उपेक्षित रह
जायें पर माओवादियों के फ़रमानों की उपेक्षा करने का साहस किसी में नहीं है । उनके
चाहने से ही बस्तर में एकमात्र रेल चलती है, उनके हुक्म से ही सड़कों पर आवागमन हो
पाता है । क्या इसका अर्थ यह है कि भारत के एक गलियारे में चीन की समानांतर सरकार
आकार ग्रहण कर चुकी है ? पूरे विश्व को
पता है कि चीन से लगी भारत की सीमायें असुरक्षित हैं जहाँ चीन का अतिक्रमण किसी छद्म नीति के अंतर्गत होता
रहता है जबकि हम कायरता की सीमा तक विनम्रता का प्रदर्शन करते रहते हैं । अर्थात् हमारी गृह नीति के साथ-साथ
हमारी विदेश नीति की असफलता भी देशवासियों के लिये गम्भीर चिंता का विषय है ।
अत्यंत खेदपूर्ण और चिंताजनक
जवाब देंहटाएंएक और दुखद और शर्मनाक घटना। जब तक राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी रहेगी, आतंकवाद एक मुनाफे वाला धंधा दिखाता रहेगा निर्दय और लोभी वर्ग मौका लगते ही अपने से कमज़ोरों की जान लेता रहेगा। आतंकवाद के इस नासूर का इलाज करने के लिए एक सक्षम राष्ट्रीय नीति का निर्माण और पालन ज़रूरी है।
जवाब देंहटाएंसबल नीति का अभाव निश्चित ही दुर्भाग्य पूर्ण है.
जवाब देंहटाएंइनसे घटिया और बुरा आतंक और कौन पैदा करेगा ...??
जवाब देंहटाएंवे सिर्फ अपराधी और क्रूर हत्यारे ही नहीं देश के दुश्मन नंबर एक हैं जो भी इनकी तारीफ करेगा वह केवल देश का ही नहीं, अपितु मानवता के प्रति गद्दार होगा !
इस नीच हरकत के बाद ये (नक्सल वादी ) न केवल अपना आधार खो बैठेंगे बल्कि देश कि सामान्य जनता को भी अपने खिलाफ खडा पायेंगे !
सक्सेना साहब! नक्सलवाद तो कब का मर चुका, अब ये जो उत्पात कर रहे हैं ये माओवादी हैं जिनके पास चीन के आयातित विचार हैं और मुफ्त में मिले हुये हथियार। भारत में भी हमारे बीच के ही कुछ लोग उनके समर्थक तैयार हो रहे हैं। यह एक गंभीर स्थिति है ...देश का बुद्धिजीवी परिवर्तन चाहता है किन्तु उन्हें यह तय करना होगा कि यह परिवर्तन किस प्रकार का हो? हम तो इतना ही जानते हैं कि चीनी माओवाद हमारे लिए उपयुक्त नहीं है। भारत विचारों का केंद्र रहा है ...पर दुर्भाग्य से आज हम आयातित विचारों के प्रशंसक हो रहे हैं।
हटाएंफेस बुक पर इस विषय में आदरणीय चतुर्वेदी जी से हुये विमर्श को यहां साझा करना आवश्यक समझ रहा हूं। माओवाद एक राष्ट्रीय समस्या है इस पर गम्भीर जनविमर्श होना ही चाहिए। अस्तु -
जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्रम उवाच - नौतपा चल रहा है। किंतु दरभा की घटना से सूरज उदास है, मौसम नम हो चला है और राजनीतिक क्षेत्रों में ख़ामोशी है। कहते हैं कि नौतपा यदि नम हो तो उस साल अच्छी वारिश नहीं होती। ...कैसे होगी ......गोलियों की वारिश जो हो चुकी है।
Pankaj Chaturvedi उवाच - बारिश (गोलियों की) के अगले झोंके का इंतज़ार करें कोबरा, हौंड की और से प्रतिहिंसा में देखें कितने और खून की होली में डूबते हें
कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - ...तो शासन को क्या करना चाहिये ? जिन्होंने लाश पर नृत्य किया उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिये? जो प्रशिक्षित छात्र रेंगते हुये गार्ड्स की गन लूटकर माओवादियों तक पहुँचाते रहे उनकी आरती उतारी जानी चाहिये? आख़िर राष्ट्रद्रोहियों के साथ सरकार को किस तरह पेश आना चाहिये?
Pankaj Chaturvedi उवाच - कोशलेन्द्र जी १७ मई की रात बीजापुर जिले के आर्स्पेता में बारह साल से कम उम्र के तीन बच्चों सहित आठ ग्रामीणों को मारने वाले वर्दीधारियों पर जो कार्यवाही हो उससे भी कड़ी कार्यवाही होना चाहिए
कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - यह दुःखद है कि कम उम्र के छात्र माओवाद के नशे में डूब रहे हैं। निश्चित ही इसमें हमारा भी कसूर है कि हम उन्हें सही शिक्षा नहीं दे सके। किंतु माओवादी यदि छात्रों को शिखण्डी की तरह आगे कर पीछे से उन्हें कवर देते हुये आक्रमण करें तो पुलिस विवश हो जाती है। जहाँ तक ग्रामीणों की बात है तो किसी के पास ऐसा कोई पैरामीटर नहीं है कि ग्रामीणों और माओवादियों में भेद किया जा सके। आख़िर अचानक ये सैकड़ों की संख्या में माओवादी प्रकट कहाँ से हो जाते हैं ? फिर भी ........व्यक्तिगत तौर पर बेगुनाहों की हत्या का हम विरोध करते हैं।
Pankaj Chaturvedi उवाच ---- यह एक साजिश के तहत पुलिस अफवाह फैलाती रही हे कि नाक्साली यौन शोषण करते हें, बच्चों को आगे करते हें आदि असला में जब गोली चलती हे तो घूसखोर पुलिसवाले छिप जाते हें और अपने हथियार तक उन्हें सौंप देते हे
Pankaj Chaturvedi उवाच - बेगुनाहों की ह्त्या के विरोध में मेरा स्वर आपके साथ हे लेकिन सभी बेगुनाहों के
कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - हो सकता है कि घूसख़ोर सिपाही उन्हें अपने हथियार सौप देते हों, किंतु जहाँ तक माओवादियों द्वारा यौन शोषण की बात है तो यह कोरी अफ़वाह नहीं है। शोषित महिलाओं ने आत्मसमर्पण के बाद अपना दुःखड़ा स्वयं बताया है। बच्चों को आगे करने की बात तो कल की घटना में ही प्रमाणित हो चुकी है। स्कूली य़ूनीफ़ॉर्म में कुछ बच्चों को हथियार छीनने के काम में लगाया गया था जिन्हें माओवादियों ने कवरेज दिया है।
कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - सभी बेगुनाह ....बेशक! हर बेगुनाह को उसके अधिकार के साथ सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है। सत्ताओं से यही अपेक्षित है ...किंतु सत्तायें इस अपेक्षा को पूरा कर पाने में प्रायः विफल रहती हैं। पूरे विश्व का यही इतिहास है। फिर भी हम एक आदर्श स्थिति की कल्पना तो कर ही सकते हैं।
Pankaj Chaturvedi उवाच - कल्पना होगी तभी साकार करने का जज्बा होगा
कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - क्या आपको पता है कि 12 साल के बच्चों से अगवा किये गये अधेड़ लोगों को पेड़ से बाँधकर पिटवाया जाता है? यद्यपि हम इसमें बच्चों को कसूरवार नहीं मानते .....उनका गिलास खाली था जिसमें दूध भरा जा सकता था किंतु हम नाकाम रहे और माओवादियों ने उसमें शराब भर दी ....तो वे उसी नशे में डूब रहे हैं।
Pankaj Chaturvedi उवाच - जिन्दा रहने के लिए आने वाले जीवन की चुनोतियों से जूझने के लिए ऐसा करना जरुरी हे वर्ना उस आदिवासी बच्चे को पैदा होते ही किसी का गुलाम बना देना चाहता हे यह समाज
जवाब देंहटाएंकौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - जीवित रहने के लिए चुनौतियां चारो ओर हैं ...हर किसी के लिए हैं। यह बिलकुल मिथ्या धारणा है कि यह समाज आदिवासी बच्चों को पैदा होते ही अपने लिए गुलाम बना लेना चाहता है। आदिवासियों का कोई दुश्मन नहीं है। आदिवासी और गैरआदिवासी जैसा कोई वर्गीकरण केवल राजनैतिक ही हो सकता है, यथार्थ में नहीं। ऐसा वर्गीकरण और ऐसा प्रचार भारतीय समाज को विखंडित कर देगा, यह दुःखद है। यह समाज यदि आदिवासियों का शत्रु होता तो आज जिस तरह आदिवासी हर क्षेत्र में आगे निकल रहे हैं वह न हुआ होता। आ कर देखिये, उच्च शिक्षा से लेकर राजनीति तक में वे आगे आ रहे हैं। यहां के बच्चे विदेश जा रहे हैं, हर क्षेत्र में अपनी सहभागिता तय कर रहे हैं, क्या यह सब उन्हे पैदा होते ही गुलाम बना लेने के कारण हुआ है? दूसरी बात , यदि गुलामी के बात हो भी तो क्या गुलामी से बचने एक लिए एक मात्र विकल्प बंदूक ऊठाकर माओवादी हो जाना ही है? यदि यही विकल्प है तो गुलामी तो यहां भी है ....भयानक गुलामी..... शारीरिक और मानसिक भी। आदिवासियों के माओवादी बनने के पीछे बहुत से कारण हैं ...जिसमें अशिक्षा की विवशता भी है और कुछ माओवादियों का दबाव भी। शासन की असफलता सबसे बड़ा कारण है।
जवाब देंहटाएंPankaj Chaturvedi उवाच - कुशलेन्द्र जी क्या आपको पता हे कि नई जनगणना में आंकड़े ए हे कि बस्तर इलाके में आदिवासियों कि संख्या कम हो रही हे ? हर संशकित जीव आक्रामक ही होता हे जब आपके सामने अपने अस्तित्व का संकट हो तो तीर कमान, बन्दुक जो मिले मुकाबला करना होता हे, एक संरक्षित निरापद जीवन जीने वालों को जंगल का दर्द मालूम नहीं हो सकता
कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - हां ...हमें यह भी पता है कि आदिवासियों की कुछ जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और कुछ विलुप्त होने की कगार पर हैं। किन्तु इसका कारण यह नहीं है कि गैर आदिवासी उनकी हत्या कर रहे हैं और उनके कारण आदिवासियों का अस्तित्व खतरे में है। अनुपातिक रूप से उनकी जनसंख्या कम होने के कारण बहुत से हैं। अज्ञानता औरं अंधविश्वास के कारण बीमारियों का समुचित उपचार न करना, सिकलिंग जैसे जेनेटिक डिसओर्डर्स और अनहायजेनिक लिविंग प्रमुख कारण हैं ।
कौशलेन्द्रम कुक्कू उवाच - स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं संरक्षित और निरापद जीवन जीने वाले सुविधाभोगी लोगों में से नहीं हूँ। जहां तक जंगल के दर्द की अनुभूति की बात है तो दर्द की अनुभूति के लिए विचार, बुद्धि और संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है न कि जंगल में ही रहने की? यद्यपि हॉस्पिटल के बाद मेरा अधिकांश समय जंगल में ही व्यतीत होता है ....आदिवासियों के ही बीच।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सलाम है ऐसी कर्तव्यनिष्ठा की मिसाल को - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंIshwar sarkaro sadbuddhi de.. .
जवाब देंहटाएंjai hind
Jaroorat hai suraksha aur videsh neeti par punarwichar kee, taki hum in samasyaon se theek se nipat saken.
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