भारत के
साहित्यकार, कलाकार
और अब वैज्ञानिकों ने पुरस्कार वापसी अभियान से सरकार, देश और
दुनिया को प्रथम दृष्ट्या यह संदेश देने का प्रयास किया है कि देश के बुद्धिजीवी
वर्तमान व्यवस्था से चिंतित हैं और व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं । बुद्धिजीवियों
द्वारा सरकार के विरोध के सैलाब ने कुछ प्रश्न खड़े कर दिये हैं जिन पर देशव्यापी
मंथन आवश्यक है ।
पहले तो
यह स्पष्ट कर दूँ कि व्यक्तिगतरूप से मैं स्वयं देश और समाज की कुव्यवस्था से व्यथित
हूँ, किंतु
यह तो सदा से है । जब से मैंने होश संभाला है सत्ता और समाज की बढ़ती दूरियों और
स्वार्थों की राजनीति ने मुझे आहत किया है । देश की व्यवस्था कभी अच्छी नहीं रही, आर्थिक
भ्रष्टाचार, मानवाधिकारों
का हनन, हत्या, अपराध, बलात्कार, नैतिक
पतन, रिश्वतखोरी, झूठे
वायदे, वर्गभेद … कुछ भी
तो नहीं बदला बल्कि सभी में वृद्धि ही होती रही है । लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी
की समग्रक्रांति के अपवाद को छोड़ दिया जाय तो इससे पूर्व या इसके पश्चात् देश के
बुद्धिजीवियों ने कभी ऐसे तेवर नहीं दिखाये । तेवर तो छोड़िये कभी सामान्य विरोध भी
नहीं किया और करते भी क्यों वे तो स्वयं उसी व्यवस्था में रच-बस जाना ही उचित
समझते रहे हैं । आज हमें बुद्धिजीवियों की इस विरोधीसेना में कोई प्रेमचंद, निराला, फणीश्वर
नाथ रेणु या अब्दुल कलाम नहीं दिखता । जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के समय हुये
जनआंदोलन में जिन बुद्धिजीवियों ने तत्कालीन कुव्यवस्था के विरोध में अपनी सक्रिय
और दृढ़ भूमिका का निर्वहन किया वे वास्तव में देश और व्यवस्था के प्रति चिंतित थे
। उनकी चिंता आत्मस्फूर्त चेतना से प्रेरित थी, उनमें
सच्चीनिष्ठा थी, कहीं
कोई कृत्रिमता नहीं थी । आज के बुद्धिजीवियों द्वारा किये जा रहे विरोध प्रदर्शन
में उस चेतना और निष्ठा के दर्शन नहीं होते । यह एक सुविधाजनक विरोध है जिसे मैं
एक नकारात्मक विरोध की संज्ञा देना चाहूँगा । भिक्षा में प्राप्त सम्मान वापस करने
की क्षुद्रता से कुव्यवस्था के प्रति ईमानदार चिंता प्रकट नहीं होती । यदि वे किसी
क्रांति की पृष्ठभूमि निर्मित कर रहे हैं तो इस यज्ञ में उनकी अपनी समिधा क्या है ? इनका
विरोध एक काकस्वर से अधिक कुछ और नहीं प्रतीत होता । हम इस प्रकार के सुविधाजनक
पाखण्डपूर्ण विरोध का समर्थन नहीं कर सकते । वास्तव में इन तथाकथित बुद्धिजीवियों
का यह पाखण्डपूर्णकृत्य भर्त्सना के योग्य है । हमें निष्ठावान और अवसरवादी
बुद्धिजीवियों में विभेद कर उन्हें पहचानना होगा । हम व्यवस्था में परिवर्तन नहीं
चाहते, कुव्यवस्था
में परिवर्तन चाहते हैं जिसके लिये देश को भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे
निष्ठावान और समर्पित क्रांतिकारियों की आवश्यकता है ।
यह देश
का दुर्भाग्य है कि इन अवसरवादी बुद्धिजीवियों ने इससे पूर्व देश की व्यवस्था को
सुधारने के लिये कोई ठोस और रणनीतिपूर्वक कदम नहीं उठाया । निर्भयाकाण्ड को लेकर
हुआ विरोधप्रदर्शन एक स्वस्फूर्त आंदोलन था, अपनी
लड़कियों की सुरक्षा को लेकर एक तात्कालिक प्रतिक्रिया थी । यह आंदोलन निष्फल रहा, यौन
अपराध होते रहे, उसी
क्रूरता के साथ होते रहे, सामूहिकरूप
में होते रहे और अब
तो 3-4 वर्ष की बच्चियों के साथ भी ऐसी दरिंदगी की घटनायें बढ़ती जा रही हैं ।
आंदोलन एक उबाल के बाद बुझ गया । एक रस्म अदायगी हुयी और फिर सब कुछ पूर्ववत् होने
लगा । यह बुद्धिजीवियों का आंदोलन नहीं बल्कि एक जनआंदोलन था जिसमें बुद्धिजीवी भी
सम्मिलित हो गये थे । उस आंदोलन को क्रांति तक ले जाने में बुद्धिजीवियों की रुचि
क्यों नहीं हुयी ? इसलिये
नहीं हुयी क्योंकि तेजपाल जैसे बुद्धिजीवी अवसरवादी होते हैं । वे जनसमूह के साथ
विरोध में भी खड़े हो जाते हैं और अवसर मिलते ही भेड़िया बन कर नोच खाने के लिये भी
तत्पर हो जाते हैं । जिस तरह देश को बाबाओं, बाइयों, भगवानों, देवियों
और नेताओं से सावधान रहने की आवश्यकता है उसी तरह अब ऐसे अवसरवादी और
छद्मबुद्धिजीवियों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है ।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, रामायण और पप्पू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआभार ! :)
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