सोमवार, 23 मई 2011

कुम्हार 

दिन भर बेचे 
मिट्टी के दिए 
जब गहराई साँझ   
तो चल दिए कुम्हार 
एक टुकड़ा रोशनी 
माँगने उधार.

जयविलास महल ग्वालियर का दीवान-ए-ख़ास

कफ़न बिन ही दफ़न हो गए 
रेशम चढ़े मज़ार पर 
एक झोपडी भी ना मयस्सर 
सोना चढ़े दीवार पर .

आपकी सरकार आपके द्वार   

दर्द की सीमा 
समंदर की तरह है 
कैसे सफ़र फिर  
दास्ताँ का हो शुरू 
खो गए हैं छोर  
दर्दों के 
किस सिरे से हो रहे तुम  
रू-ब-रू.?

व्यवसाय 

बिक रहे हैं धर्म के 
परिधान अब बाज़ार में 
दानवों के दल हैं निकले 
घूमने बाज़ार में .

खुदकुशी 

क्यों खामोश हैं 
इस शहर में सभी 
सच ने की खुदकुशी 
आज फिर से अभी.

यकीं 

तुम हो धोये दूध के 
किस तरह कर लें यकीं
दूध भी पानी बिना 
आजकल मिलता नहीं. 

भूख 

रूप बदले हाकिमों के 
और बदली नीति भी 
पर न बदली भूख की 
पीड़ा कभी मज़दूर की.

लोकतंत्र 

क्या हुआ जो मंच बदले 
पर लोग तो बदले नहीं 
फिर वही होगा तमाशा 
ग़र रहे दर्शक वही .


बुधवार, 11 मई 2011

कुछ क्षणिकायें ........




कौआ


काले धन वालों को 
कभी नहीं काटता काला कौआ
वह तो काटता है 
केवल 
सच बोलने पर ही.
    
साहित्यकार जी 

वे संवेदनशील हैं 
इसलिए 'कलम के सिपाही' हैं 
वे 'सिपाही' हैं 
इसलिए अपनी पर उतर आते हैं .
सुना है .............
किसी समारोह में पुरस्कार के लिए 
लांघ गए थे सारी सीमाएं.  

बाध्यता बनाम अधिकार 

मतदान 
आपका अधिकार है 
और कातिलों को मतदान 
आपकी बाध्यता.

मालिक 

एस. पी. के बेटे 
उसके यहाँ तालीम लेने आते हैं.
बड़ी-बड़ी डिग्री वाले भी 
खिदमत करने आते हैं .
दरअसल .........
वह एक कोचिंग सेंटर का मालिक है 
इससे पहले 
इसी शहर का सट्टा किंग था 

मार्केटिंग मैनेज़र 

वह मार्केटिंग मैनेज़र है 
एक बड़े हॉस्पिटल का,
..................................
ये हॉस्पिटल........ 
मार्केट कब से हो गया ?

कपड़े 

जिन कपड़ों में 
कोई दीगर लड़की 
लगती है बड़ी कामुक
..........
छलकता है भोला बचपन 
जब पहनती है उन्हें   
मेरी सोलह बरस की बच्ची.  

योगायोग   

पूरे देश ने सीख लिया है योग  
और फेफड़ों की धौंकनी चलाना 
इससे हार्ट नहीं होता हर्ट 
और अटैक से बचाने में मिलती है मदद  
जब पड़ता है 
सी.बी.आई. 
या 
आयकर वालों का  छापा. 

शौक 

जन्म दिन पर हीरों के गहनों की भेंट 
उस गरीब ...
और दलित महिला का शौक है
वह शान-ओ-शौकत से रहती है 
वह आज भी गरीब और दलित है. 
काश ! मैं भी होता 
ऐसा ही गरीब और दलित.

उधार 

उधार 
प्रेम की कैंची है 
और कैंची 
उधार का प्रेम.   







मंगलवार, 10 मई 2011

धर्म चिंतन ........-3

       गत आलेख के चिंतन में एक बात सामने आयी थी कि स्वभाव ही धर्म है. इससे यह ध्वनि भी निकलती है कि विनाशकारी कृत्य भी धर्म का ही परिणाम है. प्रश्न उठता है कि तब अधर्म क्या है ? वस्तुतः 'धर्म' नामक पदार्थ सापेक्षता के सिद्धांत के अनुरूप व्यवहृत होता है. 
      पहले इस पदार्थ के बारे में बता दूँ - 'पदस्य पद्योः पदानां वा अर्थः पदार्थः'  ....यह मात्र भौतिक पदार्थ न होकर सभी सार्थक पदों के अर्थों का द्योतक है. 
     जब हम सापेक्षता की बात करते हैं तो भिन्न-भिन्न स्थितियों में एक ही पदार्थ की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं को स्वीकार करते हैं. किन्तु यह भिन्नता तार्किक होनी चाहिए मनमानी नहीं. इसीलिये आघात को तो अधर्म कहा गया है किन्तु प्रतिघात को नहीं, जबकि आघात-प्रतिघात की प्रक्रिया एक समान है. हिंसा का कृत्य दोनों में ही है पर परिणाम दोनों के भिन्न हैं. आघात का परिणाम ह्त्या भी हो सकता है ...जबकि प्रतिघात से स्वयं की ह्त्या को रोका जा सकता है. 
    लोक में व्यवहृत धर्म सर्व कल्याणकारी प्रकृति का होता है. इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि जो विचार ...जो कृत्य ...जो नियम सर्व कल्याणकारी नहीं हैं वे सब अधर्म की श्रेणी में आते हैं. इस कसौटी पर जब हम समाज और शासन की व्यवस्थाओं / परम्पराओं को रखते हैं तो घोर निराशा होती है. धर्म गुरु, उपदेशक , चिन्तक , साहित्यकार.........आदि इस निराशा से व्यथित हो धर्मानुशीलन की निरंतर संस्तुति करते रहते हैं...... इस तरह समाज में आसुरी और दैवीय वृत्तियों के मध्य सदा ही खींचतान चलती रहती है. 
     सात्विक वृत्ति के लोग लौकिक धर्म से ऊपर उठकर जब अलौकिक शक्तियों का चिंतन-मनन करते हैं तब सारे  लौकिक धर्म उनके लिए बहुत पीछे छूट जाते हैं . 
       परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि लौकिक धर्म का पालन उनके लिए आवश्यक नहीं रहा अब. धर्म तो जीवन पर्यंत अनुशीलन योग्य है. बस अंतर केवल व्यापकता का हो जाता है. पहले जो सीमित था ...अब व्यापक हो जाता है. सारे मत-मतान्तर समाप्त हो जाते हैं वहाँ . सब में एकरूपता दिखाई पड़ती है तब. यह एकरूपता परमशक्ति की एक रूपता है. धर्म का सापेक्षवाद भी समाप्त हो जाता है यहाँ . क्योंकि तब हम मानव समाज और धरती से परे सम्पूर्ण चराचर जगत के नियंता की भौतिक-पराभौतिक लीलाओं के चिंतन का आनंद लेने लगते हैं. 
      आध्यात्मिक चिंतन स्थूल से सूक्ष्म का चिंतन है. स्थूल की भिन्नाकृतियाँ सूक्ष्म की एकरूपता में समाहित हो जाती हैं. सारे विकार स्थूल में होते हैं सूक्ष्म तो परे है इन   विकारों से. परमाणु में तो विकार संभव है पर ऊर्जा में क्या विकार होगा ! आध्यात्मिक धर्म इसी सूक्ष्म का धर्म है ....जटिलता से सरलता की ओर होने वाली गति का धर्म है .  
    एक ओर मनुष्य अपने जीवन में कितनी समस्यों से जूझता दिखाई देता है - व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय .......और हर समस्या किसी पहाड़ से कम नहीं होती कभी. दूसरी ओर ब्रह्माण्ड में आकाशीय पिंडों के हर क्षण रूपांतरण की अनवरत अद्भुत लीला....शून्य से विराट और विराट से शून्य की अनुलोम-प्रतिलोम गति.  कहीं कोई कृष्ण विवर बन रहा है ......तो कहीं कोई कृष्ण विवर आकाशीय पिंडों के भक्षण में लगा है ..........तो कहीं कोई नया सौर्य मंडल आकार ले रहा है ..............तो कहीं गुण (quality) किसी तत्व (quantity) में रूपांतरित हो रहा है. अखिल ब्रह्माण्ड के स्तर पर होने वाली यह लीला कितनी अद्भुत और आश्चर्यकारी है मनुष्य के लिए ! 
     आध्यात्मिक चिंतन व्यक्ति को परमहंस की स्थिति ....स्थितिप्रज्ञ की स्थिति की ओर ले जाता है. ...तब वहाँ कोई "वाद" नहीं होता ...कोई "ism " नहीं होता. आध्यात्मिक ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति दिलाता है इन सभी वैकारिक भिन्नताओं से.             

बुधवार, 4 मई 2011

धर्म चिंतन ........2


पिछली बार हमने लौकिक धर्म पर कुछ चर्चा की थी. सुज्ञ जी ने सार रूप में धर्म को लोक स्व-भाव कहा. यह सूत्र ज्ञानियों के लिए है. अभी ओसामा-बिन-लादेन के मारे जाने के पश्चात प्रसंगवश इस "स्व-भाव" पर पुनः चर्चा की आवश्यकता है. अस्तु .......
     
पिछली बार धर्म के प्रसंग में भौतिक शास्त्र के अनुसार ब्रह्माण्ड के स्व-भाव पर चिंतन किया गया था. जब हम स्व-भाव की बात करते हैं तो यह संकेत चराचर जगत के मौलिक गुणों की ओर होता है. मौलिक गुण किसी भी पिंड की सूक्ष्म संरचना के संयोजन पर निर्भर करते हैं. वही इलेक्ट्रोन-प्रोटोन और न्यूट्रोन सभी तत्वों के परमाणुओं में होते हैं किन्तु संख्या और संयोजन की भिन्नता के कारण कोई परमाणु सोने का बन जाता है तो कोई यूरेनियम का....और फिर ये सभी तत्व अपने-अपने भिन्न गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव प्रकट करते हैं. अब चिंतन का विषय यह है कि क्या ओसामा-बिन-लादेन जैसे   लोगों का स्व-भाव भी उनका अपना विशिष्ट धर्म कहा जाएगा ? मानवता विरोधी कार्यों में संलिप्त और उस तरह की सोच रखने वाले लोगों के स्वभाव को क्या कहा जाय ? 
    
सामान्य बोलचाल में हम स्वभाव को किसी व्यक्ति की प्रकृति से जोड़ कर देखते हैं.  निश्चित ही यह उसकी विशिष्ट दैहिक संरचना का विशिष्ट प्रभाव है.....और इस नाते उसका स्वभाव उसका भौतिक धर्म है.... जड़ता का धर्म है.  किन्तु मनुष्य का धर्म भौतिक धर्म से आगे का धर्म है.....और यह चेतना का धर्म है.....विवेक निर्णीत धर्म है ......सर्व कल्याण का धर्म है. जड़ और चेतन के धर्म में यही अंतर है. 
    
सुर-असुर, देव-दैत्य, मानव-दानव आदि के स्वभावों के आधार पर दो प्रकार की प्रवृतियां सामने आती हैं ...हिंसक और अहिंसक. मनुष्य चेतन जगत में सर्वश्रेष्ठ है ...इसलिए उससे सर्व कल्याणकारी व्यवहार ही अपेक्षित है.... और यही मनुष्य का लौकिक धर्म है .  
    
मनुष्य की मूल प्रकृति अहिंसक है ...हिंसा तो उसकी विकृति है. चेतन जगत में मनुष्य ही सर्वाधिक व्यापक परिवर्तनकारी कारक है....उसकी यह परिवर्तनकारी प्रवृत्ति शान्ति या अशांति का कारण बन  सकती है. इसलिए मनुष्य से अपने भौतिक धर्म के अतिरिक्त चेतन धर्म की भी अनिवार्य अपेक्षा की जाती है. हम अपने भौतिक धर्मों का तो पालन कर लेते हैं ....जन्म, ज़रा ..मृत्यु की स्वाभाविक जैव-रासायनिक क्रियाएं स्वतः संपन्न होती रहती हैं. फिर जीवन को बनाए रखने के लौकिक धर्म भी जैसे-तैसे  संपन्न करते ही हैं ......पर जो चूक होती है वह इस चेतन-धर्म के पालन में ही हो रही है...और इसके प्रति हम ज़रा भी संवेदनशील नहीं हैं. सारा ध्यान लौकिक धर्म के पाखण्ड में ही केन्द्रित हो कर रह गया है. 
   
सुज्ञ जी को बहुत-बहुत धन्यवाद. उनके सूत्र वाक्य के कारण ही इस विमर्श को कुछ और गति मिल सकी.         
         

रविवार, 1 मई 2011

                                        धर्म चिंतन ........1 


      मैं कोई नवीन बात बताने नहीं जा रहा हूँ.बस शब्दों का हेर-फेर है. मुझे लगता है कि हमें सुपरिचित शब्द "धर्म" से बार-बार परिचित होने की आवश्यकता है. अस्तु आज का चिंतन इसी विषय पर.
         यदि मैं कहूँ कि हम एक साथ कई धर्मों का पालन करते हैं तो आपको विचित्र सा लगेगा. पर वास्तविकता यही है कि जन्म से मृत्यु तक हमें कई धर्मों का पालन करना पड़ता है. भोर से अगली भोर तक ........और फिर नित्य यही क्रम...... उसी तरह .....जैसे पृथिवी को सामान्यतः  एक नहीं तीन-तीन गतियों से अपनी यात्रा करनी पड़ती है. एक अपनी धुरी पर, दूसरी सूर्य के चारो ओर ..और तीसरी उसके अपने भीतर.......इसके साथ ही गति के सारे सिद्धांतों का पालन भी. इतना ही नहीं  .....अपने अस्तित्व के लिए और भी न जाने कितने सिद्धांतों का पालन भी.  इन सबका पालन अनिवार्य है पृथिवी के लिए. ये पृथिवी के धर्म हैं. पृथिवी बंधी हुयी है इन धर्मों से. धर्मच्युत होने का परिणाम सहज ही समझा जा सकता है. 
       हमें भी .....ब्रह्माण्ड के असंख्य पिंडों की तरह ...मौसम की तरह .....चराचर जगत के अपने धर्मों का पालन करना पड़ता है. सोने-जागने से लेकर जीवन के सारे कर्मों के लिए एक निश्चित परिधि में कर्त्तव्य  करने होते हैं. 
    ब्रह्माण्ड के असंख्य स्थूल पिंडों की व्यवस्था कितनी आश्चर्यजनक है ! सबकी दिशाएँ भिन्न ..... गतियाँ भिन्न.....किन्तु कहीं पारस्परिक मुठभेड़ नहीं. भिन्नता के बाद भी टकराव नहीं. वस्तुतः भिन्नता के कारण ही टकराव नहीं है. एकरूपता होती तो सोचिये क्या होता.....? ब्रह्मांड के सभी सौर्य मंडल एक ही दिशा में एक ही गति से .......
       हाँ ! विशेषता यह है कि इनमें से कोई भी एक दूसरे के कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं करता ....यह नहीं कहता कि हमारी ही दिशा सही है ...हमारी ही गति सही है ...सब लोग हमारा ही अनुसरण करो. क्योंकि उन भौतिक पिंडों को पता है ...... पता है कि सब एक दूसरे का अनुसरण करने लगेंगे तो आपस में मुठभेड़ हो जायेगी . सब छिन्न-भिन्न हो जायेंगे ....अस्तित्व समाप्त हो जाएगा सबका.  इसलिए सब अपने-अपने रास्ते में अपनी-अपनी गति से गमनशील हैं. सब एक दूसरे का सम्मान करते हुए ...उनकी परम्पराओं का सम्मान करते हुए ...उनके सिद्धांतों का आदर करते हुए गतिमान हैं .  तथापि कुछ नियम हैं जिनका पालन सबके लिए अनिवार्य है. ......गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना .......गति के सामान्य सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना ........कुल मिलाकर यह कि भौतिक शास्त्र के ज्ञाताज्ञात धर्मों का पालन किये बिना उनका अस्तित्व संभव ही नहीं है.  ऐसा ही है सनातन धर्म. इसी कारण सब धर्मों का पिता स्वरूप है यह. सनातन धर्म बड़ी उदारता से भिन्न-भिन्न सौर्य मंडलों को अपनी विशेष व्यवस्था बनाने की स्वतंत्रता प्रदान करता है. .....शर्त यह है कि एक व्यवस्था की  स्वतंत्रता दूसरे की व्यवस्था के लिए चुनौती न बन जाय. हम अलास्का के निवासी से यह नहीं कह सकते कि आप धोती कुर्ता पहनिए और हर पक्ष में मुंडन करवाइए. हाँ यदि वह भारत आता है तो उसे गरम कपडे छोड़ने ही होंगे ...अब वह यह नहीं कह सकता कि हमारे धर्मानुसार तो हमें सदैव गरम कपड़े ही पहनने हैं और रोज स्नान नहीं करना है.....क्योंकि हम अपने धर्म के विरुद्ध नहीं जा सकते. धर्म का यह जड़ स्वरूप है. यह हमारे लिए हानिकारक है. समाज के लिए हानिकारक है. हमारी जीवन शैली सदा सर्वदा सभी देश कालों में एक समान नहीं रह सकती. ....रहेगी तो कल्याणप्रद नहीं होगी. हमारा जीवन दुखों से भर जाएगा ..और हम समाज में उपहास के पात्र बन जायेंगे. 
     एक उदाहरण देखिये. छत्तीसगढ़ एक उष्ण क्षेत्र है ...यहाँ ग्रीष्म ऋतु में भी एक स्कूल के प्राचार्य पादरियों वाला ऊपर से नीचे तक लंबा चोंगा पहनते हैं. दूसरी कक्षा की एक छोटे बच्ची ने जिसे पादरी का नाम नहीं मालुम था ...पारस्परिक वार्ता में उन्हें " वो जो गले से पेटीकोट पहनते हैं ..........." संबोधन दिया. बड़े बच्चों ने सुना तो उनका नाम ही "पेटीकोट" रख दिया. अब वे जिधर से निकलते ...बच्चे मुंह दबाकर हंसने लगते. कितनी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न करली उन्होंने अपने लिए. इतनी ग्रीष्म में केवल धार्मिक जड़-परम्परा के पालन और अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने के लिए उस चोंगे का धारण करना बुद्धिमत्ता का परिचायक नहीं है. धर्म प्रदर्शन की नहीं आचरण की चीज है. हिन्दुओं में कभी पर्दाप्रथा नहीं रही ....समय बदला .....तो पर्दे की आवश्यकता का अनुभव किया गया ......समय फिर बदला तो पर्दा शनैः-शनैः लुप्त होने लगा. यही धर्म है ...आवश्यकता के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन. परिवर्तन के पीछे कोई कारण होते हैं...कोई तर्क होता है ....परिस्थितिजन्य  कारणों और तर्कों की उपेक्षा किसी भी धर्म को पाखण्ड बना देती है. धर्म जब पाखण्ड बन जाता है तभी वह अफीम की संज्ञा धारण करता है. 
       अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान को सबसे पृथक रखना विभिन्न धर्मावलम्बियों की एक बड़ी समस्या है. प्रश्न यह है कि आवश्यक क्या है जीवन के लिए ? पृथक पहचान या धर्मानुशीलन ? पहचान पाखण्ड है और धर्मानुशीलन आचरण है. आज जब शिक्षा इतनी सुलभ है ...विज्ञान ने लोगों को नयी दृष्टि प्रदान की है ....तब उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे जीवन में तर्क का समावेश करें. ....उचित-अनुचित की वैज्ञानिक दृष्टि से समीक्षा करें और फिर उसे जीवन में अनुकरण के योग्य बनाएं. विश्व के उन देशों के लिए जो गर्म हैं और जहाँ पानी की कमी है.....मैं खतने का समर्थन करता हूँ . कारण यह है कि वहां के लोगों में नित्य स्नान और शारीरिक स्वछता के अभाव में लिंगाग्र के चर्मावरण के नीचे जमा होने वाला स्राव किसी गंभीर व्याधि का कारण बन सकता है.  खतना उनके लिए आवश्यक है .......पर जहाँ पर्याप्त जल है ..और यूरोप जैसे देशों में जहाँ खूब शीत पड़ती है ऐसा करना आवश्यक नहीं है. मेरा आशय यह है कि धर्म यदि विज्ञान सम्मत है और आवश्यकतानुसार किंचित परिवर्तनशील हो तो ही समाज के लिए कल्याणकारी हो पाता है. भारत में ऋतु अनुरूप हमारी जीवन शैली में पर्याप्त परिवर्तन किये जाते रहने की गौरवशाली परम्परा रही है. 
      तालाबों, झीलों , झरनों , नदियों और समुद्रों के जल भंडारों के अपने-अपने धर्म हैं .....धर्मों की यह भिन्नता उनकी आवश्यकता है. पर तभी तक ......जब तक कि वे स्वसमूहों में रहते हैं. स्थान परिवर्तन के साथ ही उनके धर्म भी बदल जाते हैं. तालाब के पानी को नदी में डाल देने पर उसे नदी का धर्म मानना पड़ता है. वहाँ वह यह हठ नहीं कर सकता कि हमारी परम्परा तो स्थिर रहने की है ...हम प्रवाहित नहीं होंगे. ...प्रवाहमान होने से हम विधर्मी हो जायेंगे .  झरने का जल जब नदी में पहुंचे तो कहे कि हमारे धर्म में तो आदिकाल से ऊपर से नीचे झरते रहने की परम्परा है इसलिए हम यहाँ भी ऊपर से ही नीचे की ओर झरेंगे . नदी में आ गए तो क्या हुआ .......हमारी पृथक पहचान आवश्यक है हम अपनी धार्मिक परम्परा नहीं छोड़ेंगे. हमारी धार्मिक स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए हमें किसी ऊंचे स्थान पर ले चलो ताकि हम वहाँ से झर सकें और अपने धर्म की रक्षा कर सकें  .........विचारणीय  विषय है .....आप लोग सोचिये.....विभिन्न जल राशियों में विवाद खडा हो जाएगा . धार्मिक झगड़े होंगे और उनका विकास अवरुद्ध  हो जाएगा. धर्म के नाम पर हम सब भी यही कर रहे हैं ....ऊपर से इन अविवेकी बातों को संरक्षण देने के लिए धर्म निरपेक्षता नामक एक और अधर्म खड़ा कर दिया गया है  .  आप कल्पना कीजिये........ समुद्र में सभी जल राशियों के पहुँचने के बाद समुद्र की शासन व्यवस्था उनके लिए धर्म निरपेक्षता के नाम पर सभी को अपने-अपने धर्मों के पालन की स्वतंत्रता प्रदान करदे तो क्या होगा. मीठे-खारे का विवाद, मटमैले-साफ़ का विवाद, स्थिर रहने और बहने का विवाद ...न जाने कितने विवाद होंगे. फिर उनके धर्माधिकारी व्यवस्था दें कि प्रत्येक जल राशि की मछलियों को अपने-अपने जल राशि वाले धर्मपालन की स्वतंत्रता है.  साफ़ और मीठी नदी की मछलियों का धर्माधिकारी कहेगा कि समुद्र में मिल गए  तालाब के मटमैले जल के साथ रहने से हमारा धर्म नष्ट हो जाएगा इसलिए हमारी वाली मछलियो इधर आ जाओ. मछलियाँ परेशान होंगी ......समुद्र में जाएँ तो जाएँ कहाँ ? सारा जल तो मिल गया ...कैसे पहचाने कि कौन सी जल राशि समुद्र के किस भाग में है ?
     कल्याणकारी और अनुकरणीय धर्म वह है जो देश-काल की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित और विकसित किया जाय. एक देश का एक धर्म हो . किसी एक देश में विभिन्न धर्मों का एक साथ होना अवैज्ञानिक है . उनकी निष्ठाएं पृथक हैं ...उनकी आवश्यकताएं पृथक हैं....उनकी प्राथमिकताएं पृथक हैं....उनकी कार्यशैली पृथक है....उनकी जीवन शैली  पृथक है .....
    भारत के विभिन्न सम्प्रदाय अपनी पृथक धारा के बाद भी राष्ट्रीय धारा में एक गति से ....एक दिशा में प्रवाहित होते हैं.  भारत के आयातित धर्म अपने को इनके समान नहीं बना सके हैं अभी तक ......विवाद का एक बड़ा कारण यही है. 
       आज की चर्चा में लौकिक धर्म पर किंचित चर्चा का प्रयास किया गया है ...अगली बार हम आध्यात्मिक धर्म के स्वरूप पर कुछ चर्चा और चिंतन -मनन करेंगे.           इति शुभम् .