हमारे
गाँव में एक भेड़िया घुस आया है, उसने
गाँव के कुछ मोहल्लों को वीरान कर दिया है ।
गाँव की
अपूरणीय क्षति के बाद भी हम भेड़िये को मारना नहीं चाहते किंतु इतना अवश्य चाहते
हैं कि वह वापस जंगल में चला जाय । हमने उसे भगाने का विचार किया ही था कि हमारे
गाँव के कुछ लोग हमारे ऊपर टूट पड़े । उन्होंने हमारे ऊपर आरोप गढ़ना प्रारम्भ कर
दिया कि हम गाँव की विविधता और बहुलता को आग लगाने का काम कर रहे हैं ।
तेरहवीं
शताब्दी से गाँव में घुसे इस भेड़िये ने गाँव के कुछ मोहल्लों में 1947 में अपना
जंगलराज स्थापित कर लिया । अब वह कुछ और मोहल्लों में जंगलराज स्थापित करना चाहता
है । हम चाहते हैं कि भेड़िये की विस्तावादी दुष्टता से हम अपने बचे-खुचे गाँव को
बचा लें किंतु “विविधता और बहुलता” के छद्म सिद्धांत आड़े आ रहे हैं । हमारे गाँव
के कुछ लोगों को भेड़िये से गहरी मोहब्बत हो गयी है । ये लोग मनुष्य से अधिक
भेड़ियावाद को महत्व देते हैं । अब वे भेड़िये के साथ मिलकर हमारे ऊपर आक्रमण करने
लगे हैं । जब हम अपनी रक्षा के उपायों पर मंथन करते हैं तो हमें मनुष्यता का
अपराधी घोषित करने में वे लेश भी विलम्ब नहीं करते ।
अंततः आज हम यह मंथन करने के लिये विवश
हुये हैं कि अख़िर यह “विविधता और बहुलता” है क्या ? समाज और
राष्ट्र के लिये इसका औचित्य क्या है ? सामाजिक
संरचना और शांति में इसकी क्या उपादेयता है ? हमारे
गाँव के कुछ लोग इसे इतना महत्वपूर्ण क्यों मानते हैं ?
विविधता
और बहुलता – कल और आज !
कल तक
विविधता और बहुलता का अर्थ था ब्राह्म, शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सिख आदि
। कल तक विविधता और बहुलता का अर्थ था अरुणांचल प्रदेश से सिंध तक, कन्याकुमारी
से कंधार तक और कच्छ से लेह तक । कल तक विविधता और बहुलता का अर्थ था द्रविण
भाषाओं से लेकर डोंगरी और सिंधी से लेकर संस्कृत तक । कल तक विविधता और बहुलता का
अर्थ था ध्रुपद से लेकर लोकगीत तक और कलियरिपट्टु से लेकर कत्थक और मणिपुरी तक ।
कल तक विविधता और बहुलता का अर्थ था जौं की रोटी से लेकर पंचगव्य तक । इस विविधता
और बहुलता में अरब कहीं नहीं था, उसके
लिये कोई स्वाभाविक स्थान नियत नहीं था । अरब ने भारत में आकर अपने लिये स्थान
हमसे छीना है । छीने हुये स्थान में स्थापित की गयी आयातित विविधता और बहुलता भारत
का स्वाभाविक अंश नहीं है । जो स्वाभाविक नहीं है वह हमारे लिये अहितकर है, दुर्भाग्यजनक
है । यह अस्वाभाविक अंश हमारे अस्तित्व के लिये संकट है । हम इस प्रकार की आक्रामक, विस्तारवादी, परोपजीवी
और हिंसामूलक विविधता और बहुलता को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं । केर-बेर
की स्वाभाविक प्रकृतियों की उपेक्षा कर उनकी सामीप्यता का छद्म आदर्श केर के
अस्तित्व की हत्या का षड्यंत्र है । हमारे गाँव के छद्म बुद्धिजीवियों को अपना
आचरण बदलना होगा । या फिर हमें ही गाँव छोड़कर एक बार फिर कहीं और जाना होगा । हम
पहले ही सप्तसैंधव, गांधार
और पूर्वी बंगाल को छोड़ चुके हैं । छद्म बुद्धिजीवी इस बात पर चिंतन क्यों नहीं
करते कि आख़िर किन परिस्थितियों ने हमें हमारे गाँव के पारम्परिक मोहल्लों को छोड़ने
के लिये विवश किया है ? उनकी
मिलावटी विविधता और बहुलता ने अभी तक इस आर्यावर्त को क्या दिया है ? हाँ !
हमने बहुत कुछ खोया अवश्य है इस विविधता और बहुलता के कारण । हमारी विविधता-बहुलता
की थाली में पारम्परिक व्यञ्जनों के साथ संखिया और धतूरे को भी सम्मिलित कर दिया
गया है । व्यञ्जनों के समकक्ष संखिया और धतूरे की विषाक्तता को महिमामण्डित करने
का कुचक्र भारतीय जनता को समझना होगा ।
छद्मबुद्धिजीवियों
द्वारा नव गढ़ित परिभाषाओं और तत्व में अतत्व की मिलावट ने भारत का बहुत कुछ अमूल्य
लूट लिया है । हम यदि अब भी अपनी कुम्भकर्णी नींद से नहीं जगे तो भारत को ईरान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश
और तिब्बत बनने से कोई नहीं रोक सकेगा ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.