काये कों चुप गोरी इतैं आओ री, मन मोरे बसीं, ना कितैं जाओ
री।
बात सुनी कछु अँखियन मोरी, खोयी-खोयी
लागय तू मोहें और भोरी॥
कैसे आये अमवा में बौर सखी, बन्दी तेरी
देहिंया में फागुन री !
गैल-गैल फैल गयी अब बात री, छोड़ दै फगुना
तू, मोरी मान री !
पोर-पोर तोरे फागुन झूमय, झूम रहे लख-लख होरियारे।
रंग डारबें को आयीं, रंग डरबाबें
आयीं।
रंग डारियो ना मों पै, झूठ-मूठ बोलन आयीं॥
मुड़-मुड़ नैन सों सैन चलावे, मौन अधर सों
राग सुनावे।
नैनन सों जब दयी पिचकारी, बीच सखियन कें
लाजन मरी॥
रंग डारियो ना मों पै, सैन सों
बुलावे गोरी।
तन-मन सें तू कुबेर गोरी, फागुन संग काये कों रार तोरी॥
गोरी-कारी-साँवरी, सब होरी में
है गयीं बाबरी।
नेक ठहर, मत एक झलक दै मोरी गली सें जाओ री ॥
बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंsame holi - same background pictures are here also
जवाब देंहटाएंhttp://girijeshrao.blogspot.in/2011/03/blog-post_8644.html
अभी और खेलौ होरी..
जवाब देंहटाएंकविता से माहौल बनना शुरू हो गया फागुन का यहा भी ...नहीं तो आज केएल महानगरो मे होली का मतलब सिर्फ एक अवकाश का दिन भर बस है॥
क्या बात है डॉक्टर साहब!!
जवाब देंहटाएंसुंदर तस्वीरें।
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