यह सौन्दर्य है क्या .....? कैसा दिखता है.......? किसने देखा है उसे ......? कहाँ रहता है ......?
शायद बहुत सुन्दर दिखता होगा ...तभी तो पूरी दुनिया पागल है उसके पीछे.
चलिए , सौन्दर्य से ही पूछते हैं ......किन्तु वह मिलेगा कहाँ ? कहाँ ढूंढेंगे हम उसे ?
अच्छा, उस सुन्दर लड़की से पूछते हैं, उसे तो पता होगा ही सौन्दर्य का पता .....
"ए सुन्दर लड़की ! ज़रा बताना तो भला ...सौन्दर्य का पता ..."
"क्या कहा ? सुन्दर लड़की ! मैं सुन्दर लड़की हूँ ? पर अम्मा तो कहती हैं करमजली ........नहीं-नहीं .....आपको भ्रम हुआ है ......मैं सुन्दर नहीं ...सुन्दर होती तो क्या करमजली होती ....जाइए किसी और से पूछ लीजिये सौन्दर्य का पता .....मैं सुन्दर होती तो आपको ज़रूर बताती ....."
चलो, सरोवर में खिले इन पद्म पुष्पों से पूछते हैं .....उपवन में खिले इन तरुणी पुष्पों से पूछते हैं ........इन रंग बिरंगी तितलियों से पूछते हैं .......
अरे ! कोई भी नहीं बता पा रहा .......
चलो, हिमालय से उतरती ...बलखाती ..इठलाती ...इस नदी से पूछते हैं ...कितनी सुन्दर लग रही है ...इसे ज़रूर पता होगा ....
अरे ! यहाँ भी निराशा ...किसी को नहीं पता सौन्दर्य का पता. सब किसी न किसी बात को लेकर असंतुष्ट हैं ...अतृप्त हैं .....दुखी हैं ......
फिर......... कहाँ खोजूँ, किससे पूछूँ ...?
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"मैं यहाँ हूँ ..?"
" कौन हैं आप ....? और कहाँ हैं ?
"सौंदर्य हूँ मैं......और यहाँ हूँ ....."
"कहाँ भाई ? मुझे तो यहाँ आसपास दूर-दूर तक कहीं कोई दिखाई नहीं देता ...कहाँ हैं आप ? कैसे दिखते हैं ...? कैसे पहचानूंगा आपको ?"
"जैसे सूरदास ने पहचाना था ......उसके लिए इन आँखों से काम नहीं चलेगा..... मुझे देखने के लिए दूर-दूर तक देख रहे हो इसीलिए तो दिखाई नहीं पड़ रहा हूँ मैं...यहीं देखो अपने पास ...अपने अन्दर ......जिस कोण से और जितना देखना चाहोगे मुझे .....वैसा ही .....और उतना ही दिखाई पडूंगा मैं "
"अपने अन्दर ? अपने अन्दर कैसे देखूं भला ? और कैसे पहचानूँ कि जो मेरे अन्दर है वह सौन्दर्य ही है ...वहाँ कोई और भी तो हो सकता है ....जैसे कुरूप, विद्रूप...या ऐसा ही कोई और ..."
" ठीक कहते हो, वहाँ और भी कई लोग हैं ...किन्तु जब मैं वहाँ रहता हूँ तब ये कोई वहाँ नहीं रहते .....मैं तो अकेला ही रहता हूँ ...मेरी अनुपस्थिति ही उनकी उपस्थिति है ...तुम तो केवल मुझे ही देखते रहो ...बस, मैं उपस्थित रहूँगा ....जिस क्षण मुझे नहीं देखोगे मैं अनुपस्थित हो जाऊंगा .....तब मेरे स्थान पर अन्य लोग होंगे ...."
"तो आपके अनुसार वह सुन्दरी सुन्दर नहीं है....वे पद्म और तरुणी पुष्प भी सुन्दर नहीं हैं ....नदी भी नहीं ...जिसके सौन्दर्य को मैं घंटों बैठकर निहारता रहता हूँ .......?"
" हाँ ! बात तो यही है .....बाहर कुछ भी सुन्दर नहीं है. सौन्दर्य यदि बाहर होता तो लोग उसके लिए इतने परेशान न होते .......उठाते और ले आते अपने घर या संपन्न लोग मूल्य देकर ले आते ...और खुश हो लेते ........जिसे तुम सुन्दर मान कर उठा लाते हो कुछ समय बाद वह मुरझा जाता है ...तब वह भार लगने लगता है आपको .....आप उससे मुक्ति का प्रयास प्रारम्भ कर देते हैं ...फिर प्रयास करते हैं किसी दूसरी चीज़ के लिए ....कुछ समय बाद उससे भी मन भर जाता है ....फिर उससे भी मुक्ति का प्रयास ......यह श्रंखला बढ़ती ही रहती है....."
"तो क्या तुम कभी मुरझाते नहीं ? देवताओं की तरह चिर युवा ही बने रहते हो ? "
"हाँ ! मैं अक्षय हूँ ...सनातन हूँ ....कभी मुरझाता नहीं ......पर ....."
"पर क्या ?"
"पर यह .......कि जब तुम मुझे देखना बंद कर देते हो तो मैं हो कर भी ठहर नहीं पाता...मुझे जाना पड़ता है वहाँ से ...."
"तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं निरंतर तुम्हें ही देखता रहूँ ....ताकि तुम बने रहो और हमें सौन्दर्य बोध होता रहे .."
"हाँ "
"किन्तु यह कैसे संभव है ...मुझे और भी तो काम हैं ....तुम्हारी ही नाड़ी पकड़ कर कैसे बैठा रहूँ ?"
" तो फिर देखो ...कुरूपता और विद्रूपता को भी देखो ...उसकी भी नाड़ी पकड़ते रहो ...फिर यह न कहना कि सौन्दर्य चला गया ...तुम एक बार में केवल एक चीज़ ही देख सकते हो ....या तो मुझे देख लो या फिर मेरे अभाव को "
" हे सौन्दर्य बोध जी ! आपने तो सारा दारोमदार मेरे ही ऊपर डाल दिया....कि मैं देखूँ तभी तुम दिखायी पड़ो अन्यथा नहीं. "
"सत्य यही है .....और यह भी तुम्हारे चाहने पर ही निर्भर करता है कि तुम इसे स्वीकारते हो या नहीं"
" मनुष्य हूँ ....मन चंचल है ...कभी एक बिंदु पर ठहरता ही नहीं .....केवल तुम्हें ही कैसे देखता रहूँ ?
"तो ठीक है ...फिर मेरे लिए दुखी भी मत होना कभी"
" यह भी तो संभव नहीं मेरे लिए"
"प्रयास करोगे तो संभव होगा ...अन्यथा नहीं ..."