मेरठ से चर्मरोग विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग जी ने एक प्रश्न उठाया है क्या महान लोगों को उनके शिथिल आचरण के लिये सामाजिक स्वीकृति मिल जानी चाहिये ?
प्रायः देखा गया है कि कोई कलाकार/साहित्यकार/राजनीतिज्ञ जब वट वृक्ष बन जाता है तो वह महानता के बोध से ग्रस्त हो जाता है ....उसकी सोच अपने तक ही सीमित हो जाती है ...वह पूरी दुनिया को अपने तरीके से चलाने के स्वप्न ही नहीं देखने लगता बल्कि कई बार चलाने के प्रयास भी करने लगता है। जीवन तरंगमय है.... इस दर्शन के साथ जीवन की लहरों को मुग्धता से निहारने वाली पूजा के अनुसार कलाकार का लेखन आदर्श और कालजयी होना चाहिये ...समाज के लिये इतना ही पर्याप्त है ..उसके व्यक्तिगत जीवन में आदर्श का आग्रह न किया जाय क्योंकि कोई भी व्यक्ति पूर्ण और निर्दुष्ट नहीं हो सकता। उनका तर्क यह भी है कि कोई कलाकार जीवन की विसंगतियों, विषमताओं और अभावों में से मोती चुनने का प्रयास करता है ...इस प्रयास में वह कहीं विद्रोही होता है तो कहीं समाज के बन्धनों को तोडता है......उसका लीक से हटकर चलने का प्रयास ही उसके अन्दर के कलाकार को जीवित रखता है। जीवन को देखने और उसे जीने का एक ज़ुदा अन्दाज़ ही तो उसे कलाकार ( साहित्यकार या राजनीतिज्ञ) बनाता है. यदि उसकी कृति समाज के लिये किसी भी प्रकार से कल्याणप्रद है तो उसके व्यक्तिगत जीवन की लीक-तोड छवि को भी सामाजिक स्वीकृति मिलनी चाहिये....केवल उसी के लिये .......एक आरक्षण की तरह विशिष्ट सुविधा।
अनुराग जी इसका खंडन करते हुये कहते हैं कि क्या किसी व्यक्ति को उसके आचरण की शिथिलता के लिये इस कारण से छूट मिलना उचित है कि वह महान है ? उन्होंने गान्धी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के औचित्य पर भी प्रश्न उठाया है और इसे नैतिकता से जोडते हुये भारतीय समाज में गान्धी की महानता के कारण इस आचरण की स्वीकृति पर आपत्ति की है। महान कलाकारों की सुरा-सुन्दरी के प्रति आकर्षण की वृत्ति से समाज का किस प्रकार का कल्याण सम्भव है?
मुझे अनुराग जी की बात पूरी तरह उचित लगती है. कोई भी व्यक्ति कितना भी गुणी और महान क्यों न हो उसे समाज की निर्दुष्ट व स्वस्थ्य परम्पराओं के उल्लंघन का अधिकार या इस प्रकार की शिथिलता नहीं दी जा सकती। कालजयी साहित्य का रचनाकार यदि स्वयं स्वस्थ्य परम्पराओं के निर्वहन में शिथिल रहा है तो उसके प्रवचन का क्या मूल्य ? हम कैसे आशा करें कि उसके पाठक उस साहित्य को पढकर कोई नयी रचना ...कोई नयी क्रांति कर सकेंगे ? हमारे देश में तो वेद-पुराण-ब्राह्मण-स्मृति ....क्या नहीं है ? ...समाज में कितनी क्रांति हो पायी .....जीवन में कितनी पवित्रता आ पायी ? और यदि पथ-प्रदर्शक स्वयं ही पथ-विचलित हो तो उसके अनुयायियों से क्या आशा की जा सकेगी?
इससे भी बडी बात यह है कि आचरण की शिथिलता को सामाजिक आरक्षण मिल जाने से उन पैमानों का क्या होगा जिनकी हम दुहायी देते हैं? इस प्रकार का आरक्षण भटकाव को और भी गति देगा, तब आदर्शों का दीप स्तम्भ और होगा किसके लिये ? वह प्रकाश देगा किसे ? क्या सारे आदर्श केवल निरीह आम आदमी के लिये ही होंगे ? समाज की दृष्टि बडी तीक्ष्ण होती है, गुणों से अधिक वह दूसरों के दुर्गुणों पर ध्यान देता है। अयोध्या के धोबी आज भी पूरे समाज में हैं ...और बडे ही सशक्त तरीके से हैं जो किसी भी महान व्यक्ति पर सन्देह करने से नहीं चूकते।
आज ३ मार्च, २०१२ को खुशवंत जी का एक लेख और एक अन्य समाचार पढ़ने के बाद कुछ टीप और जोड़ने का मन हुआ, अस्तु ...
आज के दैनिक भास्कर में खुशवंत जी ने एक लेख लिखा है- "एक राजनेता की कविताई" | ये राजनेता हैं कपिल सिब्बल। खुशवंत जी ने सिब्बल की चार कविताओं के नमूने भी पेश किये हैं। आज भारत के आम जन मानस में सिब्बल की छवि अच्छी नहीं है। कविताएं अच्छी हैं पर उन्हें पढ़ने के लिये मुझे अपने मन को बहुत मनाना पडा। लोग कथनी और करनी देखना चाहते हैं...तराजू पर उनको तौलना चाहते हैं। वे नेता हैं पर जननायक नहीं बन सके....और किसी नेता की कविता को कौन पढ़ता है?
दूसरी खबर है इसी के साप्ताहिक नवरंग में अनिल राही की लिखी कवर स्टोरी "छोटे नवाब बड़े खराब"| आप समझ गए होंगे यह कहानी सैफ अलीखान की मारपीट के किस्सों और अमृता के प्रति वेबफाई से भरी है| बताया गया है कि सैफअली फ़िल्मी दुनिया के लोगों में भी अपने विवादास्पद आचरण के कारण अच्छी छवि नहीं बना सके| परदे पर ऐसे लोगों के आदर्श चरित्र जनमानस में अधिक समय तक नहीं ठहर पाते|
रेणु जी और शरत के मामले में यह बात नहीं है, उन्होंने देश और समाज के बारे में सतत चिंतन ही नहीं किया बल्कि अपने स्तर से देश और समाज के लिए जितना कर सकते थे उतना करने का प्रयास किया| कौन नहीं जानता कि आपातकाल में पुलिस की बर्बर पिटाई के बाद रेणु जी फिर कभी उठ नहीं सके| तत्कालीन शासन ने रेणु जी की ह्त्या की थी इससे कौन इन्कार करेगा?
आज ३ मार्च, २०१२ को खुशवंत जी का एक लेख और एक अन्य समाचार पढ़ने के बाद कुछ टीप और जोड़ने का मन हुआ, अस्तु ...
आज के दैनिक भास्कर में खुशवंत जी ने एक लेख लिखा है- "एक राजनेता की कविताई" | ये राजनेता हैं कपिल सिब्बल। खुशवंत जी ने सिब्बल की चार कविताओं के नमूने भी पेश किये हैं। आज भारत के आम जन मानस में सिब्बल की छवि अच्छी नहीं है। कविताएं अच्छी हैं पर उन्हें पढ़ने के लिये मुझे अपने मन को बहुत मनाना पडा। लोग कथनी और करनी देखना चाहते हैं...तराजू पर उनको तौलना चाहते हैं। वे नेता हैं पर जननायक नहीं बन सके....और किसी नेता की कविता को कौन पढ़ता है?
दूसरी खबर है इसी के साप्ताहिक नवरंग में अनिल राही की लिखी कवर स्टोरी "छोटे नवाब बड़े खराब"| आप समझ गए होंगे यह कहानी सैफ अलीखान की मारपीट के किस्सों और अमृता के प्रति वेबफाई से भरी है| बताया गया है कि सैफअली फ़िल्मी दुनिया के लोगों में भी अपने विवादास्पद आचरण के कारण अच्छी छवि नहीं बना सके| परदे पर ऐसे लोगों के आदर्श चरित्र जनमानस में अधिक समय तक नहीं ठहर पाते|
रेणु जी और शरत के मामले में यह बात नहीं है, उन्होंने देश और समाज के बारे में सतत चिंतन ही नहीं किया बल्कि अपने स्तर से देश और समाज के लिए जितना कर सकते थे उतना करने का प्रयास किया| कौन नहीं जानता कि आपातकाल में पुलिस की बर्बर पिटाई के बाद रेणु जी फिर कभी उठ नहीं सके| तत्कालीन शासन ने रेणु जी की ह्त्या की थी इससे कौन इन्कार करेगा?
यह एक मुद्दा नहीं बल्कि कई जटिल मुद्दों का उलझट्टा है। पहली बात तो यह कि हम अक्सर इंसानों में देवता गढने लगते हैं। अगर गान्धी की एक बात सही है तो सब सही? नहीं, हर इंसान मेंकमी हो सकती है। दूसरा यह कि कितनी ही बार कानूनी परिभाषा और नैतिकता के अपने अपने नज़रिये में अंतर हो सकता है। गान्धी जी के प्रयोग में शामिल लोग यदि वयस्क थे और वे स्वेच्छा से इसमें शामिल थे तो यह निश्चित रूप से कानूनन ग़लत नहीं था, नैतिकता का नज़रिया इस पर निर्भर करेगा कि हम भगवान दिनकर में निर्वाण ढूंढते हैं या भगवान रजनीचर में। तीसरी बात यह कि कम से कम अमेरिका में लगभग रोज़ाना ही किसी न किसी सेलिब्रिटी को शराब पीकर वाहन चलाना, नशीले पदार्थ रखना आदि के आरोप में सज़ा मिलने की खबर होती है। इससे उनके काम की प्रशंसा में कोई कमी नहीं आती मगर सज़ा में कोई रियायत भी नहीं होती। चौथी बात यह भी है कि हममें कई लोग अलग अलग देवताओं की पूजा अलग-अलग तरीके से करते रहे हैं। गान्धी, जिन्ना, गोडसे के लिये नियम भी अलग-अलग हो जाते हैं। उदाहरणार्थ विदेश में जन्म/आव्रजन का नियम - सोनिया का अलग, आडवाणी का अलग। निष्पक्षता के बिना क्या कोई सत्य का दर्शन कर सकता है? बात तो पांचवी और छठी भी है मगर ये आलस ...
जवाब देंहटाएंअनुराग जी ! यह सच है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण और निर्दुष्ट नहीं होता किन्तु अँधेरे पथ पर चलने के लिए एक दीप तो जलाना ही होगा न! हम अपने नायक को पूर्ण और निर्दुष्ट देखने के अभ्यस्त हैं ...हमारे नायक इसी मानसिकता के प्रतीक हैं। जब लेखन ( दीप जलाने ) की बात आती है तो हमें इस आदर्श का पालन करना पड़ता है. इसी मानसिकता के कारण हमने देवी-देवताओं की कल्पनाएँ की हैं। ये कल्पनाएँ हमारे ऊर्ध्व चिंतन और सकारात्मक अभिलाषाओं की प्रतीक हैं। मैं इस बात पर बल दे रहा हूँ कि यदि कोई आदर्श नहीं होगा तो समाज में भटकाव एवं अराजकता को और भी प्रोत्साहन मिलेगा। आदर्श के मामले में किसी को भी छूट नहीं दी जा सकती. यद्यपि ऐसा भी नहीं कि उसकी कला को नकार दिया जाय। यह केवल आचरण की शिथिलता की सामाजिक स्वीकृति की बात है ...समाज कभी भी ऐसी शिथिलताओं को मान्यता नहीं दे सकता। पश्चिमी देशों की तरह अपने यहाँ भी सेलिब्रिटीज की असामाजिक हरकतों पर दंड का प्रावधान है। किंतु जनता जब अपने प्रिय चरित्र को ऐसी हरकतों में लिप्त पाती है तो या तो उसे स्वीकार नहीं करती या फिर उसकी नायक की छवि को धक्का लगता है। और फ़िर इस प्रकार की शिथिलता को यदि सामाजिक छूट मिल गयी तो हर विशिष्ट वर्ग इसके लिये अधिकृत हो जायेगा। तब उनके चरित्र को दिशा कौन देगा जो सामाजिक रूप से इतने गणमान्य नहीं हैं ?
हटाएंI MY SELF PUT MY THUMB TO SMART INDIAN ON HIS WHOLE COMMENT.
जवाब देंहटाएंDIFFERENT BRAIN KEEP DIFFERENT THOUGHT LIKE DIFFERENT WELL
KEEP DIFFERENT TASTE OF WATER.
THE TRUE COMES TO THE RIGHT PERSON .
आज प्रेम सरोवर जी के ब्लॉग पर भगवती चरण वर्मा के प्रसिद्ध उपन्यास "चित्रलेखा" की ये पंक्तियाँ पढीं तो लगा आज के इस प्रसंग में इस पर भी चर्चा हो जाय। प्रस्तुत हैं उपन्यास के माध्यम से वर्मा जी के विचार-
जवाब देंहटाएंसंसार में पाप कुछ भी नही है, वह मनुष्य की दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है । प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मन: प्रवृति लेकर पैदा होता है – प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है । अपने मन: प्रवृति से प्रेरित होकर अपने पाठ को वह दुहराता है –यही उसका जीवन है । जो कुछ मनुष्य करता है वह उसके स्वभाव के अनुकूल होता है और स्वभाव प्राकृतिक है। मनुष्य अपना स्वामी नही है वह परिस्थतियों का दास है – विवश है । वह कर्ता नही है, वह केवल साधन है । फिर पुण्य और पाप कैसा ! मनुष्य में ममत्व प्रधान है । प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है । केवल व्यक्तियों के सुख के केंद्र भिन्न होते हैं । कुछ सुख को धन में देखते हैं, कुछ सुख को मदिरा में देखते हैं, कुछ सुख को व्यभिचार में देखते हैं, कुछ त्याग में देखते हैं – पर सुख प्रत्येक व्यक्ति चाहता है; कोई भी व्यक्ति, संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम नही करेगा, जिसमें दुख मिले - यही मनुष्य की मन: प्रवृति है और उसके दृष्टिकोण की विषमता है । "संसार में इसीलिए पाप की परिभाषा नही हो सकी –और न हो सकती है । हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है ।"
@"संसार में इसीलिए पाप की परिभाषा नही हो सकी –और न हो सकती है । हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है ।"
हटाएं-भगवती चरण वर्मा के यह विचार भी विषम और त्रृटि पूर्ण है। यदि उचित अनुचित हमें बस करना ही पडे तो क्या है फिर कर्म और पुरूषार्थ। पाप-पुण्य के रूप में सदाचार और कदाचार ही नहीं तो किस उद्देश्य से हम नैतिकता की ओर उत्थानरत रहते है। वह विचार क्या है जिसके प्रभाव में हम अच्छाई पर अनुशासित रहते है।
@प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष प्रकार की मन: प्रवृति लेकर पैदा होता है
-क्यों विशेष प्रकार की मनःस्थिति लेकर पैदा होता है? प्रकृति के भी कुछ नियम है, इसके पिछे कारण क्या है? क्यों व्यक्ति अच्छा या बुरा या मिश्र स्वभाव लेकर पैदा होता है? इसी को साक्ष्य बनाकर पाप-पुण्य के प्रतिफल को स्वीकार करना ही होगा।
@प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के रंगमंच पर एक अभिनय करने आता है।
किस प्रेरणा से सक्रिय होता है अभिनय के लिए?, कौन इस नाट्य का निर्माता है? कौन इस नाट्य का निर्देशक है? पाप-पुण्य से उपार्जित वे अच्छे-बुरे कर्म ही है जो उसके अनुरूप नाट्य मंचन करवाते है।
उचित अनुचित का बोध करवाने वाले कर्म: पाप-पुण्य का होना अपहार्य है।
अन्तिम पंक्ति :उचित अनुचित का बोध करवाने वाले कर्म: पाप-पुण्य का होना अपहार्य है।
हटाएंको…
उचित अनुचित का बोध करवाने वाले कर्म: पाप-पुण्य का होना अपरिहार्य है। …पढ़ें
महान लोगों की आचरण की शिथिलता निश्चित ही नकारात्मक प्रभाव ही पैदा करती है। यह निर्विवाद सत्य है कि कथनी से कईं गुना अधिक करनी का प्रभाव जनमानस पर होता है। इसे एक छोटे से समूह में भी देखें तो पुत्र पिता के उपदेशो पर चलने से कई अधिक उनके व्यवहार से प्रेरणा लेकर चलता है।
जवाब देंहटाएंयह भी एक तथ्य है कि उचित अनुचित के भिन्न मानदंड़ हो सकते है, पर वस्तुतः महापुरूषों के आचरण पर सोचने की जगह दृष्टिकोण इस बात पर केन्द्रित होना चाहिए कि वह आचरण प्रभाव क्या छोड़ रहा है।
आपकी सभी बातों से सहमत!! मेरा तो व्यक्तिगत मत है कि मैं अपने गुरू (प्रेरणा-दाता) का खण्ड़ित व्यक्तित्व स्वीकार नहीं करूंगा।
महान लोगों के आचरण को लेकर मेरे स्वर्गीय पिताजी से एक बात पर बरबस बहस हो जाया करती थी.. पिता जी फणीश्वर नाथ रेणु के जितने बड़े प्रशंसक थे उनसे उतना ही नफरत करते थे.. कारण सिर्फ इतना कि रेणु जी ने अपनी पत्नी को गाँव में छोडकर पटना में दूसरी औरत "रख ली" थी.. उनका कहना था कि जो स्त्री के चरित्र को इतना ऊंचा स्थान प्रदान करता हो, वह ब्याहता स्त्री को उपेक्षिता कैसे बना सकता है.. मैं यह तर्क दिया करता था कि हमारे यहाँ तो नीच से भी उत्तम विद्या ग्रहण करने की बात कही गयी है.. हम यह अपेक्षा करते हैं हमारे रोल मॉडल खुद चीनी खाना बंद करने के बाद ही चीनी न खाने की शिक्षा दें.. असंभव सा प्रतीत होता है आज के युग में.. नेताओं का घोटालों में संलिप्त होना, फिल्मी नायकों का उनकी छवि के विरुद्ध आचरण, समाजसेवकों का कदाचार... किसे महान कहें!!
जवाब देंहटाएंसलिल भैया ! मेरा निवेदन मात्र इतना ही है कि आचरण के मामले में किसी विशिष्टता के कारण शिथिलता को छूट का आरक्षण नहीं मिल जाना चाहिये। हम सभी न्यूनाधिक मात्रा में मानवीय दुर्बलताओं से ग्रस्त हैं....इन दुर्बलताओं के साथ ही हमारी यात्रा चल रही है। दाग के कारण हम चाँद की उपेक्षा नहीं कर रहे .....उसकी चाँदनी तो स्वीकार्य है। उदित नारायण प्रकरण में भी समाज ने उन्हें कभी क्षमा नहीं किया...भले ही लोग उनके आज भी उतने ही दीवाने हैं। बात यहाँ अपेक्षाओं की भी है। तथापि,सार-सार को गहि रहय थोथा देय उडाय के हम भी समर्थक हैं।
हटाएंसुज्ञ जी ! आपने अपनी बात बहुत ही स्पष्ट तरीके से रखी है। आज खंडित व्यक्तित्व वाले गुरु ही अधिक हैं इसीलिये नैतिक-चारित्रिक पतन से समाज को जूझना पड रहा है। गुरु सही दिशा देने में समर्थ नहीं हैं .....खंडित व्यक्तित्व सही दिशा क्या दे सकेगा!
जवाब देंहटाएंहम अपने नायक/आदर्श व्यक्ति का अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। समाज की यही रीति है ...सभी देशों में। भगवती चरण वर्मा मेरे प्रिय लेखकों में से एक रहे हैं। चित्रलेखा में उनके बौद्धिक पात्र अपनी शिथिलताओं को तार्किक संतुष्टि देने का प्रयास करते हैं। बुद्धिजीवियों का यह सबसे बडा दुर्गुण है कि वे अपने नकारात्मक पक्ष को भी तर्क के माध्यम से सकारात्मक सिद्ध करने के प्रयास में कोई कमी नहीं छोडते। वर्मा जी के पात्रों ने भी यही किया है। किंतु ऐसे तर्कों/ आचरणों से निश्चित ही अन्य लोगों को एक मानसिक सम्बल प्राप्त होता है। इससे समाज का अहित ही अधिक होता है।
मुझे इस संदर्भ में दो बातें याद आ रही हैं - पहली(जिसका जिक्र सलिल जी कर चुके हैं) उस साधु की कहानी, जिसने मीठा कम खाने की सीख देने का संदेश\उपदेश कई दिन के बाद दिया था क्योंकि उपदेश देने से पहले वो खुद मीठा खाना कम करना चाहते थे।
जवाब देंहटाएंदूसरी बात - पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी का देशवासियों से सप्ताह में एक वक्त उपवास करने का आह्वान। आज के किसी राजनेता से यह आह्वान सुनने के बाद कितने देशवासी उसका पालन करेंगे?
खुद का आचरण स्तरीय होगा तो अनुसरण करने वाले तदानुसार आचरण करने को प्रेरित होंगे। माना कि कोई भी संपूर्ण नहीं है लेकिन जो खुद की कमजोरियों पर नियंत्रण रख सके और समाज को सही दिशा दे सके, वही महान है।
आदर्श चरित्र को आचरण में शिथिलता का आरक्षण देने से बेहतर विकल्प तो नया आदर्श चुन लेना है।
"Action speaks more than words"....
जवाब देंहटाएंit's not easy to accept a person, whatever/however great he may be in any field of Art..if he do not follow what he say/write......