गत आलेख के चिंतन में एक बात सामने आयी थी कि स्वभाव ही धर्म है. इससे यह ध्वनि भी निकलती है कि विनाशकारी कृत्य भी धर्म का ही परिणाम है. प्रश्न उठता है कि तब अधर्म क्या है ? वस्तुतः 'धर्म' नामक पदार्थ सापेक्षता के सिद्धांत के अनुरूप व्यवहृत होता है.
पहले इस पदार्थ के बारे में बता दूँ - 'पदस्य पद्योः पदानां वा अर्थः पदार्थः' ....यह मात्र भौतिक पदार्थ न होकर सभी सार्थक पदों के अर्थों का द्योतक है.
जब हम सापेक्षता की बात करते हैं तो भिन्न-भिन्न स्थितियों में एक ही पदार्थ की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं को स्वीकार करते हैं. किन्तु यह भिन्नता तार्किक होनी चाहिए मनमानी नहीं. इसीलिये आघात को तो अधर्म कहा गया है किन्तु प्रतिघात को नहीं, जबकि आघात-प्रतिघात की प्रक्रिया एक समान है. हिंसा का कृत्य दोनों में ही है पर परिणाम दोनों के भिन्न हैं. आघात का परिणाम ह्त्या भी हो सकता है ...जबकि प्रतिघात से स्वयं की ह्त्या को रोका जा सकता है.
लोक में व्यवहृत धर्म सर्व कल्याणकारी प्रकृति का होता है. इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि जो विचार ...जो कृत्य ...जो नियम सर्व कल्याणकारी नहीं हैं वे सब अधर्म की श्रेणी में आते हैं. इस कसौटी पर जब हम समाज और शासन की व्यवस्थाओं / परम्पराओं को रखते हैं तो घोर निराशा होती है. धर्म गुरु, उपदेशक , चिन्तक , साहित्यकार.........आदि इस निराशा से व्यथित हो धर्मानुशीलन की निरंतर संस्तुति करते रहते हैं...... इस तरह समाज में आसुरी और दैवीय वृत्तियों के मध्य सदा ही खींचतान चलती रहती है.
सात्विक वृत्ति के लोग लौकिक धर्म से ऊपर उठकर जब अलौकिक शक्तियों का चिंतन-मनन करते हैं तब सारे लौकिक धर्म उनके लिए बहुत पीछे छूट जाते हैं .
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि लौकिक धर्म का पालन उनके लिए आवश्यक नहीं रहा अब. धर्म तो जीवन पर्यंत अनुशीलन योग्य है. बस अंतर केवल व्यापकता का हो जाता है. पहले जो सीमित था ...अब व्यापक हो जाता है. सारे मत-मतान्तर समाप्त हो जाते हैं वहाँ . सब में एकरूपता दिखाई पड़ती है तब. यह एकरूपता परमशक्ति की एक रूपता है. धर्म का सापेक्षवाद भी समाप्त हो जाता है यहाँ . क्योंकि तब हम मानव समाज और धरती से परे सम्पूर्ण चराचर जगत के नियंता की भौतिक-पराभौतिक लीलाओं के चिंतन का आनंद लेने लगते हैं.
आध्यात्मिक चिंतन स्थूल से सूक्ष्म का चिंतन है. स्थूल की भिन्नाकृतियाँ सूक्ष्म की एकरूपता में समाहित हो जाती हैं. सारे विकार स्थूल में होते हैं सूक्ष्म तो परे है इन विकारों से. परमाणु में तो विकार संभव है पर ऊर्जा में क्या विकार होगा ! आध्यात्मिक धर्म इसी सूक्ष्म का धर्म है ....जटिलता से सरलता की ओर होने वाली गति का धर्म है .
एक ओर मनुष्य अपने जीवन में कितनी समस्यों से जूझता दिखाई देता है - व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय .......और हर समस्या किसी पहाड़ से कम नहीं होती कभी. दूसरी ओर ब्रह्माण्ड में आकाशीय पिंडों के हर क्षण रूपांतरण की अनवरत अद्भुत लीला....शून्य से विराट और विराट से शून्य की अनुलोम-प्रतिलोम गति. कहीं कोई कृष्ण विवर बन रहा है ......तो कहीं कोई कृष्ण विवर आकाशीय पिंडों के भक्षण में लगा है ..........तो कहीं कोई नया सौर्य मंडल आकार ले रहा है ..............तो कहीं गुण (quality) किसी तत्व (quantity) में रूपांतरित हो रहा है. अखिल ब्रह्माण्ड के स्तर पर होने वाली यह लीला कितनी अद्भुत और आश्चर्यकारी है मनुष्य के लिए !
आध्यात्मिक चिंतन व्यक्ति को परमहंस की स्थिति ....स्थितिप्रज्ञ की स्थिति की ओर ले जाता है. ...तब वहाँ कोई "वाद" नहीं होता ...कोई "ism " नहीं होता. आध्यात्मिक ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति दिलाता है इन सभी वैकारिक भिन्नताओं से.
"... आध्यात्मिक चिंतन व्यक्ति को परमहंस की स्थिति ....स्थितिप्रज्ञ की स्थिति की ओर ले जाता है. ...तब वहाँ कोई "वाद" नहीं होता ...कोई "ism " नहीं होता..."
जवाब देंहटाएंगीता में कृष्ण को भी योगियों ने, जिन्होंने तपस्या द्वारा स्वभाव से चंचल मन को अपने नियंत्रण में कर लिया, कहते दर्शाया कि मानव का कर्तव्य दुःख-सुख, गर्म-सर्द, आदि विपरीत अनुभूतियों में एक सा व्यवहार करना, स्थितप्रज्ञ रहना - निराकार ब्रह्म के समान, क्यूंकि वो ही 'परम सत्य' है, शून्य काल और स्थान से सम्बंधित,,, जबकि हमारे भौतिक ज्ञानेन्द्रियों के दूषित और सीमित शक्ति के होने के कारण हम सूर्य और सौर मंडल द्वारा जनित काल के नियंत्रण में रहते प्रतीत होते हैं, सौर-मंडल की आयु की तुलना में अपने क्षणिक जीवन काल में,,, जिस कारण जो हमें पशु अथवा मानव रूप में 'सत्य' प्रतीत होता है वो केवल एक छलावा है, माया अथवा योगमाया के कारण उत्पन्न भ्रम है, यानि 'असत्य' !
गीता में यह भी लिखा है कि कोई भी मानव कृष्ण को, यानि उस शक्ति को जो सब के भीतर माया के कारण विराजमान प्रतीत होती है, उस को पा सकता है,,, (अर्जुन समान दिव्य-चक्षु प्राप्त कर, यानि अंतर्मुखी हो 'छटी इन्द्रिय', 'ई एस पी', 'कुण्डलिनी' को जगा,,, जिसे सांकेतिक भाषा में साधारणतया हर व्यक्ति के 'मूलाधार' में कुंडली जमाये सांप समान सोया दर्शाया जाता है, क्यूंकि 'बहिर्मुखी' होना सौरमंडल के सार से निर्मित मानव रुपी यंत्र का प्राकृतिक स्वभाव जाना अंतर्मुखी योगियों ने)... किन्तु वे यह भी कह गए कि परम सत्य को पाना तभी संभव है जब कोई भी व्यक्ति 'कृष्ण' पर 'आत्म-समर्पण' कर दे... किन्तु, शायद काल की उलटी चाल के कारण, पश्चिम दिशा वासी (शैतान शनि, नटखट नन्दलाल, के प्रतिरूप) की तुलना में पूर्व दिशा वासी (काली-कामाख्या, आपार शक्ति जो 'शिव के ह्रदय' में रहती है, उस के प्रतिरूप) वर्तमान में तुच्छ प्रतीत होते हैं,,, किन्तु कलियुग, अथवा घोर कलियुग, की यह प्रकृति या स्वभाव भी जाना गया कि यह सतयुग को वापिस ले आता है...
यह मानव का स्वभाव है कि वो समाज के अन्य सदस्यों के सामने अपना साफ़ सुथरा चेहरा ही प्रस्तुत करे (क्यूंकि उसे मन को दर्शाने वाला दर्पण भी जाना गया), यद्यपि उसकी सही प्रकृति को अन्य की अपेक्षा केवल वो ही अच्छी भांति जान सकते हैं जो उसके निकट सम्बंधि अथवा मित्र रहे हों,,, किन्तु वो भी नहीं कह सकते कि वो उसे पूरी तरह जानते हैं ! जिस कारण किसी बड़े, 'भले या बुरे', व्यक्ति की 'मृत्यु' के उपरांत यदि संभव हो तो 'मीडिया' द्वारा प्रयास किया जाता है कि जो उस व्यक्ति को उसके जीवन काल में निकट से देखे हैं उनके उसके चरित्र से सम्बंधित विचार सबके सम्मुख प्रस्तुत किये जाएँ ('भगवान् बुद्ध' की मृत्यु के पश्चात भी ऐसे ही विचार संकलित किये गए जिसके आधार पर बुद्धिस्म ने अनंत रूप धारण कर चारों और फ़ैल गया बरगद के वृक्ष समान !) ,,, जिससे उसके चरित्र का सार हर कोई निकाल सके,,, जो कई हो सकते हैं... इस कारण, मानव को अनंत श्रृष्टि कर्ता का प्रतिबिम्ब जान, उस अदृश्य शक्ति को जानने हेतु, प्राचीन ज्ञानियों के प्रयास का सार "हरी अनंत हरी कथा अनंता,,," निकाला गया,,, और "सत्यम शिवम् सुंदरम" और "सत्यमेव जयते" कह केवल अनंत और अदृश्य शक्ति को ही सत्य और सुंदर भी जाना... और मानव जीवन का उद्देश्य केवल स्वयं के माध्यम से 'कुण्डलिनी जगा' उस निराकार शक्ति तक पहुंचना जो 'अनंत नाग पर लेटा' है, जिसे शेषनाग भी कह निराकार 'नादबिन्दू' द्वारा अनंत साकार ब्रह्माण्ड के निर्माण के पश्चात पृथ्वी अथवा शिव का शेष किन्तु अपने केंद्र में अनंत शक्ति धारण करना दर्शाया सर्प को 'शेषनाग' भी दर्शा...
जवाब देंहटाएंदूसरी ओर, जब हम वर्तमान में अपना बाहरी चेहरा देखना चाहते हैं तो एक सादे दर्पण को ही प्राथमिकता देते हैं,,, ' जादुई शीशे ' की अपेक्षा, जिसमें हमारा सही प्रतिबिम्ब नहीं देखा जा सकता, यद्यपि सादा दर्पण भी दांयें को बायाँ और बायें को दांया उलटा दर्शा कर संकेत देता है इसके भी असत्य को ही प्रतिबिंबित करने की क्षमता को,,, दर्पण के सामने बैठे या खड़े होते हैं जिससे हमें अपना चेहरा दिखाई पड़ सके कि वो साफ़ सुथरा है भी कि नहीं, बाल कंघी किये हुए हैं कि नहीं, दाढ़ी - यदि उगाई है तो - वो भी सही कंघी की हुई अथवा सही कटी हुई है कि नहीं, आदि, आदि... दूसरी ओर, हमारी बचपन से, जन्म से, ले कर वर्तमान तक विभिन्न वस्त्रों अथवा विभिन्न स्थानों पर खींची गयी अपनी निजी तसवीरें, हमें सहायता नहीं करतीं कि उन - सभी अनंत अपनी ही तस्वीरों में - वास्तविक 'मैं' कौन है !...
जवाब देंहटाएंसंभवतः जैसे हम मानव को ही, स्वयं को भी, समझने में अपने को सक्षम नहीं पाते, तो शायद यह दर्शाता है कि इसी प्रकार सृष्टि-कर्ता भी अपने विभिन्न प्रतिरूपों को अपने 'तीसरे नेत्र' में अनंत काल से दृष्टा भाव से निरंतर देखता तो आ रहा है किन्तु संभवतः वो उसको स्वयं को जानने के लिए काफी नहीं पाता है ! जिस कारण प्राचीन ज्ञानी भी थक कर उसे अजन्मा बता गए !
गहन चिंतन से उपजा सार्थक आलेख....
जवाब देंहटाएंसच्चा धर्म संपूर्ण रूप से इन्द्रियातीत है और इन्द्रियातीत होने की संभावना विश्व के हर प्राणी में कम या अधिक अंश में मौजूद है....
एक गिद्ध बिन्दु जितना दिखाई दे इस ऊँचाई तक उड़ता है पर इतना ऊपर उड़ते समय भी उसकी नज़र सड़े हुए मांस पर ही होती है अत: अगर धर्म विषय की हमारी परिकल्पनाओं का अंत में यही परिणाम आना हो तो वह अधर्म ही है.....
धर्म तो साक्षात्कार है...कोई चर्चा,सिद्धांत या विधान नही....जिसमें हमारी श्रद्धा हो उसमें तन्मय हो जाना...उस स्वरूप में हमारी आत्मा पूर्ण रूप से लिप्त हो जाए....तभी वह सार्थक है..
ब्रह्म भी एक ही है पर सापेक्ष भूमिका के कारन हमें अनेक रूपों में दिखाई देता है....सापेक्षता के मूल में हैं नाम और रूप...उदाहरण स्वरूप अगर हम किसी मिट्टी के घट में से नाम और रूप निकाल लें तो बाकी रहेगी सिर्फ मिट्टी जो उसका तत्व है......
हिन्दू मान्यता बहुत विचित्र है, क्यूंकि मिटटी से बनी पृथ्वी और ब्रह्माण्ड को मिथ्या जगत कहा गया ज्ञानियों द्वारा, यानि साकार ब्रह्माण्ड केवल शक्ति का खेल है, राम (सूर्य) की लीला , कृष्ण (गैलेक्सी के केंद्र में शक्ति, जो सूर्य और चंद्रमा आदि को प्रकाशित करता है) की लीला,,, वैसे ही जैसे हम किसी फिल्म को पर्दे में देखते हुए विभिन्न अनुभूतियों का आनंद लेते हैं, उतनी देर उसे सत्य मान ! ये फ़िल्मी माया जगत समान संकेत काल के सतयुग से कलियुग की ओर, ब्रह्मा के ४ अरब से अधिक लम्बे एक दिन में ४३.२ लाख वर्ष के एक महायुग का १०८० बार आने द्वारा दर्शाया प्राचीन हिन्दुओं ने, और उसके संकेत निद्रावस्था में स्वप्न द्वारा भी हर किसी को शिशु काल से ही मिलते है, पशुओं को भी !
जवाब देंहटाएं@ परम सत्य को पाना तभी संभव है जब कोई भी व्यक्ति 'कृष्ण' पर 'आत्म-समर्पण' कर दे..
जवाब देंहटाएंॐ नमोनारायण जे.सी. बाबा जी ! कृष्ण विवर को समर्पण दिक् काल का समर्पण है .....सब लीन हो जाते हैं उसी में...तभी तो वहाँ शून्य है....वहाँ कोई सापेक्ष नहीं .....दिक् काल से परे परमात्म बोध की प्रशान्तावस्था. किसी खगोलीय पिंड की स्थितिप्रज्ञता इस कृष्ण विवर में ही प्रतीत होती है .
@ ....सापेक्षता के मूल में हैं नाम और रूप...
नाम रूपमय जगत की लीला को लीलावत समझना भी एक साधना का परिणाम है देवी जी !
डॉक्टर मालिनी जी ! दर्शन में आपकी रूचि जानकार मन हर्षित हो गया .
चर्चा में भाग लेने के लिए आप दोनों महानुभावों को साधुवाद !
कौशलेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंसही निरुपण किया आपने……
"आध्यात्मिक चिंतन स्थूल से सूक्ष्म का चिंतन है."
जब चिंतन सुक्ष्म से सुक्ष्मोत्तर होता जाता है, सारे भेद स्पष्ठ होते चलते है। तब धर्म को किसी अर्थ किसी परिभाषा का मोहताज़ नहीं होना पडता।
आध्यात्मिक चिंतन व्यक्ति को परमहंस की स्थिति ....स्थितिप्रज्ञ की स्थिति की ओर ले जाता है. ...तब वहाँ कोई "वाद" नहीं होता ...कोई "ism " नहीं होता. आध्यात्मिक ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति दिलाता है इन सभी वैकारिक भिन्नताओं से.....
जवाब देंहटाएंBeautiful explanation .
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