मन में एक प्रश्न उठा है - ज्ञान के पथ पर शर्तों की बैसाखियों के सहारे कितनी दूर तक यात्रा सम्भव है?
थोड़ा विचार करते ही स्पष्ट हो गया कि शर्तों में जो स्वीकार्यता है भी तो वह निषेध की प्राणवायु से जीवन पाती है। इस स्वीकार्यता में सहजता नहीं होती ...बाध्यता होती है।
निषेध जीवन को नकारात्मकता की ओर ले जाते हैं। जहाँ निषेध है वहाँ स्वीकार्यता को अपने लिये आधारभूमि खोज पाना बड़ा दुष्कर होता है।
ज्ञानी कुछ भी कहें पर समाज का व्यवहारवाद कुछ और ही कहता है।
.....कहता है कि प्रकाश और अन्धकार परस्पर विरोधी स्वभाव के हैं। किंतु इनका यह विरोधी स्वभाव ही मनुष्य की आवश्यकता है। सोचो ज़रा, केवल प्रकाश ही प्रकाश हो तो क्या जीवन व्यापार चल सकेगा हमारा!
हमें प्रकाश तो चाहिये ही किंतु अन्धकार भी हमारी आवश्यकताओं में से एक है।
एक सांसारिक को ये दोनो ही चाहिये.....पर ज्ञानी का विरोध है इससे। वह प्रकाश ही चाहता है केवल, अन्धकार बिल्कुल नहीं। उसके मन में ...उसके विचारों में .....उसके आचरण में एक निषेध उत्पन्न हो गया है अन्धकार के प्रति।
बड़ी विकट स्थिति है यह तो......
ज्योति और तमस का विरोधाभास है यहाँ।
तमस कहता है कि मुझे ज्योति नहीं चाहिये उसे दूर रखो मुझसे।
ज्योति कहती है कि हर जगह तो तुम्हीं व्याप्त हो, मुझे भी जीने का हक दो।
तमस ने कहा तब तुम्हारे अस्तित्व के आगे मैं रह नहीं सकूँगा।
ज्योति ने पूछा- तब मैं कहाँ जाऊँ? मेरा ठिकाना जहाँ हो वहाँ बतादो।
दोनो के ही पास एक-दूसरे के प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं।
दोनो के अस्तित्व परस्पर विरोधाभासी हैं। एक का होना दूसरे का न होना है।
मिट्टी का एक दीपक सुन रहा था उनकी बातें, बोला कि मुझे तो आप दोनो ही अच्छे लगते हैं। मेरे पास आ जाओ तो यह झगड़ा नहीं रहेगा।
वे दोनो दीपक के पास चले गये। दीपक ने दोनो को प्यार दिया ...दोनो को सम्मान दिया। तब से दोनो वहीं रहते हैं।
मिट्टी का दीपक गुण ग्राहक है। उसे किसी के अस्तित्व से कोई मतलब नहीं। उसका अभीष्ट तो गुण है .....जो उसे चाहिये ही ...हर कीमत पर चाहिये ...वह कहीं भी क्यों न मिले।
अस्तित्व अहं का प्रकट रूप है ...किंतु दीपक को अहं से क्या मतलब? वह तो प्रकाश के प्रकट होने के उपक्रम की योजना करता है। ...और कितना निस्प्रह है कि तम के भरोसे को भी बनाये रखा है उसने।
तो मुझे लगता है कि गुण ग्राहक होना बड़े त्याग और तप की बात है ...इसीलिये मेरी दृष्टि में दीपक की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उस ज्ञानी की अपेक्षा।
जी
जवाब देंहटाएंकभी मैंने यह पंक्तियाँ रची थीं
आज सचमुच इन्हें अर्थ मिल गया ।
आभार ।
तम सो मा ज्योतिर्गमय पर
आधारित हर जश्न क्यूँ |
क्यों अँधेरे का नहीं सम्मान है
भाग्य में उसके बड़ा अपमान है
क्यों सदा ही रोशनी की जय कहें
सर्वदा हम क्यूँ हमारा क्षय सहें
आंकते क्यूँ लोग हैं बदतर हमें
न समझ आया कभी चक्कर हमें
मिथ्या जगत में है बराबर योग
पर पक्ष में तेरे खड़े हैं लोग
सब रात-दिन का देखते संयोग--
फिर मानसिकता रुग्न क्यूँ ??
तम सो मा ज्योतिर्गमय पर
आधारित हर जश्न क्यूँ ??
अभी भी ड्राफ्ट ही है । पोस्ट पब्लिश नहीं कर पाया था ।।
हटाएंऐसा आपके मन में भी था कभी, यानी मैं अकेला नहीं हूँ....!
हटाएंहम विज्ञान की दृष्टि से भी देखें तो दोनो विपरीत ध्रुवों का महत्व स्पष्ट हो जाता है। हम विवेकपूर्ण स्वनिर्णय के पक्ष में हैं, निषेध के नहीं। दूसरी बात यह कि हमें साम्यावस्था को बनाये रखने का प्रयास करना चहिये...सृष्टि का आधार यह साम्यावस्था ही तो है।
आपकी "कभी लिखी हुई" किंतु सार्वकालिक कविता के लिये साधुवाद :)
AABHAAR
हटाएंसुबह सुबह मिले इस वज़नी जीवन दर्शन के लिए आपका आभार...
जवाब देंहटाएंदिया तले अँधेरा किसी मकसद के लिए है ये पहले कभी सोचा नहीं.....
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद और भी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर हूँ,,,,जो पहले सोचा नहीं...
सादर
अनु
स्वागत है! रहस्यमयी इन्द्रधनुष से यही अपेक्षा थी। सोचिये ...सोचिये....और कुछ नया विचार सामने लाइये। हम प्रतीक्षा करेंगे।
हटाएंnamaskar aapko :)
जवाब देंहटाएं:)) :))
हटाएंहूँ....तो डॉ साहब आपने अपनी भाषा में सुख दुःख की अहमियत समझा दी ....
जवाब देंहटाएंपर जब अन्धकार लम्बा हो जाये खलता तो तब है ....
ये बहुत ही प्रेरणादायक लघु कथा है .....
बहुत अच्छा लिखते हैं आप ....
इसे चुरा लिए जा रही हूँ ....
घबराइए नहीं आपके नाम के साथ ही ....:))
आप पूर्व जन्म में डाकू पुतली बाई थीं क्या?
हटाएंहमारी तो टिप्पणी ही चोरी चली जाती है.....
जवाब देंहटाएंसचमुच दिया तले अंधेर है....
अनु
सच तो यह हैकि आपकी टिप्पणियाँ बड़ी शर्मीली हैं, शर्माते हुये आती हैं और स्पैम की कन्दरा में जाकर छिप कर बैठ जाती हैं। उन्हें वहाँ से मनाकर लाना पड़ता है।
हटाएंहमारी टिप्पणियां शर्माती नहीं हैं....
हटाएंशायद आपके वज़नी पोस्ट पर चस्पा होते घबराती हैं....कहीं हलकी ना पड़ जाएँ..
:-)
बहुत ही विलक्षण विवेचन!! अद्भुत!!!!!
जवाब देंहटाएंज्योति और तमस का विरोधाभास है।
यह विरोधाभास दृष्टिकोण मात्र है तमस को हमेशा यही लगता है ज्योति का उदय उसे नष्ट करने के लिए ही हुआ है क्योंकि ज्ञानीजनों ने इसी बिंब का प्रयोग किया है जबकि ज्योति मात्र अपने अस्तित्व के लिए ही संघर्ष में है। उसी तरह ज्योति को सदैव लगता है तमस उसकी प्रभा को खत्म करने के षड़यंत्र में ही रत है। आपने सही कहा दोनो ही अपने अपने अस्तित्व को बचाने में ही प्रयासरत है।
प्रबुद्ध ज्ञानी वह है जो संसार की प्रत्येक वास्तविकता को सहज स्वीकार करे, स्वीकार से तात्पर्य जो तत्व जैसा है उसे उसी स्वरूप में माने। गुणग्राहकता का विषय बादमें दूसरे स्तर पर आता है प्रकाश की ओर गुणग्राहकता का झुकाव अंधकार से द्वेष नहीं माना जाना चाहिए। तमस की ओर नीरव विश्राम का झुकाव ज्योति से द्रोह नहीं समझा जाना चाहिए। प्रकृति व वस्तु स्वभाव को जो है जैसा है ज्यों का त्यों मानकर सहज भाव से लेना समत्व है। मैं इसे समानता समन्वय या साम्यता नाम देना उचित नहीं मानता, हीरे और कंकर के मूल्य में अन्तर रहेगा ही, दोनो के अस्तित्व पर सहज समता भाव तो रखा जा सकता है किन्तु दोनो को साम्यता से आदर नहीं दिया जा सकता। जब मैं किसी महापुरूष को उसके ज्ञान और विद्वत्ता के लिए सम्मान के सिंहासन पर बिठा रहा होउँ, उसी के पास समान स्तर पर एक विकारी मूर्ख को आसन नहीं दे सकता। हां अगर मानवों की गणना कर रहा होउँ तो दोनो मानव समान है।
सुज्ञ जी! जो अनकहा रह गया था उसे आपने सरल करके कह दिया। स्व'भाव' को स्वीकारने की वृत्ति विकसित करनी होगी हमें। दो विपरीत गुणों में साम्यता(similarity)नहीं हो सकती....किंतु साम्यावस्था(state of being balanced/संतुलन) आवश्यक है।
हटाएंआपकी बात सही है संतुलन!! 'विवेकयुक्त संतुलन'!!
हटाएंकाली घणी करूप, कस्तुरी कांटा तुले।
शक्कर घणी सरूप, रोड़ां तुले राजिया॥
सही है गुण ग्राहक ना हों तो ज्ञान की ज्योति कैसे फैले..
जवाब देंहटाएंसुन्दर विवेचन
यह जो गुणग्राहकता है वह appreciation और acceptability के सद्गुणों को विकसित करने की क्षमता है ताकि विपरीत गुणों में भी संतुलन बनाये रखा जा सके।
हटाएं@ दीपक के रूपक ने 'गुण ग्राहकता' को सही से व्यक्त किया... दीपक का अँधेरे में जलना सार्थक है. उसके तले में प्रकाश का अभाव बेशक हो पर ऊपर की ओर प्रकाश रहता है.
जवाब देंहटाएंदीपक और विद्युत् बल्ब पर तुलनात्मक चिंतन करते हुए किसी कवि ने लिखा है :
जब तक दीपक रहा हमारा
रहा दीपक तले अन्धेरा
जब से विद्युत् बल्ब आ गया
ऊपर अन्धकार ने घेरा.
बुद्धिजीवी लेखक हों अथवा कवि, सभी प्रकाश की ओर जाना चाहते हैं, उसे महत्व देते हैं. 'आत्म दीपो भवः' 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' जैसे सूत्र कथनों में यही चाहना प्रकट भी है. हम अन्धकार से प्रकाश की ओर यत्नशील हों. हम अपने पथप्रदर्शक स्वयं बनें.
जैसे ....... प्रकृति अपने संसाधनों में संतुलन के लिये सतत क्रियाशील है. जिसका परिणाम भू-कम्प, भू-संचरण, ज्वालामुखी विस्फोट, सुनामी आदि हैं, जिसमें वर्षा, तापमान, वायु (आंधी-तूफ़ान) मदद करते हैं. वैसे ही ..... ईशकृति (मानव) भावों में सम्यकता के लिये नियमों का विधान करता है, फिर उनका पालन करता है. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को समुचित रूप में ग्रहण करता है. इनमें असंतुलन होते ही वह आलसी, प्रमादी, भोगी और भ्रमित हो जाता है.
यहाँ अँधेरे के संबंध में इतना कहना पर्याप्त रहेगा कि .... प्रकाश से पूरित, ऊर्जा से आवेशित जीवधारियों के 'अंग-प्रत्यंग' एक समय अंतराल के बाद रेचक क्रिया करना चाहते हैं. भरे हुए पात्र खाली हो जाना चाहते हैं. भरे पात्रों की ऊर्जा का समुचित उपयोग हो इसके लिये 'धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष' को चार पुरुषार्थ में बाँट दिया है. समय और आवश्यकता के अनुरूप क्षेत्र को चुनकर ऊर्जा आवेशित पात्र रिक्त कर देने चाहिए.
सृष्टि में हर क्रिया दो ध्रुवों पर गतिशील है... वह चाहे पदार्थ का तरल होकर ठोस होना हो, या फिर प्रहर (समय) का रात्रि और दिन के रूप में बदलना, या फिर किसी आयतन का रिक्त होकर भरने की क्रिया में रत रहना हो.
वस्तुओं की छिपे होने से प्रकट होने की स्थिति यही दर्शाती है, अज्ञान से ज्ञान तक की दौड़ हो, बहस से होकर घृणात्मक अपशब्दों की शुरुआत फिर लड़ाई फिर अंततः शांति/ संधि/ मिलनसारिता/ प्रेम जैसे पड़ाव अर्थात असहमति से सहमति का संघर्ष, शत्रुता से मित्रता की बनती-बिगडती स्थितियाँ ... हर कहीं दोलन हो रहा है. हर किसी का एक चक्र है जो पूरा होने को है... बस अंतर ये है कि किसी का छोटा घेरा है तो किसी का इतना दीर्घ कि प्रतीक्षारत (जिज्ञासु, प्रेमी, भक्त, दर्शनाभिलाषी) का जीवन समाप्त हो जाये.
इतने ज्ञानियों की बातें सुनकर आभार कहने को जी चाहता है कि यहाँ आकर इतना कुछ सीखने को मिला.. प्रकाश-अंधकार, सुख-दुःख इं सबको हम एक ही सिक्के की दो पहलू कहते हैं.. लेकिन चाहते हैं कि सिर्फ एक ही पहलू हमारे हिस्से में आये.. प्रकाश और सुख.. अब सिक्के के दोनों पहलुओं को अलग किया तो वो सिक्का खोटा ही माना जाएगा..!!
जवाब देंहटाएंआभार डॉक्टर साहब और सुज्ञ जी!!
बहुत सुन्दर निबन्ध। जब दीपक है तो अन्धेरा भी होगा! जो प्रकाश को ग्रहण करेगा वह प्रकाश पर ग्रहण भी लगायेगा, यह स्वाभाविक है क्योंकि प्रकाश स्वभाव से ही ऋजु है, अपने कार्य में बाधा बनने वालों को भी प्रकाशित करता है। समस्या तब आती है जब हम ज्योति की जगह दीपक को ही पूजने लगते हैं।
जवाब देंहटाएंप्रकृति की शाश्वतता को बहुत सटीक उदाहरण के द्वारा समझाया है आपने. निःसंदेह प्रकृति द्वारा प्रदत्त सभी संसाधनों का जीवन में अपना अपना महत्व है, जिसे हमें समझना ही चाहिए और स्वीकारना चाहिए. गहन चिंतन, आभार.
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति!
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