इन भोले चेहरों को देख कर क्या आप कह सकते हैं कि ये बड़ी निर्ममतापूर्वक नक्सली घटनाओं को अंजाम
देते होंगे ?
किन्तु सत्य यही है ....
अर्थात बड़े से बड़े विशेषज्ञ भी चेहरों की भाषा पढ़ने में त्रुटि कर सकते हैं .....
कहते हैं कि कलियुग में सारी परिभाषाएं अपने अर्थ खो देती हैं .........
हम तो पहले भी मानते थे आज तो आपने सबूत ही दे दिया!! सच को सबूत नहीं!!
जवाब देंहटाएंक्या ऐसा संभव है कि (किसी भी युग में) हत्यारे, चोर, डाकू को चेहरे से पहचाना जा सके और संतों से हिंसा, अपराध न हुआ हो. प्रत्येक चेहरों-व्यक्ति में सभी संभावनाएं होती हैं साधु की तो शैतान की भी.
जवाब देंहटाएंहर व्यक्ति में हिंसा और प्रेम दोनों ही बीज रूप में हैं. जब जिस बीज को अंकुरण के लिए उपयुक्त वातावरण मिल जाय. सामान्यतः आवेश में हुए अपराधोंके प्रति लोगों में पश्चाताप की भावना देखी जाती है ...यही एक गुण उन्हें अन्य अपराधियों से पृथक करता है.
हटाएंकिन्तु अपराधों के वर्गीकरण में एक वर्ग वह भी है जो आशय पूर्वक अपराध करता है ...ऐसे लोगों से सुधरने की कोई आशा नहीं. नक्सली यही वर्ग है.
@ निर्ममता ,
जवाब देंहटाएंअभी जिस चंद्राकर को लेकर रायपुर पुलिस घूम रही है उसने ७-८ ,या शायद उससे भी ज्यादा सम्बन्धियों को जीवित दफ्न कर दिया है !
कुछ अरसा पहले बैंगलोर में एक मिश्रा जी (स्वामी) ने अपनी भक्त /पत्नी को संपत्ति के लिए उसी मकान में जीवित दफ्न कर दिया था !
कुछ अरसा पहले एक प्रोफ़ेसर साहब और उनके क्लर्क ने अपने प्रिंसिपल को टुकड़ों में तब्दील करके धोया और पोलिथिन बैग्स में भरकर खेतों में दबाया और ऊपर से ट्रेक्टर भी चला दिया ! इन सज्जन पर किसी एक केस में कांकेर में ही एक मुकद्दमा भी चला था !
और भी घटनाएं मैं दर्ज करता जाऊं पर खत्म ना होंगी ! परन्तु ये सब सामान्य नागरिक थे / हैं और मासूम चेहरे वाले भी , तो इससे मैं निर्ममता को लेकर क्या अर्थ निकालूं :)
सामान्य व्यक्ति जब अपराध करता है तो पुनरावृत्ति से बचता है जबकि अपराधी पुनरावृत्ति करता है. व्यक्तित्व विकास के प्रशिक्षण में बारम्बार यह बात कही जाती है कि हम जैसा सोचते हैं .....वैसे ही भाव हमारे चेहरे पर चित्रित होते हैं. मैं एक ही बात समझ पाया हूँ कि कलियुग में सभी परिभाषाओं ने अपने अर्थ खो दिए हैं. इस खोने की प्रक्रिया में विज्ञान भी अपवाद नहीं रहा.
हटाएं@ निर्ममता ,
जवाब देंहटाएंअभी जिस चंद्राकर को लेकर रायपुर पुलिस घूम रही है उसने ७-८ ,या शायद उससे भी ज्यादा सम्बन्धियों को जीवित दफ्न कर दिया है !
कुछ अरसा पहले बैंगलोर में एक मिश्रा जी (स्वामी) ने अपनी भक्त /पत्नी को संपत्ति के लिए उसी मकान में जीवित दफ्न कर दिया था !
कुछ अरसा पहले एक प्रोफ़ेसर साहब और उनके क्लर्क ने अपने प्रिंसिपल को टुकड़ों में तब्दील करके धोया और पोलिथिन बैग्स में भरकर खेतों में दबाया और ऊपर से ट्रेक्टर भी चला दिया ! इन सज्जन पर किसी एक केस में कांकेर में ही एक मुकद्दमा भी चला था !
और भी घटनाएं मैं दर्ज करता जाऊं पर खत्म ना होंगी ! परन्तु ये सब सामान्य नागरिक थे / हैं और मासूम चेहरे वाले भी , तो इससे मैं निर्ममता को लेकर क्या अर्थ निकालूं :)
डॉक्टर साहब!
जवाब देंहटाएंदुबारा उपस्थित होना पड़ा.. शायद टिप्पणी छोटी होने के कारण जो कहना चाहता था वह स्पष्ट नहीं हो पाया.. चेहरा मन का दर्पण होता है, यह कहावत है. कालांतर में मुखौटे चेहरे बनते गए और मुखौटों को चेहरे की तरह प्रस्तुत करने की कला में ऐसी दक्षता हासिल हो गयी कि पहचानना कठिन हो गया...
यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दुनिया के कई हत्यारे अदालत में हाज़िर होने पर यह कहते हुए पाए गए हैं कि मैंने यह कुकृत्य नहीं किया, हो गया होगा मुझसे! मेरे उच्चाधिकारी से झगड़ा हुआ किसी बात पर, कार्यालयीन मतभेद था, जी में आया कि उसकी ह्त्या कर दूं.. ऐसा कोइ भी व्यक्ति शायद ही हुआ होगा जिसके अंदर यह विचार न उपजे हों.. उस एक पल में, उस निमिष मात्र में उसका चेहरा हत्यारे का हो सकता है.. शायद यही वह पल हो जिसमें उसका चेहरा दिल का आईना रहा हो.. बाद में वो चेहरा निश्छल हो गया.
हमारे यहाँ तो डाकू रत्नाकर के और अंगुलीमाल के भी उदाहरण मौजूद हैं! हाँ, ये बात और है कि यदि अब हम तस्वीर ढूंढें तो हमें महर्षि वाल्मीकि या उस बौद्ध भिक्षु की तस्वीर मिलेगी, जिनके चेहरे पर असीम आनद और शान्ति का भाव दिखाई देता होगा!!
एक इंसान के समक्ष उसका मालिक और उसका नौकर साथ साथ खड़े हों तो उस एक पल में भी उसके एक चेहरे पर दो-दो भाव दिखाई देंगे.. आधा चेहरा जो मालिक की ओर है उसपर दीनता का भाव होगा और जो नौकर की ओर है उसपर अहंकार का भाव!!
चेहरा सच कहता है, लेकिन हर पल उसका सच बदलता रहता है!!
हम दो बातें सुनते आए हैं १) मनुष्य मूलतः शान्ति और प्रेम का आकांक्षी होता है , २) मनुष्य के अन्दर एक हिंसा सदा छिपी रहती है.
जवाब देंहटाएंचेहरे के भोलेपन की बात इसलिए उठी की १) सामान्यतः चेहरे मनोभावों को अभिव्यक्त करते हैं, २) पुलिस मुठभेड़ में जब नक्सली मारे जाते हैं तो मानवाधिकार वाले चीखने लगते हैं कि पुलिस ने भोले भाले ग्रामीणों की ह्त्या करदी. वे जनता को यह बताना चाहते हैं कि नक्सली नाम का जीव सामान्य मनुष्यों से कुछ अलग होता है....कुछ खूंखार सा....
यहाँ के आदिवासी नक्सलियों के मामले में उनके मनोविज्ञान को अभी समझने की आवश्यकता है. वे हिंसक से नहीं दिखते, पर हिंसा की क्रूरता से उन्हें कोई परहेज़ भी नहीं. उनकी हिंसा दिल दहला देने वाली होती है.
यन्त्र को ऊर्जा मिलनी बंद हो गयी थी इसलिए ज़ल्दी से टिप्पणी पोस्ट करनी पडी. पुनश्च -
जवाब देंहटाएंएक बात यह भी ध्यातव्य है कि घर वापसी का कारण ह्रदय परिवर्तन न होकर पैसों के बटवारे का विवाद था. आन्ध्र वाले नक्सली बस्तर के नक्सलियों का स्तेमाल करते हैं और पैसे खुद ले जाते हैं. दैहिक शोषण की बातें भी यदा कदा आती रहती हैं. प्रायः इन्हीं बातों को लेकर इनका आत्म समर्पण होता रहा है. अभी तक मैंने जो पाया है वह यह कि बस्तर के आदिवासी को माओवाद, लेनिनवाद या मार्क्सवाद से कुछ भी लेना देना नहीं है. वह यह सब नहीं जानता. उसे तो बस जो बरगला ले उसी का काम वे करने लगते हैं. किन्तु मज़े की बात यह है कि वे हर किसी के बरगलाने में नहीं आते .....कुछ ख़ास लोगों के बरगलाने में ही आते हैं.
क्रूरता और भोलेपन के बीच का रिश्ता तलाशना अभी बाकी है.
naksalwaad ko waampanthiyon se jodna ab jayaj nahin hai. naksalwaad ki shuruaat jin wajahon se hui wo wajah badal chuki hai, ab adhikaar ke liye sangharsh nahin balki badle ki hinsa hai. nakasal ke naam par apraadhi apraadh karte hain. sab paisa aur varchaswa ka khel hai aur prabhaawit hote hain bekasoor aadiwaasi. jitne bhi log mukhyadhaara me laut aayen khushi ki baat hai.
जवाब देंहटाएंसच में कलियुगी सच है।
जवाब देंहटाएं@ हम जैसा सोचते हैं .....वैसे ही भाव हमारे चेहरे पर चित्रित होते हैं....
जवाब देंहटाएंबात तो यही सही है ....
बस अब पढने के लिए कंप्यूटर की आँखें चाहिए .....:))
सख्ती जरूरी है। कठोर सजा हो तो लगाम लगे।
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