अथ श्रीकृष्ण चरितम्
महाभारत के महानायक और गीता जी के उपदेशक श्रीकृष्ण जू ने पूरे विश्व के मानव मन को जितना आन्दोलित किया है कदाचित ही किसी अन्य चरित्र ने किया हो । गीता के उपदेष्टा द्वापर के कृष्ण आज के परिवेश में कितने प्रासंगिक हैं, यह विचारणीय है। यह विचारणा इसलिये और भी आवश्यक है कि हम आधुनिकता की दौड़ में पीछे मुड़कर देखने को पिछड़ेपन का प्रतीक मानने लगे हैं। आगे भागने के मोह में पीछे कितना कुछ महत्वपूर्ण छूट गया है इसकी हमें लेश भी चिंता नहीं है। कृष्ण के उपदेशों को हमने अपनी संकुचित बुद्धि के कारण पूजापाठ तक ही सीमित करके रख दिया है। वर्तमान सन्दर्भों में कृष्णनीति की उपादेयता पर चिंतन करना समय की महती आवश्यकता है। कृष्ण सच्चे अर्थों में जननायक थे, इसीलिये वे आमजन के इतने प्रिय हो सके। वे जनता के भगवान श्रीकृष्ण नहीं बल्कि प्रिय कान्हा थे, मुरली वाले थे, गोपाल थे, माखनचोर थे, रसिया थे ...न जाने क्या-क्या थे। जननायक को जनता के इतने ही समीप होना चाहिये कि वह सखा लगे, लोक क्रांति तभी सम्भव हो पाती है। आज के जननायकों के तो दर्शन ही दुर्लभ रहते हैं जनता को, वे जनता का कल्याण क्या कर सकेंगे?
कृष्ण चरित्र तो महान है, उसकी व्याख्या कर पाना मुझ जैसे के लिये शक्य नहीं तथापि एक क्षुद्र प्रयास भर है यह। बोलिये यशोदा लाल की जय !
मोरमुकुटधारी लोकमहानायक तो अवतारी थे पर उनकी माताद्व्य को उनके प्राण सदा संकटग्रस्त दिखाई देते थे। देवकी कृष्ण की रक्षा का भार यशोदा पर डालकर भी बन्दीगृह में छटपटाती रहीं, पर माता यशोदा! उन्हें कृष्ण के जीवन के लिये जितना भय कंस से था उससे भी अधिक भय ग्रह-बाधाओं से भी था। पूतना एक ऐसी ही छद्माचारी बाधा थी जो माता के दूध में मिलकर क्षीराद् ( केवल माँ का ही दूध पीने वाले ) शिशुओं के शरीर व रक्त में प्रविष्ट होकर उनके प्राण हरण कर लेती थी। ग्रहबाधा को हम एक ऐसे सूक्ष्म घटक के रूप में समझ सकते हैं जो क्षीराद् शिशुओं को ग्रहण ( Invade and Infect) कर उनकी अकाल मृत्यु का कारण बन जाता है। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में भी Diseases of unknown aetiology तथा Micro-patho-organisms भी कुछ इसी प्रकार की बाधायें हैं। मातायें ग्रह बाधाओं से अपने शिशुओं की प्राणरक्षा के न जाने क्या-क्या उपाय करती रहती हैं। कंस और पूतना से भयभीत ममतामयी माता यशोदा ने तो मयूरपिच्छ को कृष्ण के सिर का आभूषण ही बना दिया। उन्होंने मयूरपिच्छ को ग्रहबाधा निवारक तथा एक सुलभ विषघ्न के रूप में श्रुत परम्परा से जाना था। यह मयूरपिच्छ की ही महिमा थी कि कृष्ण सदा ग्रहबाधाओं तथा विषों से अपने प्राणों की रक्षा करते रहे। आयुर्वेद के वैद्य आज भी मयूरपिच्छ भस्म का भूरिशः उपयोग करते हैं। इसी तरह नवनीत भी एक श्रेष्ठ विषघ्न के रूप में वैद्य समाज में प्रतिष्ठित है। और यह तो सभी जानते हैं कि कान्हा को माखन कितना प्रिय था। बोलिये मोरमुकुट्धारी माखनचोर की जय!
लीलाधर श्रीकृष्ण जू महाराज इन्द्रप्रस्थ के अंतःपुर में पल रहे षड्यंत्रों तथा कौरवों एवम् पाण्डवों के मध्य प्रेम की शून्यताजन्य कटुता से उत्पन्न प्रतिद्वन्दिता के भाव से भली-भाँति परिचित हो चुके थे। उन्होंने एकसौ कौरवों की अपेक्षा पाँच पाण्डवों की ओर ही अपना हाथ आगे बढ़ाया। यह संस्कारों का सहज आकर्षण और असंस्कारों का विकर्षण था। बालमन में पाण्डवों के प्रति उत्पन्न सहज संवेदना का परिणाम थी उनकी मित्रता। उस समय तो स्वयं कृष्ण को भी नहीं भान रहा होगा कि भविष्य में घटित होने वाली विश्व की एक महान घटना का सूत्रपात विधि ने उनके माध्यम से कर दिया था।
इन्द्रप्रस्थ के पाण्डव और मथुरा के कृष्ण अनीतिपूर्ण व्यवस्थाओं के शिकार हो रहे थे। समस्याओं की निरंतरता और संघर्ष की जुझारू प्रवृत्ति ने कृष्ण और पाण्डवों को निरंतर समीप आने का अवसर उपलब्ध कराया। बचपन की मित्रता और भी प्रगाढ़ होती गयी। इसी बीच किशोरावस्था को प्राप्त सुभद्रा व अर्जुन के मध्य अंकुरित हुये प्रेम ने कृष्ण को इन्द्रप्रस्थ के राजकुल के और भी निकट आने का अवसर प्रदान कर दिया। वे किसी भी तरह इस अवसर को खोना नहीं चाहते थे। किंतु बलदाऊ को यह सब पसन्द नहीं आया, वे इसमें बाधा बनकर खड़े हो सकते थे अतः चतुर कृष्ण ने अपनी ही बहन का अपहरण कर डालने का न्योता अर्जुन को दे दिया। अर्जुन और सुभद्रा के विवाह से इन्द्रप्रस्थ और मथुरा के विद्रोही और भी समीप आ गये। उन्हें विश्व के समक्ष लोकतांत्रिक साम्यवाद की नीव जो रखनी थी। बोलिये लीलाधर श्रीकृष्ण जू महाराज की जय !
गोपाल कृष्ण वस्तुतः गो-धन संवर्धनकारी थे। एक दूरदर्शी व कुशल अर्थशास्त्री की तरह कृष्ण ने आर्थिक स्रोतों के आधारस्वरूप गो-सम्पदा के महत्व को पहचान कर गो-वंश के पालन-वर्धन को एक बड़े अभियान की तरह चलाने का उत्साह लोगों में उत्पन्न किया। इस तरह जहाँ गंगा-यमुना के मैदानी भाग में स्थित विस्तृत चारागाहों का उपयोग हुआ वहीं कृषकों को भी सहज-सुलभ प्राकृतिक उर्वरक के प्रयोग से कृषि उत्पाद बढ़ाने में सहायता मिली। इससे सम्पूर्ण ब्रजमण्डल दूध-दही तथा कृषि उत्पादों से समृद्धशाली होता गया। गोवंश हमारे देश का अर्थशास्त्र है। यह कृषि की वह रीढ़ है जिसके महत्व को आधुनिकीकरण के भूत ने तोड़कर रख दिया है। आज बैलों का स्थान ट्रेक्टर्स ने ले लिया और गोबर की प्राकृतिक खाद का स्थान ले लिया है कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों ने। गोबर से धरती की उर्वरता बढ़ती है, कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों से बढ़ती है धरती की अम्लता जिससे उपजाऊ धरती होती है बंजर। परिणामस्वरूप प्रदूषण तो हमें मिला ही, धरती की उर्वरता भी दाँव पर लग चुकी है। आज चारागाहों के अभाव में गोपालकों ने अपनी गायों को पूरक आहार के रूप में जंतु-उत्पाद खिलाकर उन्हें मांसाहारी बना दिया है। इसीलिये शाकाहारी से मांसाहारी बन गयी गायों का दूध व मूत्र भी उतना गुणकारी नहीं रहा अब। बैल खेतों में चलते हैं तो गोबर देते हैं, ट्रेक्टर्स खेतों में चलते हैं तो विषैली गैसें वायुमण्डल में छोड़ते हैं। काश! हम कृष्ण के इस गोपालक स्वरूप को समझ पाते तो कृष्णजन्माष्टमी का पर्व सार्थक हो जाता। बोलिये गो-वंश वर्धन व्रतधारी गो-पाल किसन जू महाराज की जय!
गिरधारी कृष्ण जू महाराज क्रांति नायक के रूप में ब्रज में अवतरित हुये थे। भारतीय समाज ने गोपालन तथा कृषि वृत्ति को अपनी सम्पन्नता का आधार बहुत पहले ही बना लिया था। श्रमसाध्य कार्य होते हुये भी देश की अधिकांश प्रजा इन्हीं कार्यों में अपनी आजीविका में व्यस्त व उसे प्राप्त कर सुखी और संतुष्ट थी। मानव श्रम का महत्व पहचान लिया गया था और इसी कारण अधिकार सम्पन्न लोगों द्वारा श्रम का शोषण भी प्रारम्भ हो गया। किंतु द्वापर व कलियुग के सन्धिकाल में राजसत्ताओं तथा अधिकार सम्पन्न आभिजात्य वर्ग द्वारा मानवश्रम के शोषण ने सीमाओं का उल्लंघन कर डाला। राजदण्ड के भय से प्रजा अपने शोषण के विरोध में मुँह खोल पाने में समर्थ नहीं हो पा रही थी। राजशक्ति का विरोध करना अपने विनाश को आमंत्रण देना होता है। निर्बल प्रजा में व्याप्त भय व दरिद्रता शोषण की गम्भीर समस्याओं के अम्बार का सामना कैसे कर पाती? कृष्ण ने दलित-शोषित प्रजा को एक-जुट करने के बारम्बार प्रयास किये, पर मन से निर्बल हो चुकी प्रजा अन्याय के विरोध का साहस नहीं जुटा पा रही थी।
यहाँ राम भाग्यशाली थे कि अयोध्या से दूर दक्षिण के जंगलों में जन-समर्थन एवं सैन्यशक्ति जुटाने में उन्हें आश्चर्यजनक सफलता मिल सकी। किंतु वह त्रेता युग की बात थी द्वापर में तो लोग अन्याय के विरोध में खुलकर सामने नहीं आ पा रहे थे। यद्यपि मन से तो वे सभी कृष्ण के समर्थक थे किन्तु जिस तरह आज कलियुग में कालेधन को भारत में वापस लाने और एक सक्षम लोकपाल बिल लाने के विषय पर व्यापक जनसमर्थन के पश्चात् भी कोई क्रांति नहीं हो पा रही है उसी तरह द्वापर और कलियुग के उस सन्धिकाल में आमजनता न तो एकजुट हो पा रही थी और न किसी क्रांति के लिये सक्षम। ऐसी ही विषम स्थिति में महानायक कृष्ण को अकेले ही ब्रज की पहाड़ जैसी समस्याओं के विरोध में स्वयं तनकर खड़ा होना पड़ा। राजतंत्र के अधिनायकवादी निरंकुश शासन और अन्याय से लड़ने के लिये सैन्यविहीन कृष्ण का शंखनाद सबको अचम्भित कर देने वाला था। प्रजा को एक नायक की आवश्यकता थी, पर उन्हें तो एक महानायक मिल चुका था। इस घटना ने न केवल मथुराधिपति कंस अपितु आसपास के अन्य आततायी राजाओं की भी नींद उड़ा दी थी। यह कुछ-कुछ वैसे ही था जैसे कि आज के लोकतांत्रिक सरकारों की 'देश को लूटने में लगी होड़' के बीच अन्याय और उत्पीड़न में पिसता आमआदमी अंततः व्यवस्था परिवर्तन में लगी विद्रोही शक्तियों को अपना मूक समर्थन देने लगता है। कृष्ण जू जनशोषण की पर्वत जैसी समस्याओं का भार उठाने के लिये आगे बढ चुके थे। ब्रज की दलित-शोषित प्रजा आनन्दित हुयी। लोग सच्चे हृदय से कृष्ण के भक्त हो गये। बोलिये गिरधारी क्रांतिकारी कृष्ण जू महाराज की जय !
चक्रधारी श्रीकृष्ण जू महाराज लोकतांत्रिक साम्यवाद के प्रवर्तक एवं पूँजीवादी साम्राज्यवाद के घोर विरोधी थे। वे जानते थे कि राज्य संचालन में अर्थ की आवश्यकता की पूर्ति के लिये प्रजा से कर प्राप्त करना राज्य व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण कार्य है। किंतु कृष्ण की मान्यता थी कि कराधान का सदुपयोग जितना महत्वपूर्ण है उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कराधान के युक्तियुक्त निर्धारण का। निर्धारण यदि युक्तियुक्त और न्यायसंगत न हुआ तो कराधान धर्मसंगत न रह सकेगा। इसीलिये हर युग में धर्मप्राण राजाओं ने धर्मसंगत कराधान के प्रति अपनी विशेष संवेदनशीलता को बनाये रखा। कलियुग में भी ऐसे आदर्श राजा हुये हैं जिन्होंने राजकोष को प्रजा की धरोहर मानते हुये अपनी आजीविका के लिये टोपियाँ सिलने या बिजना (हाथ से डुलाये जाने वाले पंखे ) बुनने जैसे श्रमिकों वाले कार्य करने में भी किंचित भी हीनता अनुभव नहीं की। भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान सत्ताधारी यदि ऐसे आदर्श व धर्मप्राण राजाओं से किंचित भी सीख ले सकें तो देश का उद्धार हो जायेगा और कृष्ण को दोबारा अवतार लेने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा।
धर्मसंगत कराधान और उसके जनहित में सदुपयोग की संवेदनशीलता में लेशमात्र की शिथिलता भी अधर्म का निश्चित् कारण बन जाया करती है। यह सिद्धांत सार्वकालिक है, किंतु कालांतर में राजाओं ने तथा इसके पश्चात् अन्य शासन तंत्रों के प्रधानों ने इस सिद्धांत का पालन करना उचित नहीं समझा। उन्होंने कराधान और उसके सदुपयोग की धार्मिकता-पारदर्शिता में शिथिलता करना प्रारम्भ कर दिया। इससे प्रजा का शोषण हुआ और कर की पवित्रता समाप्त हो गयी। प्रजा के शोषण से तद्जन्य अधार्मिक कृत्यों की बाढ़ आ गयी। इतिहास साक्षी है कि अधार्मिक कृत्यों की परिणति सदा रक्त हिंसा में ही होती रही है।
मथुराधिपति कंस के राज्य में कराधान युक्तियुक्त न होने के प्रमाण उनके भांजे वासुदेव कृष्ण द्वारा माखन लूटने के आख्यानों में मिलते हैं । राज्य की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार पशुपालन, दुग्ध उत्पादन तथा कृषि उत्पादन होने के कारण धर्मच्युत राजा कंस ने अपनी प्रजा को लूटना प्रारम्भ कर दिया था। इस निरंकुश राजलूट के प्रति प्रजा में आक्रोश तो था किंतु उनके असंगठित होने, नेतृत्वविहीन होने तथा राजदण्ड के भय से उनमें राजा का विरोध कर पाने का साहस न था। प्रजा के श्रम पर वैभवशाली जीवन जीने वाले राजा और उनके अधिकारियों का आचरण प्रजा के प्रति सर्प के समान हो गया था। वे अपनी प्रजा का शोषण व दमन करने लगे। कृष्ण ने नाग जैसे आचरण वाले राज्याधिकारियों का दमन करने का संकल्प लिया। वासुदेव कृष्ण के बालमन में इस शोषण व दमन के प्रति जन्मे विद्रोह ने छुटपुट प्रतिक्रिया व्यक्त करनी प्रारम्भ कर दी। पहले तो उन्होंने निर्बल प्रजा को अयुक्तियुक्त कर के रूप में अपने उत्पाद कंस को न देने के लिये समझाया पर बात न बनने पर अपनी छोटी सी छापामार मित्रमण्डली के साथ कृषि एवं दुग्धोत्पादों को लूटकर प्रजा में वितरित करना प्रारम्भ कर दिया।
माखनचोरी का कृष्ण की बाल लीलाओं में वर्णन किया गया है। माखन की उपलब्धता वाले ग्रामीण घरों में नन्हें बालकृष्णों द्वारा माखनचोरी आज भी माता-पिता के लिये एक आनन्ददायी सामान्य घटना है। किंतु मित्र मण्डली के साथ घात लगाकर मार्ग में छिपकर बैठना और गोपियों के आते ही दुग्धोत्पादों पर टूट पड़ना, छीना-झपटी में मटकी फोड़ देना और गोपियों को मथुरा के मार्ग पर पुनः कभी न आने के लिये बाध्य करना कृष्ण चरित की एक महान क्रांतिकारी घटना थी जो आगे चलकर साम्यवादी विचारधारा की प्रेरणास्रोत बनी।
ध्यान रखना होगा कि कृष्ण का साम्यवाद लेनिन-मार्क्स और माओ के साम्यवाद से भिन्न था। आधुनिक साम्यवाद मनुष्य की धार्मिक स्वतंत्रता एवं व्यक्तिगत आध्यात्मिक आस्थाओं, जोकि मानव समाज की अपरिहार्य आवश्यकतायें हैं, का कड़ाई से निषेध करता है। जबकि कृष्ण के साम्यवाद का तो जन्म ही धर्म की प्रबल आस्था के गर्भ से हुआ था।
कृष्ण द्वारा गोपियों के वस्त्र छिपाने व राह घेरने आदि की घटनायें किसी आधुनिक सम्पन्न घर के मनचले किशोर द्वारा किशोरियों को छेड़ने की निन्दनीय व अपवित्र घटनायें न हो कर दलित, शोषित एवं भयभीत प्रजा को विद्रोह केलिये प्रेरित करने की प्रेममय आग्रहकारी घटनायें थीं। कृष्ण अपनी बात मनवाने के लिये आज के आतंकवादियों की तरह गोपियों की हत्या नहीं कर सकते थे। उन्हें समझा सकते थे, समझ में न आने पर उन्हें प्रेम से हटक सकते थे और कंस से भयभीत रहने वाली गोपियों के न मानने पर उनके वस्त्र छिपाने की शरारत कर सकते थे। विवश गोपियों के पास वस्त्र वापस मिलने तक जमुना के जल में ही पड़े रहकर प्रतीक्षा और मिन्नतें करने अतिरिक्त और कोई उपाय न बचता था और इस बीच कृष्ण का उद्देश्य पूर्ण हो जाता। गोपियों को अपने वस्त्र वापस तब प्राप्त हो पाते जब उस दिन मथुरा जाने का समय व्यतीत हो जाता।
कृष्ण तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन चाहते थे किंतु कोई भी सामाजिक क्रांति अनायास नहीं हो जाती। उसके पीछे उत्पीड़न और विरोध की अवशता का एक लम्बा इतिहास हुआ करता है। कृष्ण आजीवन उत्पीड़न और शोषण के विरोध में अकेले ही निर्भय हो संघर्षरत् रहे। लोकहित, सामाजिक न्याय और धर्म की स्थापना उनके लिये सर्वोपरि करणीय उद्देश्य थे। दुर्भाग्य से उस समय कृष्ण साम्यवाद के लिये आवश्यक एवं सक्रिय जनसमर्थन नहीं जुटा पाये जिसके कारण उन्हें बारबार कूटनीति का आश्रय लेने विवश होना पड़ा। उन्होंने न केवल कंस और जरासन्ध जैसे अन्यायियों का वध किया अपितु अपनी धर्मसम्मत साम्यवादी नीतियों तथा बुद्धि कौशल से साम्राज्यवाद तथा विस्तारवाद के विरुद्ध रक्तक्रांति हेतु पाण्डवों को साहस प्रदान करने में निर्णायक भूमिका भी सम्पन्न की।
कृष्ण का साम्यवाद सत्ता के अधिकारों के दुरुपयोग से उत्पन्न मानवीय अन्याय व उत्पीड़न के धरातल पर जन्मा और मानवधर्म से अनुप्राणित हो विकसित हुआ था इसीलिये कृष्ण युग-युगांतर से क्रांति के प्रेरणास्रोत बने हुये हैं। संसार की निस्सारता के दर्शन ने भारतीय जनमानस को दार्शनिक के साथ-साथ सहनशील और भीरु भी बना दिया था। यह अतिवाद था दार्शनिक व्याख्याओं का, ठीक जिस तरह आज भौतिकता का अतिवाद व्याप्त है। महानायक कृष्ण ने जनसामान्य को उसी दार्शनिक भाषा में तर्कपूर्ण उपदेशों में बांधकर उद्वेलित कर दिया। यह उस युग की एक महान घटना थी जो पृथ्वी पर सदा के लिये अमर प्रेरणा का स्रोत बन गयी। दुर्भाग्य से कृष्ण को भले ही मथुरा त्याग कर सौराष्ट्र में समुद्र किनारे द्वारिका बसानी पड़ी पर स्वयं कृष्ण विश्वमानव के लिये अद्भुत् शौर्य व साहस के प्रतीक हो कर स्तुत्य और उनकी नीतियाँ अनुकरणीय बन गयीं । बोलिये चक्रधारी महानायक लीलाधर जू महाराज की जय !
आप व्याख्या में अशक्तता बता रहे हैं डाक्टर साहब, यहाँ टिप्पणी में भी आपकी पोस्ट से लेकर कह रहे हैं -
जवाब देंहटाएं’चक्रधारी महानायक लीलाधर जू महाराज की जय’
कमाल का आलेख है!
जवाब देंहटाएंएक नए ढंग से आपने श्रीकृष्ण जी महाराज को रखा है। बेहद आकर्षक और संग्रहणीय पोस्ट।
डॉक्टर साहब!! अद्भुत है यह विवरण!! क्या कहूँ, चाहकर भी यह सब मैं नहीं लिख पाउँगा!! कुछ लिखा था, बस अब डिलीट!! आत्यंतिक है यह आलेख!!
जवाब देंहटाएंआप सभी का बहुत-बहुत आभार इस उत्साहवर्धन के लिये!
जवाब देंहटाएंनये आने वाले मेहमानों का स्वागत है हमारे जंगल।
अंशु जी! इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ नहीं है जो रहस्यमय नहीं है। मनुष्य ने जब से होश संभाला है वह रहस्य के पीछे भागता रहा है....यह आँखमिचौली अभी तक ज़ारी है।
वो कविता कहाँ है जो अभी अभी मेरे ब्लॉग पे लिख कर आये .....?
जवाब देंहटाएंउस अद्भुत कविता को तुरंत पोस्ट कीजिये ....!!