रविवार, 15 नवंबर 2015

यदि यह इस्लामिक परम्परा नहीं है तो इस्लामिक समाज मुखर क्यों नहीं होता ?

      कल, सीरिया पर आतंकविरोधी हमले के विरुद्ध फ़्रांस पर आइसिस का आतंकीहमला !
         आज, टर्की के अंटालियो में आतंकीहमलों के विरोध में होने वाली जी-20 की शीर्ष बैठक में आतंकीहमला !

          2012 से सीरिया में चल रहे आतंकीयुद्ध के लिये आतंकियों को पैसा कौन देता है ? मध्य एशिया के काले सोने से आतंकियों के कैसे रिश्ते हैं ? इन रिश्तों को समाप्त करने के बारे में कोई विचार क्यों नहीं किया जाता ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक वैश्विक संगठन बनाया जाय जो काले सोने पर नियंत्रण करे और पेट्रोलियम की बेशुमार दौलत को आतंकियों के हाथ में जाने से रोके ?

         हाँ ! ऐसा हो सकता है किंतु होगा नहीं । पश्चिमी देशों के आयुध उद्योग को फिर पूछेगा कौन ? 

          पश्चिमी देश नहीं चाहते कि दुनिया से आतंक को समाप्त किया जाय, यह उनकी औद्योगिक आवश्यकता है । वे चाहते हैं कि आतंक बना रहे किंतु वे स्वयं आतंक से बचे रहें । किंतु यह भी सम्भव नहीं है, बुरी नियत कभी भी अच्छा परिणाम नहीं दे सकती । राक्षसों, असुरों और दैत्यों ने जब-जब देवताओं की तपस्या करके घातक आयुध प्राप्त किये तब-तब उन्होंने देवताओं को भी निशाना बनाया । ख़ुद ज़िन्दा रहने के लिये दूसरों को भी ज़िन्दा रहने का अधिकार देना होगा, यहाँ अधिक समय तक पक्षपात नहीं चल सकेगा ।

            फ़्रांस और टर्की में फ़िदायीन हमले ! यदि यह इस्लामिक परम्परा नहीं है तो इस्लामिक समाज मुखर क्यों नहीं होता ?

       स्वार्थ एवं भोगलिप्सा के कारण कलियुग में धर्माचरण एक अव्यावहारिक विषय होता जा रहा है किंतु यह आश्चर्य की बात है कि धर्म ही इस काल का सर्वाधिक चर्चित विषय भी रहा है । वातव में धर्म के लिये कोई चिंतित नहीं होता, धर्म की आड़ में अधिकांश लोग अधार्मिक कार्यों में ही लिप्त रहते हैं । दुनिया में सर्वाधिक पापकर्म धर्म के नाम पर ही होते रहे हैं इसी कारण धर्म एक अति संवेदनशील विषय बनता जा रहा है ।
विश्व के अन्य धर्मों का इतिहास देखें तो उसमें दो उल्लेखनीय बातें मिलती हैं; एक तो यह कि समय-समय पर महान चिंतकों या प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा सामाजिक एवं व्यक्तिगत आचरण को नियंत्रित करने वाली जीवनशैलियों की संहितायें धर्म के नये-नये रूपों में बनायी जाती रही हैं जो अपनी पूर्ववर्ती त्रुटिपूर्ण या विकृत हो गयी जीवनशैली का स्थान ग्रहण करती रही हैं । दूसरी बात यह कि धर्मों की स्थानापन्नता का संक्रांतिकाल प्रायः दुःखद ही रहा है । धर्मों की स्थानापन्नता का सीधा सम्बन्ध सामाजिक वर्चस्व से होता है, मानवीय मूल्यों का यहाँ कोई स्थान नहीं हुआ करता । वर्चस्व की इस प्रक्रिया में अपने समूह की वृद्धि के लिये धर्मांतरण अभियान सहज किंतु कूटरचित और अधार्मिक कृत्य होता है ।  
यह विचारणीय है कि जीवनशैली में निरंतर सुधार की प्रक्रिया उत्कृष्ट जीवनमूल्यों की उत्कट अभिलाषा का परिणाम है । यह एक सहज और सांस्कृतिक प्रक्रिया है जबकि धर्मांतरण तत्कालीन परिस्थितिजन्य प्रतिक्रियाओं का परिणाम है ।  
धर्म के नाम पर सातवीं शताब्दी से जो रक्तपात प्ररम्भ हुआ वह आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है । धार्मिक हिंसा का यह वैश्विक संकट गम्भीर चिंता का विषय है । हाफ़िज़ सईद जैसा आतंकी जिस तरह किसी राष्ट्राध्यक्ष की तरह किले में ऐश-ओ-आराम के साथ रहता है वह पाकिस्तानी सरकार के सहयोग के बिना सम्भव नहीं है । ख़ुर्शीद आलम जब पाकिस्तान जाते हैं तो पाकिस्तान का पक्ष लेते दिखायी पड़ते हैं । हम किस आधार पर ऐसे राजनेताओं को राष्ट्रप्रेमी या सर्वधर्मप्रेमी स्वीकार कर लें ? ख़ुर्शीद में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वे पाकिस्तान या भारत में हाफ़िज़ सईद के आतंक का खुल कर विरोध कर सकें ।  हमें झूठी लल्लो-चप्पो के स्थान पर निरंकुश हो चुकी धार्मिकहिंसा की वास्तविकता को स्वीकार करना होगा । इससे भी बड़ी चिंता का विषय यह है कि इतनी हत्याओं के बाद भी हम आतंकवाद के धार्मिक आवरण का सच्चे हृदय से विरोध नहीं कर पाते हैं । निश्चित ही यह या तो हमारी भीरुता है या फिर पक्षपात ।   

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