वे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं, पूरे देश में उनका सम्मान है । भारत में व्याप्त होते जा रहे बौद्धिक आतंकवाद के विरुद्ध एक छोटे से अभियान में मुझे उनसे बड़ी आशायें थीं । मैंने उन्हें पत्र लिखा... उनका उत्तर चौंकाने और बहुत निराश करने वाला था । वे व्यावसायिक भाषा बोल रहे थे जो उनकी दृष्टि में एक व्यावहारिक तरीका था । जैसे ही मैंने उनका उत्तर पढ़ा कि अचानक वे मर गये ।
वे मर
गये किंतु आज मरने के बाद भी पहले की ही तरह कवितायें लिख रहे हैं ...जिनमें
देशप्रेम और शोषण के विरुद्ध साहित्यिक भावों के चमकते हुये सितारे टंके रहते हैं
किंतु जिनकी चमक अब मुझे प्रभावित नहीं कर पाती । उनकी देशप्रेम की कवितायें अब
गांधी बन गयी हैं जिनके मृत आदर्शों पर स्वार्थ और पाखण्ड की खेती होती है । उनकी
साहित्यिक संवेदना नागफनी के कांटे बन गयी है जो अब मुझे चुभने लगी है ।
बस्तर
के हिंसक माओवाद एवं कश्मीर के पाकिस्तान परस्त आतंकवाद और उनके समर्थक जे.एन.यू.
के विद्वानों के समानांतर एक बौद्धिक मंच स्थापित किये जाने की आवश्यकता को मैं
पिछले कुछ वर्षों से अनुभव कर रहा हूँ । प्रयास कर रहा हूँ कि कम से कम बस्तर के
बुद्धिजीवी तो एक मंच पर आयें जो गम्भीरता से देश और समाज की ज्वलंत समस्याओं पर
चिंतन कर सकें । जे.एन.यू. को उत्तर देना आवश्यक है । देश की युवा पीढ़ी के बीच
बहाये जा रहे एक बद्बूदार नाले के बहाव को
रोकना आवश्यक है... किंतु मुझे अभी तक निराशा का ही सामना करना पड़ा है । अपनी
व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये अहर्निश चिंतित रहने वाले बुद्धिजीवी देश और समाज की
सुरक्षा के प्रति पूरी तरह उदासीन होते जा रहे हैं । कलम के सिपाही गहन शीत
निष्क्रियता में चले गये हैं, पता नहीं वे वहाँ से कभी वापस आयेंगे भी या नहीं ।
और अब
मैं सोचने लगा हूँ कि हिन्दी का साहित्यकार जीते जी मरता कैसे है ! मैं यह भी
सोचने लगा हूँ कि ईरान से लेकर तिब्बत तक विस्तृत भूभाग वाले आर्यावर्त की सीमायें
इतनी संकुचित क्यों हो गयी हैं ! अब मुझे आश्चर्य नहीं होता, ग्लानि होती है,
वेदना होती है... । मैं यह भी सोचने लगा हूँ कि साहित्यकार बौद्धिक अपराधियों की
ज़मात में अपने आपको कितनी चतुरायी से शामिल कर लेता है कि वह उनसे अलग दिखकर भी
उनका ही सहयोगी बन जाता है !
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