गुरुवार, 22 जून 2017

माओवाद के संदर्भ में “स्त्री-पुरुष-शत्रु संहिता”




शत्रुपक्ष की स्त्रियों के प्रति शिवाजी का दृष्टिकोण भारतीय चरित्र का उत्कृष्ट और अनुकरणीय आदर्श रहा है । उच्च मानवीय आदर्शों, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के लिये हमें इस चरित्र की रक्षा करनी ही होगी ।
यह निर्विवाद है कि माओवादी राष्ट्रद्रोही हैं, उनके आपराधिक कृत्य मानवता को कलंकित करने वाले हैं । माओवादियों के अतिरिक्त कुछ और भी ऐसे लोग हैं जिनके आपराधिक कृत्य मानवता को कलंकित करने वाले हैं, इनमें उच्च शिक्षित बुद्धिजीवी भी हैं और राजनेता भी । ये सभी कठोर दण्ड के पात्र हैं । कैसे दिया जाय दण्ड, क्या सीमा हो दण्ड की, कैसे किया जाय दण्ड का निर्धारण ? यह अब गम्भीर विचारणा का विषय हो गया है ।
माओवादी हिंसा ने क्रूरता और अमानवीयता के नये-नये शिखरों को स्पर्श किया है, सुरक्षा बलों के शवों को क्षत-विक्षत करने के साथ-साथ उनके लिंगोत्छेद करने की भी घटनायें बढ़ती जा रही हैं । कायरों की तरह छिपकर, घात लगाकर सुरक्षा बलों पर आक्रमण उनकी रणनीति है जिसका सामना सुरक्षा बलों को करना होता है । दुष्टों के नियंत्रण के लिये कठोर दण्ड और भय की नीति आवश्यक है । यहाँ माओवादियों के प्रति किसी शिथिलता या संवेदना की आवश्यकता का कोई औचित्य नहीं साथ ही सुरक्षा बलों पर भी किसी प्रकार का मिथ्या आरोप न लगे, इस विषय पर गम्भीर चिंतन कर उपयुक्त रणनीति बनायी जानी चाहिये । इस प्रकार के आरोप उग्रवाद के विरुद्ध संघर्ष के मार्ग में अवरोध का कार्य करते हैं जिनका निराकरण किया जाना आवश्यक है । महिला माओवादियों को दण्डित करने के लिये सुरक्षा बलों की महिला शाखा का होना ही इसका एकमात्र विकल्प है । विगत कुछ वर्षों से सुरक्षा बलों पर निर्दोष वनवासी स्त्रियों के साथ बर्बरतापूर्वक यौनदुराचरण और उनकी हत्या के आरोप लगाये जाते रहे हैं । सम्बन्धित अधिकारी इन आरोपों को कूटरचित बताते रहे हैं । उनके अनुसार सुरक्षा बलों के मनोबल को तोड़ने, सरकार को लांछित करने और जनता की सहानुभूति लेने के साथ-साथ जनता को सरकार के विरुद्ध उग्र करने के लिये माओवादियों और उनके स्लीपर सेल की रणनीति का यह एक विशेष हिस्सा है । जो भी हो, इससे एक विवाद की स्थिति अवश्य उत्पन्न हुयी है जिसकी पूरी निष्ठा के साथ जाँच की जानी चाहिये । साथ ही ऐसे आरोपों से बचने एवं उनका सामना करने के लिये एक निश्चित् रणनीति भी होनी ही चाहिये ।
सूचना और संचार माध्यमों के अलावा ग्रामीणों के आरोप भी सुरक्षा बलों के विरुद्ध खड़े दिखायी देते हैं । यह एक प्रतिकूल स्थिति है जिसे समाप्त कर अनुकूल स्थिति उत्पन्न करने के नीतिगत एवं नैतिक उपायों पर विचार किया जाना चाहिये । स्त्री कितनी भी शत्रु क्यों न हो किंतु उसके साथ यौन-दुष्कर्म को दण्ड या प्रतिशोध के रूप में कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता । यहाँ हमें शठे शाठ्यं शमाचरेत के आशय को ठीक से समझना होगा, क्रूर अपराधी को क्रूर दण्ड दिया जाना प्रशासनिक भय एवं विधिक नियंत्रण बनाये रखने के लिये आवश्यक है किंतु इसकी सीमा किसी भी स्थिति में यौनदुष्कर्म को स्पर्श भी न करे इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये । यदि हम अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न और हिंसा को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें एक आदर्श स्थिति की स्थापना के लिये दृढ़ संकल्पित होना होगा जिसकी सीमायें मानवीय और नैतिक आदर्शों से बंधी हुयी हों ।   

सोमवार, 19 जून 2017

सीता मइया का निष्कासन बाय दशरथाज़ एल्डर सन



नयीपीढ़ी में भारत के फ़्रेंकफ़र्तियायी उच्चशिक्षितों द्वारा यह आक्षेप अब अश्लील गालियों के साथ आरोपित किया जाने लगा है कि मिस्टर दशरथ के एल्डर सन ने अपनी प्रिगनेण्ट बीबी को पैलेस से निकालकर जंगल में छोड़वा दिया, ही वाज़ एन इम्पोटेण्ट एण्ड क्र्यूल किंग । आप लोग उसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान कहते हैं, स्त्री के प्रति अत्याचार ही क्या आपके भगवान की मर्यादा है ?  
मोहम्मद अशरफ़ बानी के लव अफ़ेयर में पिछले तीन महीने से गाफ़िल श्राबोनी चोटर्जी (श्रावणी चटर्जी) ने कॉलर बोन के नीचे शर्ट के भीतर हाथ डालकर खुजाते हुये बहस को आगे बढ़ाया – “... और वह भी अपनी लव मैरिज़ वाली बीबी ! मिस्टर रामा वाज़ अ क्र्यूल किंग, ऐसे आदमी को तो गोली मार देनी चाहिये” । दिल्ली में सिगरेट पीती हुयी, जगह-जगह फटी हुयी (रिप्ड) जींसधारिणी छरहरी कन्यायों की भीड़ इस तरह के डिस्कशन में बहुत रुचि लेती है । नयी पीढ़ी के लोग “द सो काल्ड पुअर हिंडू कल्चर” को गरियाने का पुण्य अवसर कभी हाथ से सरकने नहीं देते । इस कार्य के दो तात्कालिक लाभ होते हैं, पहला यह कि मन में प्रगतिशील होने के बोध से आत्मसंतुष्टि मिलती है और दूसरा यह कि प्रगतिशील क्रिश्चियंस और शांतिदूत बहावी मुसलमानों के साथ दोस्ती परवान चढ़ती है एवं बीफ़-भक्षण की एक तार्किक भूमिका निर्मित होती है ।    

उस सुन्दर कन्या ने सिगरेट के मुफ़्त धुयें से मुझे भी उपकृत किया, बड़ी अदा से सिगरेट की राख झाड़ी फिर दिल्लियाना अंग़्रेज़ी में दशरथाज़ एल्डर सन की ऐसी तैसी करने में लग गयी । वे सब यूनीवर्सिटी की छात्रायें थीं, उन्होंने हमारी बोलती बन्द कर दी थी । एक ने कहा - "प्रिगनेंट वाइफ़ ...ओह माइ गॉड ! और वो भी जंगल में छोड़वा दिया ...क्या सोचा था ...कि जंगल में शेर उसे पालेंगे ? अग्नि परीक्षा के बाद भी पनिश्मेण्ट ? और तुसीं उस आदमी नू मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हो?" वह व्यंग्य से हंसी, अन्य लड़कियों ने भी हंसने में उसका साथ दिया । मैं चुप रहा, विग्रह्य सम्भाषा में चुप रहना ही प्रशस्त होता है ।

उस रात मैं सो नहीं सका । कनेक्शन मिलाया और “दशरथाज़ एल्डर सन रामा” से बात की । मैंने सीधे-सीधे दन्न से पूछ दिया - "आपको कुछ पता भी है कि यहाँ आपकी करतूतों के कारण हमें क्या-क्या झेलना पड़ता है ? लेट मी नो, व्हाय डिड यू एबेंडोन योर प्रिगनेंट वाइफ़ इन द फ़ॉरेस्ट ? ह्यूमन राइट्स की तनिक भी चिंता नहीं थी आपको ? त्रेता का मामला आज कलियुग तक बवाल मचाये हुये है । आपसे अच्छा तो वो मुगल अकबर था जिसने एक तरफ़ तो अनारकली को सबके सामने दीवार में चिनवा देने का नाटक किया और दूसरी तरफ़ पीछे से उसे निकाल कर उज़्बेकिस्तान भेज दिया । कम से कम जान तो बच गयी बेचारी की"।

मिस्टर रामा हँसे, फिर बोले - "तो तुम्हारे ऊपर भी मार्क्सवादी रंग चढ़ने लगा है ! मिस्टर मिसिर जी ! मोनार्ची का अर्थ समझते हैं ? किसी मर्यादित किंग के लिये यह एक दोधारी तलवार है जो दोनों ओर से काटती है । सीता पर आक्षेप हमने नहीं लगाया था, हमारे राज्य की प्रजा ने लगाया था । हम सीता के पति के साथ-साथ अयोध्या की प्रजा के राजा भी थे जिसके सामने सबसे बड़ा दायित्व नैतिकता के दीपक को जलाये रखने का भी था । यदि हम केवल सीतापति रामचन्द्र होते तो धोबी के आरोप का सामना दूसरी तरह से करते । किंतु हमें तो घाटे का सौदा करके भी मर्यादाओं को स्थापित करने का ज़ोख़िम उठाना था । प्रश्न सीता की बेग़ुनाही का नहीं था, बल्कि उस धारणा का था जो उस धोबी के मन-मस्तिष्क में घर कर चुकी थी । हमारे लिये एक ओर सीता थीं और दूसरी ओर अयोध्या की लाखों स्त्रियों की मर्यादा थी । हम किसी एक की ही रक्षा कर पाने में समर्थ थे ...इसलिये हमने एक स्त्री के मूल्य पर लाखों स्त्रियों के लिये चारित्रिक दृढ़ता का सन्देश देना उचित समझा । एक व्यक्ति के रूप में निश्चित ही हमने सीता के प्रति न्याय नहीं किया ...किंतु एक राजा के रूप में हमने एक आदर्श को मरने से बचा लिया । राजा के लिये व्यक्ति नहीं ...आदर्श महत्वपूर्ण है । राजा की एक छोटी सी त्रुटि भी दूसरों के लिये नज़ीर बन जाती है । अपने लालू को ही देख लीजिये न ! उन्होंने केवल अपने परिवार की चिंता की ...उनकी दृष्टि में भूखी भैंसों का कोई महत्व न था .... देश की संस्कृति का कोई महत्व न था । यही कारण है कि उनके राजवंश में आदर्श और मर्यादा को छोड़कर वह सब कुछ है जो किसी डॉन के पास होता है”।
हमारा गुस्सा थोड़ा कम हुआ, हमने प्रतिप्रश्न किया - "ठीक है, आपने ऐज़ अ किंग एक मानक को स्थापित करने का आदर्श तो निभाया किंतु क्या सीता की सुरक्षा का दायित्व ऐज़ अ किंग आपका नहीं था ?"
दशरथाज़ एल्डर सन मिस्टर रामा की सोल ने उत्तर दिया - "मैंने कब कहा कि यह दायित्व मेरा नहीं था ...हम डीप फ़ॉरेस्ट में वर्षों एक साथ रहे हैं, हमें फ़ॉरेस्ट लाइफ़ का बहुत अच्छा एक्सपीरियंस है । हम चाहते तो मिस्टर गांधी की तरह रात के अंधेरे में अपनी पत्नी को घर से निकाल सकते थे या उसका मर्डर करवा सकते थे ...किंतु यह सब तब होता जब सीता कल्प्रिट होतीं । हमें तो अपनी राजमर्यादा का पालन करना था और ऐज़ अ हसबैण्ड उसकी रक्षा भी करनी थी । इसीलिये हमने लक्ष्मण को उसके साथ भेजा और फ़ॉरेस्ट के सभी ऋषियों -मुनियों को यह मैसेज़ भिजवाया कि अब सीता की रक्षा का दायित्व तुम्हारा है । आफ़्टर डिलीवरी ...जब लव एण्ड कुश बड़े हुये और उन्हें एजूकेशन की ज़रूरत हुयी तो गुरुकुल में राजपुत्र की तरह ही उनका पालन-पोषण और शिक्षण किया गया । मिस्टर मिश्र जी ! क्या आप समझते हैं कि यह सब यूँ ही हो गया, क्या हमारा सिस्टम वहाँ निष्क्रिय था ? क्या राजपुत्रों के लिये उपयुक्त राजशिक्षा की व्यवस्था अपने आप हो गयी ? क्या हमारी आज्ञा के बिना वह सम्भव था ? क्या हमने अपने पुत्रों से युद्ध कर उनकी योग्यता को सिद्ध नहीं किया ? क्या हमने उस कूटनीतिक युद्ध से अपने पुत्रों की पात्रता को प्रमाणित कर उनके लिये मार्गप्रशस्त नहीं किया ?"
"देखिये मिसिर जी ! जब आप कार्ल मार्क्स, स्टालिन और शॉपेनहॉर के रंगीन जल से स्नान कर लेते हैं तो फिर आपके चिंतन की धारा वह नहीं रहती जो इस देश की पारम्परिक धारा है । यह केर-बेर का संग है जो एक साथ नहीं निभेगा । आप चाहें तो देश में सीता पैदा कर सकते हैं ...और यदि आपको फ़्रेंकफ़र्तिया कल्चर अधिक लुभाता है तो आप सनी लियोनी भी पैदा कर सकते हैं । हमारा कार्यकाल समाप्त हुआ, अब भारत को आप जैसा चाहें बना लें”।

शुक्रवार, 16 जून 2017

संकट में धर्म यानी चिंतन का धर्मसंकट



धर्म एक आचरणीय सिद्धांत है । सिद्धांत यदि वैज्ञानिक है तो वह सार्वकालिक है, उसके संकटग्रस्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । किंतु यदि सिद्धांत ही अवैज्ञानिक और त्रुटिपूर्ण हो तो धर्म का संकटग्रस्त होना अवश्यंभावी है ।
शोर है कि क़ाफ़िरों के कारण इस्लामधर्म और मुसलमानों के कारण हिन्दूधर्म ख़तरे में हैं । वास्तव में जो ख़तरे में है वह भीड़ है, धर्म नहीं । धर्म कभी संकटपूर्ण नहीं होता, संकट से मुक्त करता है ।
तब “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ...” का क्या आशय ?
“धर्मस्य ग्लानिः” का अर्थ है धर्म के आचरणीय गुण की उपेक्षा । धर्म की उपेक्षा से धर्म नहीं बल्कि उपेक्षक प्रभावित होता है । संकट धर्म पर नहीं, उपेक्षक पर आता है ।
जब हम धर्म की उपेक्षा करते हैं तो अधार्मिक हो जाते हैं, धर्मावलम्बी नहीं रह जाते । धर्म की उपेक्षा से प्रभावित तो वह व्यक्ति या समुदाय होता है जो अधार्मिक हो जाता है ।
हमारे अधार्मिक आचरण से हमारे साथ-साथ समाज भी प्रभावित होता है और पापकर्मों की वृद्धि होती है । पापाचरण से समाज और राष्ट्र की क्षति होती है ।
कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत सदा उपेक्षणीय नहीं होता । उपेक्षा के बाद भी सिद्धांत का अस्तित्व अक्षुण्ण रहता है । 
गैलीलियो ने कहा कि धरती सूर्य का चक्कर लगाती है । योरोप में उस समय तक आम धारणा थी कि सूर्य धरती का चक्कर लगाता है । गैलीलियो को अपनी अवधारणा और खोज के लिये दण्डित किया गया किंतु इससे धरती ने सूर्य का चक्कर लगाना बन्द नहीं किया । धरती आज भी सूर्य का चक्कर लगाती है ।
एक अन्य अवधारणा के अनुसार धरती न तो गोल है और न सेव के आकार की बल्कि चटाई की तरह चपटी है । इस अवधारणा से धरती के आकार पर आज तक कोई प्रभाव नहीं पड़ा । धरती जैसी थी वैसे ही आज भी है ...वैसी ही आगे भी रहेगी ।
सनातनधर्म के पालक न होंगे तो प्रभावित उसके पालक ही होंगे, सनातनधर्म नहीं । जो सनातन है वह समाप्त कैसे हो सकता है ! जल को पीने वाला कोई नहीं होगा तो उससे जल पर क्या प्रभाव पड़ेगा भला ! प्रभावित होगा वह तृषित् जिसने जल की उपेक्षा की और उसके स्थान पर अपेय का पान किया । मद्य के पान से मद उत्पन्न होगा, प्यास नहीं बुझेगी । प्यास बुझाने के लिये तो जल का ही सेवन करना होगा ।
जल का कोई विकल्प नहीं हो सकता, धर्म का कोई विकल्प नहीं हो सकता । हर पेय जल नहीं हो सकता, हर आचरण धर्म नहीं हो सकता ।
जिसे प्यास बुझानी है उसे जल पीना ही होगा, जिसे सुख की अभिलाषा है उसे धर्म का पालन करना ही होगा । हम या तो धार्मिक होते हैं या फिर अधार्मिक । तीसरी कोई स्थिति सम्भव नहीं है । इसीलिये “धर्मनिरपेक्ष” जैसी कोई अवधारणा नहीं हो सकती । जब हम धर्म की अपेक्षा नहीं करते तो अधर्म स्वतः हमारे आचरण में आ जाता है ।
यदि कोई समाज धार्मिक है तो वह राज्य जिसमें वह समाज रहता है, धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है ?
यदि कोई राज्य धर्मनिरपेक्ष है तो उस राज्य का समाज धार्मिक कैसे हो सकता है ?
समाज धार्मिक है तो राज्य भी धार्मिक होगा । समाज धर्मनिरपेक्ष है तो राज्य भी धर्मनिरपेक्ष होगा । धार्मिकता और धर्मनिरपेक्षता की एक साथ स्थिति कदापि सम्भव नहीं है ।
संविधान के धर्मनिरपेक्ष होने का आशय क्या हो सकता है ? क्या संविधान को धर्म की अपेक्षा नहीं है, या संविधान विभिन्न धर्मावलम्बियों को निरपेक्ष भाव से देखने की घोषणा करता है ? यदि संविधान विभिन्न धर्मावलम्बियों को समान दृष्टि से देखता है तो समान नागरिक संहिता का होना अनिवार्य है । यदि संविधान विभिन्न धर्मावलम्बियों को उनके-उनके धर्मों के अनुसार देखता है तो वह धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता बल्कि धार्मिक आधार पर समाज को विभक्त करता है । तो क्या भारतीय संविधान समाज विभाजक है ?
सुना है कि हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है अर्थात् संविधान ने सभी धर्मों के लिये तदनुरूप व्यवस्थायें कर दी हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि विभिन्न धर्मों में पारस्परिक टकराव की कोई स्थिति नहीं है किंतु तब धार्मिक उपद्रव क्यों होते हैं ? धर्म के आधार पर युद्ध की स्थिति तक कलह, पारस्परिक विद्वेष, दंगे और देश को विभक्त करने के लिये आन्दोलन क्यों होते हैं ? गड़बड़ी कहाँ है ?

क्या विभिन्न धर्मों के धार्मिक सिद्धांतों में विरोध और टकराव है ? यदि ऐसा है तो मनुष्य को ऐसे किसी सिद्धांत की क्या आवश्यकता जो अशांति का कारण हो ?      

रविवार, 11 जून 2017

भूजल संरक्षण



नियम बना है ...
काग़ज़ पर लिखा है
वाटर हार्वेस्टिंग होगी
धरती की प्यास बुझेगी
वन विकसित होंगे
वन्यजीव फलेंगे-फूलेंगे
मनुष्य भी सुखी होंगे ।
एक नेता की बकरियाँ आयीं
दूसरे की भैंसे आयीं
कागज़ को खा गयीं ।
तीसरे नेता के कुत्ते आये
भौंक-भौंक कर चुगली कर गये
फिर थक कर सो गये ।  
अब यह बात
एक इतिहास हो गयी है ...
प्राचीन भारत के गौरव में
इसे भी लिखा जायेगा ।