गुरुवार, 8 जून 2017

वह बड़ी होकर आसिया अन्द्राबी और शबनम लोन बनना चाहती है...



वह भी तफ़रीह के लिए शहीद पार्क आयी हुयी थी, शाम के झुटपुटे और चेहरे के ढके होने के बावज़ूद उसकी कमसिन आवाज़ उसकी किशोर उम्र की चुगली कर रही थी । वह अभी स्कूल की छात्रा है और बड़ी होकर आसिया अन्द्राबी या शबनम लोन बनना चाहती है । उसे नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं था ।
अपनी सहेली के साथ आयी उस बिन्दास स्कूली छात्रा से हुयी बातचीत के अनुसार वह तो बस इतना जानती थी कि भारत में मोहम्मद शाह गिलानी और यासीन मलिक जैसे लोग दशकों से आग लगा रहे हैं और भारत के लोगों की कमाई से ऐश कर रहे हैं । उनकी ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दग़ी और सुरक्षा के लिए भारत सरकार बेहद चिंतित रहती है । वे ख़ुले आम पाकिस्तानियों की बैठकों में शामिल होते हैं और अलगाववादियों के नाम से कुख्यात होने के बावज़ूद शान की ज़िन्दग़ी जीते हैं ।
लड़की ने मुझसे पूछा - "नैतिकता की बातों का हमारे भौतिक जीवन में मूल्य क्या है ? उसकी व्याहारिक उपयोगिता क्या है ?"
उसके साथ आयी सहेली ने हंसते हुये कहा कि हमने उमर ख़ालिद और शेहला रशीद के बारे में सुना है और उनकी ढाल बनकर बस्तर में सरकारी खर्चे पर रहने वाली बेला भाटिया को देखा है । उनकी बातें आपको अनैतिक लग सकती हैं किंतु उन्हें सरकार से संरक्षण, सुरक्षा और पैसा मिलता है, क्या यह एक आकर्षक बात नहीं है ?  
कश्मीरी अलगाववादियों पर सरकार हर साल करोड़ों रुपये खर्च करती है जबकि के. पी. एस. गिल और कल्लूरी जैसे लोगों को बस्तर से भगा दिया जाता है । इसका अर्थ यह है कि सरकार की दृष्टि में देशभक्त लोग अनुपयोगी हैं । कश्मीरी अलगाववादी और माओवादी हिंसक सरकार के लिए उपयोगी हैं तभी तो उनके ऊपर सरकार करोड़ों रुपये खर्च करती है और उन्हें सुरक्षा उपलब्ध करवाती है ।
... तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमें गिल और कल्लूरी नहीं बल्कि यासीन मलिक, मोहम्मदशाह ग़िलानी, आसिया अन्द्राबी और बेला भाटिया बनना चाहिये ।
    
क्या यह हमारे चिंतन का विषय नहीं होना चाहिये कि वे कौन सी परिस्थितियाँ हैं जिनके कारण भारत की किशोर और युवा पीढ़ी आतंक को अपना आदर्श मानने के लिए मज़बूर हो रही है ?

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