नदी के किनारे
यह कहकर
कि वे कभी नहीं मिलते
लोगों ने उतार दिया उन्हें
खलनायक की भूमिका में।
वे निभाते रहे.....
अपनी भूमिका का चरित्र
बिना किसी परिवाद के
और नदी
बहती रही।
एक दिन लोगों ने देखा
किनारे एक हो गये हैं
पर नदी
अब वहाँ कहीं नहीं थी।
स्त्री
बलात्कार की शिकार
केवल तुम्हीं नहीं हो
बल्कि
आदमी की रुचि
हर स्त्रीलिंग में है
फिर वह स्त्री हो
या नदी.....
या प्रकृति......
या शक्ति......
उसने छोड़ा किसे है?
आँखों का पानी
उन्होंने
दान कर दिया है
अपनी आँखों का पानी
उन गरीबों को
जिनकी आँखों में पहले से ही
कम नहीं थे
ज्वार से उछलते आँसू।
सुना है
अब घोटालेवाज़ों की आँखें मुस्कराती हैं
गिरफ़्तारी के वक़्त।
शहद
अपने बच्चों के लिये
मेडिकल स्टोर से नकली शहद लेने गयी
एक मधुमक्खी।
केमिस्ट ने अचरज़ से पूछा-
हमारे पास “मैनमेड” है,
तुम अपना ही शहद क्यों नहीं वापरतीं?
मधुक्खी ने कहा-
ज़हरीले फूलों से बना असली शहद खिलाकर
हमें अपना वंशनाश करना है क्या?
भरोसा
उन्हें भरोसा है
इसीलिये प्रतिवर्ष सावन में
बड़ी धूम-धाम से करते हैं रुद्राभिषेक।
सुना है
कि जब भी पकड़े गये
मृत पशुओं की अस्थियों को निचोड़
नकली घी बनाते हुये,
वे
कभी नहीं रहे
एक घण्टे भी सलाखों के पीछे।
प्रकाशन
अपने लेखन पर
यूँ न इतराया करो सनम!
अधिक नहीं
सिर्फ़ एक.....
सिर्फ़ एक संकलन भर छपवा के दिखाओ
तीखे व्यंग्य वाण!! सटीक प्रहार!! मार्मिक प्रसंग!! बस मुग्ध!!
जवाब देंहटाएंसलिल भइया जी! नमस्कार! अब हम चेहरा किताब( फेस बुक) पर भी आपको तंग करने के लिये आ गये।
हटाएंनदी के किनारे होते हैं नदी नहीं किनारे नहीं। शक्ति पर आपत्ति। शेष व्यंग्य में अच्छा प्रयोग।
जवाब देंहटाएंकिनारे मर्यादा के प्रतीक हैं, आज हम उच्छ्रंखल होते जा रहे हैं ....मर्यादाओं को तोड़ते जा रहे हैं बिना यह सोचे कि इन मर्यादाओं से ही हमारा अस्तित्व है।
हटाएंशक्ति का अभिप्राय यहाँ प्रकृति की उन ऊर्जाओं से है जिनका हम अविवेकपूर्ण तरीके से प्रयोग कर रहे हैं और जो चुकती जा रही हैं।
आपकी बेबाक टिप्पणियाँ मुझे भाती हैं। जिआ हो मर्दे...
क्षमा करें डा0 साहब.. नदी भी प्रकृति का हिस्सा है। फिर नदी..प्रकृति कह चुकने के बाद आपने शक्ति का प्रयोग किया है। आशय पाठक लगायेगा या कवि? आलोचना वहीं करता हूँ जो बुरा नहीं मानते और जिनसे कुछ सीखने को मिलता है।..सादर।:)
हटाएंबिल्कुल क्षमा ना करब। पूरा साल गुज़र गइल, बिना लिट्टी-चोखा खाये बाम्हन आदमी कइसे माफ़ करी?
हटाएंहाँ ...त रउआ पान के एक्का रखले बानी....पर तुरुप हमरे तीर बा।
@ नदी भी प्रकृति का हिस्सा है।
किंतु वह सम्पूर्ण प्रकृति नहीं है। हमने बात स्त्री से प्रारम्भ की थी किंतु आशय स्त्रीवाची सभी तत्वों से था। पुनः 'प्रकृति' और 'शक्ति' लिखने से प्रथमदृष्ट्या पुनरुक्ति दोष प्रतीत होता है। किंतु ये शब्द अपने विशिष्ट अर्थों के लिये प्रयुक्त किये गये हैं। जब हम प्रकृति कहते हैं तो आशय प्रकृति के स्थूल स्वरूप( Matter)से है,जब हम शक्ति कहते हैं तो आशय प्रकृति के सूक्ष्म स्वरूप(energy)से होता है। विज्ञान और दर्शन की दृष्टि से हम प्रकृति और शक्ति को समानार्थी नहीं मान सकते। सृष्टि के लिये, भारतीय दर्शन में 24 प्रकृतियों के संयोग की बात कही गयी है। भौतिक दृष्ट्या हमने स्थूल प्रकृति के साथ-साथ पृथिवी पर उपलब्ध अन्य शक्तियों का भी अविवेकपूर्ण दोहन किया है। सन्देश इतना ही था। संयोग यह है कि ये सभी संज्ञायें स्त्रीवाची हैं...इसलिये स्त्री की त्रासदी को भी ध्वनित करने का प्रयास किया गया है।
@आशय पाठक लगायेगा या कवि?
निश्चित ही पाठक...अन्यथा कविता केवल स्वांतः सुखाय का साधन बन कर रह जायेगी। तथापि रचनाकार अपने पाठक से एक निश्चित व न्यूनतम harmony की अपेक्षा रखने का अधिकारी तो है ही।
:)
हटाएंचुभने वाले पद ।
जवाब देंहटाएंसुना है
अब घोटालेवाज़ों की आँखें मुस्कराती हैं
गिरफ़्तारी के वक़्त।
बेशर्मी तेरा आसरा .लगता है जैसे तिहाड़ से निकलते वक्तकोई किला फतह करके आयें हैं .विजय भाव लिए दिग्विजय स्वरूपा कुटिल मुस्कान लिए ये दुर्मुख चले आते .
हटाएंबिल्कुल वीरूभाई!बेहयाई की हद है। इसीलिये मैं कहता हूँ कि पहले जो करणीय था वह अब अकरणीय हो गया है...और अकरणीय करणीय। परिभाषायें अपने अर्थ खोती जा रही हैं और शब्द अपनी शक्ति। घोर कलियुग है।
हटाएं:)
जवाब देंहटाएंहर रचना झकझोर देने वाली ... उत्तम व्यंग ...
जवाब देंहटाएंमेरी टिप्पणी को मना कर निकाल लाइए प्लीस...
जवाब देंहटाएंसादर.
रहस्यमयी जी! ये रही आपकी टिप्पणी। पर इस बार सेन्ध मार कर लानी पड़ी, कन्दरा के मुख्य द्वार से नहीं आ सकी। कोई स्थायी उपाय बताइये।
हटाएं"सभी क्षणिकाओं पर अलग अलग टिप्पणी ज़रा ज्यादा हो जायेगी....
सबसे बढ़िया ये लगी.."
प्रकाशन-
अपने लेखन पर
यूँ न इतराया करो सनम!
अधिक नहीं
सिर्फ़ एक.....
सिर्फ़ एक संकलन भर छपवा के दिखाओ
तो जानें।
:-)
कहीं पढ़ा था...किसी ब्लॉगर ने ही लिखा था...कि अपनी किताब छपवाई खुद के पैसों से...लगा एक माला खरीदी और खुद पहन ली...
अब कोई और ना पहनाए तो क्या करें !!!
उत्तम लेखन हेतु बधाई.
अनु
रहस्यमयी जी! प्रतुल जी चाहते हैं कि इस रचना की आलोचना हो। हम आपसे अनुरोध करते हैं कि आप प्रतुल जी का मान रखने के लिये प्रकृति के सम्यक उपभोग और शोषण के मध्य के उस रहस्य को प्रकाश में लाने की कृपा करें जिसे विकसित समाज समझने से इंकार कर रहा है।
हटाएंपहले भी कहा दोबारा कहती हूँ.............
हटाएंज्यादा वज़न दिमाग पर बर्दाश्त नहीं होता...
लेखनी भी हल्काफुल्का चलती है...विचार भी साधारण से ही आते हैं....शब्दों की रस्सी आप ही बंटों......
हम रस लेते हैं रचना का....आलोचना का रिस्क कौन ले...मेरी सामर्थ्य के बाहर है यही समझ लें...हां प्रकृति से प्रेम बहुत है तो दिल दुखता ज़रूर है मानव की क्रूरता और स्वार्थ देख कर..
अनु.
प्रकृति से प्रेम ही तो आज की महती आवश्यकता है। आप रसास्वादन करती रहें ...हम इसमें भी ख़ुश.. :-)
हटाएंनदी के किनारे
जवाब देंहटाएं@ जब एक दिन लोगों ने देखा
किनारे एक हो गये हैं...
और नदी गायब.
तब 'एक हुए' किनारे भी न रहे.
कभी इस पार तो कभी उस पार उतरने की झंझट भी ख़त्म हुई.
जैसे बिना विधान के समाज अराजक कहाता है.
जैसे यूज़र गाइड के बिना न्यू इन्वेंट इक्विपमेंट
सही-सही इस्तेमाल में देर लगाता है.
वैसे ही बिना बंधन के दायित्वबोध नहीं होता.
वैसे ही बिना संबंध माने प्रेम-क्रोध नहीं होता.
निहितार्थों के
किनारे किनारे चलने में ही गनीमत है.
गहराई में उतरने की टूटी हिम्मत है.
वैसे भी मुझे किनारे से सीपी-मोती ढूँढने की लत है.
मोती ढूँढने में हम भी आपके साथ हैं। :)
हटाएं@ ...तब 'एक हुए' किनारे भी न रहे.
हटाएंदो बिन्दुओं के मध्य जो कारण है उस कारण के न रहने से बिन्दु समाप्त नहीं हो जाते। बिन्दु जब विस्तृत होते हैं तो एक रेखा में रूपांतरित हो जाते हैं। नदी तो अंतर्ध्यान हो गयी पर उसकी सीमायें ....उसे आकार देने वाले किनारे अंतर्ध्यान नहीं हुये ...रूपांतरित हो गये ...विस्तृत हो गये। अब उनके होने का अर्थ भी समाप्त हो गया। हाँ यह अवश्य कि
"कभी इस पार तो कभी उस पार उतरने की झंझट भी ख़त्म हुई"
जब मर्यादाओं के पालनकर्ता उनकी उपेक्षा करते हैं तो वे अर्थहीन हो जाती हैं। पूरी तरह समाप्त नहीं हो जातीं.....सनातन सत्य कभी समाप्त नहीं होता ...अवगुंठित हो सकता है ...कुछ समय के लिये।
'अंतर्ध्यान' सही शब्द नहीं .... उसके स्थान पर अंतर्धान कहें.
हटाएं@ आपके प्रतिउत्तरों ने बौद्धिक सुख दिया. आनंद-परमानंद!!
स्त्री
जवाब देंहटाएं@ मेरी भी रुचि स्त्रीवाची शब्दों में इस कदर है कि आपकी प्रतिष्ठा के साथ कुछ बलात् करने की हठ है.
इस कविता की प्रशंसा इसी में है कि इसकी आलोचना हो.
क्या नदी का दोहन ..... बलात्कार है?
क्या उसके दोहन से ... मिलती दुत्कार है?
क्या प्रकृति निरीक्षण .... बलात्कार है?
क्या उसका टोहन .... लगे नहीं सत्कार है?
क्या शक्ति 'रूप' तकना भी .... बलात्कार है?
क्या उसका मोहन ... नहीं प्रेम-व्यवहार है?
जिसे आप कह रहे रुचि 'शिकार' है.
वही वजह बन कर रही लो तकरार है.
बलपूर्वक दोहन में शोषण है,अत्याचार है
हटाएंसाम्यक उपभोग में कहाँ बलात्कार है?
क्षत न हो अस्तित्व बस इतना हमें स्वीकार है
भरपायी ना हो तो रुकता संसार का व्यापार है।
रस में पगे जो भाव उठते हैं किसी को देखकर
उसमें कहाँ तकरार? वह तो प्रेम का व्यवहार है।
प्रतुल जी! आलोचना का अपना पृथक रस होता है, आप इसे दसवाँ रस कह सकते हैं। इसलिये आलोचनाओं का हार्दिक स्वागत है :-))
आपसे उचित प्रतिक्रिया पाकर ... मन गदगद है.
हटाएंअन्यथा, अपनी रचनाओं की आलोचना सुनकर लोग आँखें तरेर लेते हैं.
जो इसे भी रस की कोटि में ले आये तो उसे आगामी गर्मियों की उष्णता भी न अखरेगी :)
आलोचनायें सुधार की पृष्ठभूमि तैयार करती हैं/आलोचनायें हताशा उत्पन्न करती हैं।
हटाएंआलोचनायें कटुता उत्पन्न करती हैं/आलोचनायें मधुरता के साथ नव ऊर्जा का संचार करती हैं.......जिसको जो अच्छा लगे....
त्रुटि सुधार के लिये इंगित करने का आभार लेकिन नेट की मनमानी के कारण सुधार करूँगा नहीं, डर है कि कहीं पूरी टिप्पणियाँ विलोपित न हो जायँ। हाँ अगली बार यह त्रुटि नहीं होगी....वादा रहा :))
....साथ ही यह प्रमाण भी बना रहना चाहिये कि कभी प्रतुल जी ने मेरे प्रति गुरु की भूमिका भी निभायी थी। :))
गुरु को सादर नमन!!!
@ 'शहद' के भावों से चिपककर बहुत अच्छा लगा. बाक़ी क्षणिकाएं भी उत्तम हैं.
जवाब देंहटाएंतीक्ष्ण धारदार व्यंग्य!!
जवाब देंहटाएंसारी क्षणिकाएं एक से बढ़कर एक...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक और करारा व्यंग्य है..वर्तमान परिस्थितियों पर
जीवन का स्पंदन क्रन्दन समेटे लाज़वाब विचार कणिकाएं .
जवाब देंहटाएंअद्भुत क्षणिकाए और उन पर स्वस्थ चर्चा, पंक्ति पंक्ति का विश्लेषण... वाह!
जवाब देंहटाएंआनंदम... आनंदम....
सादर।
बहुत अच्छी कविताएँ लिखी हैं आपने ।छोटी मग़र बहुत ही प्रभावकारी । मेरी शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंउफ्फ्फ.....
जवाब देंहटाएंअद्भुत .....
गज़ब.....
उफ्फ्फ.....
नमन....!!
इमरोज़ जी के घर की दीवारें मुझे अभी तक नहीं मिल पायीं :(
हटाएंनदी के किनारे
जवाब देंहटाएंउनके न मिलने में ही न जाने कितनो का अस्तित्व सुरक्षित है........छोटी-छोटी सुनहरी मछलियाँ,एक पैर पर खड़े बगुले, कछुए, मछुआरे व उनका परिवार, किनारे पर उगे वृक्ष,पानी की तलाश में आते पशु-पक्षी,घड़ी भर को विश्राम करते राहगीर,मुसाफिर.....नदी ने कब किसी को निराश किया है......तभी तो अपने दर्द को सीने में छुपाए हुए.....हर आने-जाने वाले को प्यार-दुलार और स्नेह बाँटते हुए.....किनारे चमकते रहते हैं चाँदनीं रातों में.......
कौशल जी ,बाकी की सारी क्षणिकाएँ भी अद्भुत हैं......पर नदी और स्त्री जीवन में बहुत साम्य पाती हूँ.....अत: नजर वहीं ठहर जाती है......
ये लीजिये कौशल जी, अभी कुछ देर पहले ही तो मेरी टिप्पणी यहीं थी.....अब कहाँ गायब हो गई....?कहीं आपके जंगल ने मुझे पहचानना तो नहीं बंद कर दिया....? जंगल जी इतनी भी क्या नाराजगी ......? कुछ अन्य व्यस्तताओं के चलते नहीं आ पा रही हूँ....अब मान भी जाएये..... :-)
जवाब देंहटाएंफ़िलहाल तो अंतर्जाल के स्पैम बन्दीगृह आपकी टिप्पणी को स्वतंत्र कराके ला रहा हूँ। लम्बे-लम्बे प्रवास में बाहर रहने से जंगल में झाड़ियाँ उग आती हैं। पर आपको उनकी परवाह कहाँ? जंगल, तपते पत्थर, कंटीली झाड़ियाँ और नक्सली बन्दूकों की धाँय-धाँय....और आप गयी हैं अहमदाबाद साध्वी बनने।
जवाब देंहटाएंनदी की तरह स्त्री का भी सम्पूर्ण जीवन दूसरों के लिये ही बीतता है पर उसे प्रतिदान में क्या मिलता है? सम्मान के स्थान पर केवल पीड़ा। मुझे भी वही क्षणिका अधिक प्रिय है।
श्री राम जन्म की बधाईयाँ :) शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शब्दचित्र उकेरा है..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
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