श्रीमती जी को वह गज़ल बहुत पसंद है ...खुशबू जैसे लोग मिले ......
ग़ज़ल सुनते-सुनते मुझे छेड़ बैठना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है, पूछेंगी- "क्यों, आपको मिला कभी कोई खुशबू जैसा ......."
प्रायः मैं उन्हें देख कर मुस्कराता भर रहता हूँ और वे छेड़ती रहती हैं. पर आज ऐसा नहीं हुआ, मैंने कहा - "तुम्हें पता है, मुझे खुशबू बसी जड़ें मिली हैं....."
उन्होंने मुझे पलट कर देखा, "खुशबू बसी जड़ें ? ...अच्छा-अच्छा....हाँ क्यों नहीं ....मेरी सौत जो न करे ...." (बहुत पहले खूब नाक-भौं सिकोड़ने ...झगड़ा करने ...रूठने-मनाने आदि समस्त क्रियायों के बाद अंततः उन्होंने लैप टॉप को अपनी सौत स्वीकार कर लिया था. )
मैंने स्वीकार किया, "हाँ ! माध्यम तो यही है पर मुझे जड़ें मिल गयी हैं .....खुशबू से सराबोर पुख्ता जड़ें ....खुशबू जैसे लोग तो मिल कर कब हवा के झोंके के साथ छू हो जाएँ कोई ठिकाना नहीं ...पर जड़ें कहाँ जायेंगी ?"
उन्होंने मुस्कराकर पूछा - "कौन है ?"
मैंने कहा, "एक दो हो तो बताऊँ....."
उनकी भृकुटि कुछ चढ़ी, " अच्छा...तो आठ दस गिना डालिए ..."
इसी बीच मुझे सारिवा दिखी,
इसी बीच मुझे सारिवा दिखी,
....दिखाते हुए कहा- "इसे देखो .... ऊपर से कितनी पतली दिखती है ..खरपतवार जैसी.... पर खोद कर देखो तो गहरे में मोटी सी जड़ मिलेगी ....वह भी खुशबू से भरपूर ....तभी तो इतनी गुणवान है यह. ऐसे ही हैं हमारे सलिल भैया, मनोज भैया, देसिल बयना वाले करण, अजय, जेन्नी और अब पूजा .........."
उन्होंने पूछा, "ये अंतिम वाला नाम नया सा लगा रहा है ?"
मैंने कहा - " हाँ ! सारिवा की एक और जड़ ....मैंने खोद कर निकाला है इन सबको .....जिस तरह सारिवा रक्तशोधक है उसी तरह ये लोग भी अपनी माटी के सोंधेपन में रचे-बसे अपनी सतह से दूर धरती में गहरे धंसे हुए ठेठ गाँव की कोरी खुशबू को अपनी संस्कारित जड़ों में बसाये आवारा होती जा रही परम्पराओं के शोधक हैं. सारिवा की नाज़ुक बेल की तरह इनके देसी मन परदेसी धरती में भी अपनी सम्पूर्ण नाजुकता के साथ पनप रहे हैं .....कृत्रिम श्रृंगार से दूर...जो है जैसा है उसी को पहने-ओढ़े परम आनद में डूबे ...चारो ओर खुशबू बिखेरते अपनी ही रौ में बहे चले जा रहे हैं. इन्हें अपनी फटी बनियान भी दूसरों को दिखाने में लेश भी संकोच नहीं होता ...क्यों हो ? इसी असलियत के लिए तो तरसते हैं लोग .....ऐसी निश्छलता ....ऐसा साहस .....ऐसा प्रेम और स्वीकारने की ऐसी अपूर्व क्षमता और कहाँ मिलेगी भला ! ये लोग सांचे में बंधे साहित्यकार नहीं हैं जो शीर्ष पर चढ़कर इतराते हैं बल्कि साहित्य के प्राण हैं जो साहित्य को अपने खांटीपन से सींचते हैं और किसी दिन "मैला आँचल" की खुशबू बन कर पूरे समाज पर छा जाते हैं. नेपाल की सीमा से लेकर दिल्ली और सुदूर दक्षिण के कर्नाटक तक फ़ैली सारिवा की इन जड़ों ने बिहार की आत्मा को जीवित रखा हुआ है . लीक से हटकर चलने के लिए ....वर्त्तमान की वर्जनाओं को तोड़ने के लिए जिस क्रांतिकारी ऊर्जा की आवश्यकता होती है उससे भरपूर हैं ये लोग. इसका उदाहरण पूजा उपाध्याय से अच्छा और कौन हो सकता है ? साहित्य के इन देसी प्राणों को मेरा शत-शत नमन !!!
डॉक्टर साहब!
जवाब देंहटाएंसारिवा की जड़ की तरह बस मिट्टी से जुड़ा रहूँ, आप जैसी गुणीजन के सानिध्य से कुछ सीखता रहूँ और जो कुछ इस मिट्टी से पाया है उसकी सुवास परिवेश में बिखेरने की चेष्टा कर उस परमपिता का धन्यवाद व्यक्त कर सकूँ कि तूने इस कार्य के लिए मेरा चयन किया.. बस और क्या चाहिए इस असार जीवन में!!
आभार कि आपने मुझे इस योग्य समझा!!
कुछ और खुशबूदार जड़ें खोद कर ढूंढ निकालिए .. बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंएक शे’र से अपनी बात शुरु करूंगा
जवाब देंहटाएंपहले ज़मीन बांटी थी, फिर घर भी बट गया,
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया।
आज के इस दौर में यही वे जड़ें हैं (जिसकी आपने इस पोस्ट में चर्चा की है) जो हमें ज़िंदा रखे हैं, बचाए रखे हैं। नहीं तो कब का हम सिमट सिकुड़ गए होते। रासायनिक खाद और प्रदुषित जल-हवा बचा न पाते।
एक भावुक कर देने वाली पोस्ट, आत्मीयता और संवेदना से भरी...
बड़े भाई ... आभार!
याद आई परदेस में उसकी इक इक बात,
घर का दिन ही दिन मियां, घर की रात ही रात।
आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में जड़ों से उखड़ना नियति हो सकती है लेकिन जड़ों की खुशबू को महसूस करते रहना ही जिवित होने का प्रमाण है। इस खुशबू को हमने भी महसूस किया है।
जवाब देंहटाएंचित्र अच्छे लगे। बिहार की मिट्टी की गन्ध भी महसूस हुई। पहले चिरौंजी, अब अनंतमूल - उपयोगी वनस्पतियों की सचित्र जानकारी की डोज़ इसी प्रकार पोस्ट्स के बीच में देते रहिये तो हमारी जानकारी भी बढती रहेगी, धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंडाक्टर साहेब,
जवाब देंहटाएंअभिवादन और आभार कि आपने मुझे भी अपने पोस्ट में उद्धृत करने योग्य समझा...! अस्वस्थ्य होने के कारण पढ़ने में थोड़ी देर हुई।