जिला चिकित्सालय के मुख्य द्वार के ठीक सामने ही है एक ध्वजस्तम्भ जहाँ वर्ष में मात्र दो बार रौनक होती है ...शेष समय उसके पास पड़े बड़े से शिलाखण्ड को आड़ बनाकर मनुष्य नामक प्रजाति के प्राणी मुक्तभाव से मूत्रत्याग करते रहते हैं जिसकी दुर्गन्ध को सुगन्ध की तरह सदा के लिये स्वीकार कर चुके हैं जिला चिकित्सालय में कार्य करने वाले समस्त अधिकारी और कर्मचारी। आज पन्द्रह अगस्त को उसी ध्वजस्तम्भ के पास चिकित्सकों की भीड़ एकत्र हुई। मैंने एक महिला चिकित्सक से पूछा- "आपको बद्बू नहीं लग रही ?" उन्होंने मुस्कुराते हुये किंतु दीनभाव से उत्तर दिया -" लग तो रही है, पर क्या कर सकते हैं ?"
उत्तर सुनकर मैं गद्गद हो गया । वे राग-द्वेश के भाव से परे निर्विकार हो वहीं खड़ी रहीं, उनकी सहनशक्ति स्तुत्य थी किंतु मुझे अपना स्थान परिवर्तन करना पड़ा। थोड़ी ही देर में स्वतंत्रता दिवस की स्मृति में ध्वजारोहण किया गया। ध्वजारोहण से पूर्व अगरबत्ती जलायी गयी। अगरबत्ती की सुगन्ध मानवमूत्र की दुर्गन्ध के साथ मिलकर एकाकार हो गयी। एक आध्यात्मिक संयोग सा उत्पन्न हो गया। मन में दार्शनिक भाव उत्पन्न होने लगे कि इस नश्वर संसार में जो कुछ भी दृष्टव्य है वह सब एक ही शक्ति का भिन्न-भिन्न स्वरूप है। अस्तु, मूत्र की इस दुर्गन्ध और अगरबत्ती की सुगन्ध में तात्विक रूप से कोई अंतर नहीं है। मैंने उन महिला चिकित्सक जी को मन ही मन अपना गुरु स्वीकार किया ।
इस ज्ञान की उपलब्धि में स्वतंत्रभारत के स्वतंत्र नागरिकों के कृत्य को हेतु मानते हुये मैं उनका ऋणी हूँ । हे नगरवासियो ! आप धन्य हैं कि आपके इस मूत्रत्याग कर्म के कारण आज मुझे तत्वज्ञान हो पा रहा है । हे नगरश्रेष्ठो ! प्रतिदिन यहाँ पधारो और मूत्र त्याग के साथ-साथ मल त्याग भी करो जिससे हमारे मन में उठे दार्शनिक भाव स्थिर रूप से बने रहें और हम साधना के पथ पर निरंतर अग्रसर होते रहें।
संयोग की बात है कि लख़नऊ की कुमारी ऐश्वर्या पाराशर की तरह मुझे भी आज ही पता चला कि स्वतंत्रता दिवस, स्वाधीनता दिवस और गांधी जयंती भारत के राष्ट्रीयपर्व नहीं हैं। कोई बात नहीं, राष्ट्रीयपर्व न सही राष्ट्रीय कर्तव्य तो किये ही जा सकते हैं अस्तु, इन पर्वों के सुअवसर पर 65 वर्ष पूर्व प्राप्त हुई स्वतंत्रता का निर्लिप्त भाव से प्रयोग करना नगर के मानवश्रेष्ठों का राष्ट्रीय कर्तव्य है। अच्छे-अच्छे महत्वपूर्ण स्थानों, यथा- जिला चिकित्सालय के मुख्यद्वार के सामने , रेलवे स्टेशन या बस स्टैण्ड के आसपास, किसी पाठशाला की दीवार के पास या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर उन्मुक्त भाव से मल-मूत्र विसर्जन करना हमारा राष्ट्रीयधर्म है। देश के प्रत्येक चिकित्सालय के अन्दर के प्रत्येक कमरे के कोनों में यहाँ तक कि ऑपरेशन थियेटर के सामने भी पान को रौंथकर या पान न मिले तो गुटखे की गालर करते हुये थूक देने से उत्तम राष्ट्रभक्ति प्रदर्शित करने का और कोई उपाय नहीं है। हे नगरश्रेष्ठो ! चिकित्सालय की सीढियों पर, इनडोर की दीवारों और कोनों पर थूकना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह सब पुण्य कर्म इसलिये क्योंकि अब हम आज़ाद हैं ।
राष्ट्रीयधर्म के बारे में, एक राष्ट्रीय स्तर की चिंतक-विचारक-पत्रकार और लेखिका मृणाल पाण्डे ने भी आज के दैनिक भास्कर समाचार पत्र में प्रकाशित "नए दौर की अगस्त (अ)क्रांति" नामक अपने लेख में एक महत्वपूर्ण बात लिखी है। उनके अनुसार देश में गरीबी है, असम हिंसा है, नदियों में उफनता वारिश का पानी है जो बेकाबू होकर तबाही मचा रहा है, कम्पनियों (शायद बहुराष्ट्रीय) के तिमाही नतीज़ों में चिंताजनक गिरावट है, सैनिकों में हताशा और अनुशासनहीनता की प्रवृत्ति है पर लोग हैं कि राष्ट्रीय महत्व की इन समस्याओं की उपेक्षा कर लोकपाल बिल लाने और काले धन की वापसी जैसे महत्वहीन विषयों को लेकर "भारत माता की जय" और "इंकलाब ज़िन्दाबाद" जैसे चिरपुरातन नारे लगाते हुये अपना समय नष्ट कर रहे हैं। उन्होंने प्रश्न किया है कि इन मांगों से उपरोक्त राष्ट्रीय महत्व की विकराल समस्याओं का हल कैसे निकलेगा ?
मृणाल जी की चिंता राष्ट्रीय महत्व की है, इसके पीछे राष्ट्रधर्म की प्रेरणा कुलबुला रही है। भूखे को रोटी मिलना चाहिये, गेहूँ न होने की समस्या के समाधान की मांग से बेचारे किसी भूखे की भूख कैसे ख़त्म होगी ? लोकपाल बिल लाने से केवल भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। और भ्रष्टाचार जैसे महत्वहीन विषय पर अड़े रहने से वारिश के पानी के उफान से क्या सम्बन्ध? कल-कारखानों से निकल कर नदियों में गिरने वाले दूषित पानी से होने वाले प्रदूषण का भला भ्रष्टाचार से क्या सम्बन्ध ? कम्पनियों को घाटा होना राष्ट्रीय चिंता का विषय है इसके लिये जन आन्दोलन होना चाहिये। पर कितने दुःख की बात है कि इस देश की आमजनता उद्योगपतियों को हो रहे घाटे के प्रति लेश भी चिंतित नहीं हैं, उसने अभी तक इस अत्यंत महत्वपूर्ण राष्ट्रीयमहत्व की ज्वलंत समस्या के लिये कोई "स्वस्फूर्त" राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं किया है।
मृणाल जी केवल चिंतक और पत्रकार ही नहीं हैं बल्कि एक साहित्यकार भी हैं, अस्तु उनका चिंतन अद्भुत् है। अब अन्ना और बाबा को चाहिये कि वे लोकपाल बिल और कालेधन की वापसी जैसे महत्वहीन विषयों से हटकर उद्योगपतियों को हो रहे घाटे के लिये चिंतित हों और एक राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ करें जिससे कि देश के सारे संकटों का एक निर्दुष्ट समाधान प्राप्त हो सके और उद्योगपति पहले से भी अधिक अमीर बन सकें । मृणाल जी को उनके अद्भुत् चिंतन के लिये सादर नमन !
बात दैनिक समाचार पत्र "दैनिक भास्कर" की चली है तो मुझे यह बताने में प्रसन्नता हो रही है कि आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक भास्कर ने अपने मुखपृष्ठ पर यह प्रकाशित कर कि "चाहिये सरकार की धीमी गति से आज़ादी" राष्ट्र को नये चिंतन की दिशा में निर्भय होकर सोचने के लिये प्रेरणा देने का कार्य किया है। आज़ादी की इस मांग में कहीं किसी पराधीनता की ध्वनि है ...यह उद्घोषणा भी है कि अब पर्व की परम्परा निभाने की अपेक्षा सच्चे मन से चिंतन करने का समय आ गया है कि अब लोग आज़ादी के अस्तित्व पर नये सिरे से चिंतन करें।
और अंत में ....हीर जी के आदेश पर वह कविता जो मैंने थोड़ी देर पहले उनकी एक ताज़ी कविता पर टिप्पणी के रूप में लिखी थी
मैंने जब भी देखा
वो मुझे
जार-जार रोती मिली ।
जब भी पूछा
कि आख़िर हुआ क्या?
वो मारे डर के ख़ामोश हो जाती।
एक दिन मैंने कहा
डरो मत, कुछ तो बोलो
वो बड़ी मुश्किल से बोल पाई
सिर्फ़ इतना
...
कि मैं
जेल से निकल कर
हर घर में क़ैद हो गई हूँ
जहाँ एक अदद जेलर होता है
और होते हैं
उसके दिये कुछ बच्चे
जिनकी गुलामी में
मैं
ताज़िन्दगी
बा-मशक्कत
सज़ा भोगती हूँ
ना जाने किस अपराध की।
मैंने पूछा-
....लेकिन तुम्हारी वर्दी पर
कहीं क़ैदी नम्बर तो लिखा नहीं
कैसे मान लूँ
कि तुम क़ैद हो ?
वो बोली-
यह भी मेरी सज़ा का एक हिस्सा है
कि मुझे नम्बर से नहीं
मेरे नाम से पुकारा जायेगा
मैं इस मुल्क की "आज़ादी" हूँ।
पोस्ट पढ़ना शुरू किया तो 'राग दरबारी' की झलक दिखने लगी थी| बाई द वे, अखबार का जिक्र भी आया है तो एक सवाल कौंध रहा है, कौन सा अखबार है जो 'राग दरबार' नहीं गाता?
जवाब देंहटाएंहे संजय! आपका कथन सत्य है। अख़बार तो अख़बार हैं ..हमारे चिंतक-विचारक और साहित्यकार भी महान हैं। मृणाल जी का चिंतन प्रत्यक्ष उदाहरण है।
हटाएंसञ्जय जी,
हटाएंमुझे भी इस आलेख की शैली से श्रीलाल शुक्ल और बालमुकुन्द गुप्त दोनों याद हो आये....
कौशलेन्द्र जी की व्यंग्य शैली भी लाजवाब है. अंत में प्रतिक्रिया स्वरुप दी गयी भाव कविता भी सीधे अंतर में प्रवेश करती है.
सम्वेदनाएं खत्म हो गई है लोगों में, इसीलिए निर्विकार जड़वत रहते है।
जवाब देंहटाएंकविता मर्मस्पर्शी है।
ख़त्म हो गई संवेदनाओं के भरोसे कैसे कोई अन्ना या कोई बाबा इतने बड़े क्रांतिकारी जनान्दोलनों को सफल बना सकेगा? इस देश में अभी तक लोकतंत्र शासन व्यवस्था के लायक जनता की मानसिकता का निर्माण ही नहीं हो सका है।
हटाएंआपकी लेखनी को नमन ....
जवाब देंहटाएंहम आज़ाद हैं कहीं भी मलमूत्र विसर्जन के लिए ...बस यही तो आज़ादी है हमें ....
बहुत ही तीखा व्यंग ....
आप किसी समाचार पत्र का कालम क्यों नहीं लिखते ...?
गज़ब की शक्ति है आपकी कलम में ....
एक और पत्रिका का संपादन कर रही हूँ ....
आपका ये आलेख लिए जा रही हूँ ....
आपसे भी गुजारिश है अच्छी सामग्री हो तो भेजें ....
ब्लॉग पर आधारित अंक है ....
आदरणीय हीर जी! हम दोनो लेखनियों को एक-दूसरे को नमन करने देते हैं, चलिये हम और आप कहीं आज़ादी खोजने चलते हैं।
हटाएंहे देवी! हमारे इस चिट्ठे को तो पाठक मिल नहीं पाते किसी समाचार-पत्र के कालम को कौन पढ़ेगा?
देश आज़ाद है और आप स्वतंत्र हैं, आलेख ही नहीं आप तो ये पूरा ब्लॉग ही ले जाइये न! रोका किसने हैं?
अच्छी सामग्री भेजने का प्रयास करूँगा। आपका हुकुम सर आँखों पर चढ़ा जो रहता है :)
आचार्य जी,
हटाएंयह आपका ग़लत अनुमान है कि आपके चिट्ठे को पाठक नहीं मिलते ... सत्य जबकि यह है कि पाठक कुछ कहने लायक नहीं रहते... इसलिये टिप्पणियाँ कम होती हैं. अन्यथा
आपके चिट्ठे 'शिवशम्भू के चिट्ठों' से कमतर नहीं हैं.
जहाँ हरकीरत जी के लेखन में बारीकी के दर्शन होते हैं... वहीं आपका लेखन अपनी साहित्यिकता को पलभर भी नहीं छोड़ता. व्यंग्य उच्च कोटि का होता है ... हतप्रभ होता हूँ आपको पढ़कर.
आध्यात्म हो या दर्शन, मनोविज्ञान हो अथवा चिकित्सा विज्ञान जो भी विषय आप चुनते हैं... लेखन में समग्र चिंतन मिलता है.
प्रतुल भाई! यह तो आदरणीया हीर जी के साथ नोक-झोंक का प्रयास कर रहा था ...पर अफ़सोस कि केवल नोक ही हो पाई झोंक नहीं। हीर जी बहुत गम्भीर हैं, दूरभाष पर भी कभी चर्चा होती है तो मात्र "हूँ"(पूरा "हाँ" भी नहीं)भर सुनने को मिलता है। गनीमत है कि लिखने में कंजूसी नहीं करती, वरना दुनिया दर्द की महक से वंचित रह जाती।
हटाएंवो स्थान निश्चय ही जिला अस्पताल के आधिपत्य का प्रतीत होता है ! उम्मीद है कि आपने मुख्य चिकित्सा अधिकारी को अपना विरोध दर्ज करा दिया होगा !
जवाब देंहटाएंअली साहब! अब आप मेरा मुँह मत खुलवाइये, मुख्य द्वार पर हो रहे सार्वजनिक मूत्रविसर्जन से उठने वाली सुगन्ध निरंतर नृत्य-गायन करती हुई दिग्दिगांत में अपने अस्तित्व की उद्घोषणा स्वयं ही करती रहती है। मुख्य चिकित्साधिकारी कहाँ लगते हैं ? उनसे भी 'बड्डे-बड्डे' आला अफ़सरान इस उद्घोषणा को अपनी समस्त इन्द्रियों से अनुभव करते हुये ...आत्मसात करते हुये प्रायः आवागमन करते रहते हैं। ख़ुशियाँ मनाइये कि हमारा देश परमहंस हो गया है।
हटाएंबड़े अधिकारी वगैरह का रवैया तो समझा ! मगर शुरुवात कहीं , किसी पॉइंट से तो हो !
हटाएं"नहीं पराग नहीं मधुर मधु, मुत्रित गंधित द्वार.
हटाएंअली गली से निकल परयौ, गलती नहीं हमार."
* अली मतलब आला अफसर से लें
कौशलेन्द्र जी ,
हटाएंमैंने टिप्पणी की थी कि शुरुवात कहीं से तो होनी चाहिए ! शायद स्पैम में चली गयी होगी !
अली साहब! शुरुआत करने में बस एक ही कमी रह गई है कि वहाँ रोज पानी डालकर स्वयं सफ़ाई नहीं कर रहा हूँ । अब एक और किस्सा सुना जाय -
हटाएंएक बार एक कलेक्टर साहब का हुक़्म हुआ कि शहर के सभी प्रथम और द्वितीय श्रेणी अधिकारियों को एक तालाब की सफ़ाई और गहरीकरण के लिये श्रमदान करना है। हुक़्म था तो अपने हॉस्पिटल के डॉक्टर्स के साथ श्रमदान के लिये हम भी पहुँचे, लगभग दो घंटे फावड़ा चलाया। थोड़ी देर बाद कलेक्टर साहब भी आ गये उन्होंने भी मिट्टी खोदने की मुद्रा में फ़ावड़ा ऊपर उठाया और जैसे ही मिट्टी खोदने के लिये नीचे लाये कि तुरंत कई कैमरों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। दौड़ कर एक कारिन्दे ने उन्हें मिनरल वाटर की बोतल थमाई, गोया कोई हादसा हो गया हो, उन्होंने गला तर किया और फ़ुर्र....। अगले दिन के अख़बार में मिट्टी खोदते हुये सिर्फ़ वे ही दिखाई दिये।
जिस वक़्त हम लोग फावड़ा चला रहे थे उस समय उस मोहल्ले के लोग आसपास खड़े हो कर तमाशा देख रहे थे। अगले दिन मैंने देखा कि तालाब के किनारे बिलकुल ताज़े कचरे की एक खेप फिर हम लोगों की प्रतीक्षा कर रही थी।
महान(?) साहित्यकार मृणाल पाण्डेय भी उसी तरह की महान हैं... जैसे कि वर्तमान में बने नकली हस्ताक्षरों के सरताज महामहिम पोल्टू उर्फ़ पालतू.
जवाब देंहटाएंबहुतों को बहुत सी चीज़े विरासत में मिलती हैं... और बहुतों को चाटुकारिता से.
मृणाल जी "वंस अपान अ टाइम देयर वाज अ किंग" वाले ज़माने से दूरदर्शन पर अपने अनुपम विचारों से देश का कल्याण करती आ रही हैं। यदाकदा समाचार पत्रों में प्रकाशित उनके आलेखों से भी हिन्दी भाषी हिन्दुस्तान लाभान्वित होता रहा है इसलिये उनके लिये "महान" विशेषण का प्रयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ा है।
हटाएंजब 'मृणाल जी' दैनिक हिन्दुस्तान में थीं तब उनके 'सम्पादकीय' पढ़े थे ... आज उनके विषय में दो बातें तो कह ही सकता हूँ.
जवाब देंहटाएं- सकारात्मक लेखन में हल्कापन होता है... वाक्य-विन्यासों से बहुत मुश्किल से अर्थ ग्रहण होता है.
- धारा के विपरीत लेखन में दो बातें झलकती हैं... पहली ये कि वे अपनी इस चाटुकारिता से 'दूरदर्शन की चर्चाओं' में अवसर बनाती हैं. दूसरी ये कि वे इस तरह बौद्धिक वर्ग में चर्चित रहने के कारण सुरक्षित बनी रहती हैं.
कलियुग के वर्तमान चरण में ये सारे लक्षण उन महान चिंतकों, विचारकों और साहित्यकारों के हैं जो लक्ष्यभेदी सफलता प्राप्त करने में प्रवीण होते हैं।
हटाएंडॉक्टर साहब,
जवाब देंहटाएंराग दरबारी, एनिमल फ़ार्म, १९८४ और कितना कुछ.. आपकी कविता और आपके आलेख हमेशा मुझे स्तब्ध करते हैं, और यह उसी की एक कड़ी है.. आपकी एक टिप्पणी पर हमारी आपत्ति दर्ज़ की जाए कि हमें पाठक नहीं मिलते.. आपको तो पता है कि शाबाश, वाह, अद्भुत, कमाल जैसी टिप्पणियों की भरमार से तो यही बेहतर है संजय, सुज्ञ जी, प्रतुल जी, अली सा और अंत में कहीं मेरे जैसे दो चार पाठक मिल जाएँ तो लेखन सार्थक हुआ.. (कमेंट्स और पाठकों के) गणित से साहित्य की दर्ज़ा कम/ज़्यादा नहीं होता...!!
सलिल भइया जी! हम राउर के बतिया से अकदम सहमत बानी। हमरा के ढेर गो टिप्पणी ना, अइसनहीं विद्वत्मण्डली के ज़रूरत बा। हम खुस बानी, हमार लिखल सन्देसा उचित स्थान पर पहुँच रहल बा। हम आपन लक्ष्य के तरफ़ बढ़ रहल बानी ।
हटाएंवाह वाह वाह .....!!
जवाब देंहटाएंयहाँ तो तमाम गुरु जी पधारे हुए हैं जिनसे हम अक्सर छिपते बचते रहते हैं .....:))
गुरु जी नमन ....!!
हम गंगा माई के किरिया खाके सच्ची-सच्ची कह रहे हैं के जब आप लिखती हैं तो हमको बड़ा आस्चर्ज होता है के चुप रहे बाला परानी अतना लिखने से पहिले केतना घण्टा सोचा होगा!
हटाएंआपको पढ़ते हुये “शिवपालगंज” की याद आ गई...
जवाब देंहटाएंवैसा ही सच्चा और माईनर आबजरवेसन...
बहुत मार्मिक रचना के साथ एक बहुमूल्य पोस्ट...
सादर साधुवाद स्वीकारें।
अच्छा है 'शिवपालगंज' की याद आयी... 'शिवपाल' की नहीं.
हटाएं.......... मुझे लग रहा था... 'जबान फिसलने का रूपक सूझ गया है आपको'
पीडब्लूडी' मिनिस्टर 'शिवपाल यादव'... वास्तव में गंजेड़ी ही लगते हैं.
स्व. श्रीलाल जी यदि 'रागदरबारी' का पार्ट-२ लिखते तो जरूर उन्हें याद रखते.
हबीब भाई ! राग दरबारी तो कालजयी रचना हो गयी है। आपको शिवपालगंज की याद आयी तो यह आपका बड़प्पन ही कहा जायेगा।
हटाएंबहुत बार मन होता है
जवाब देंहटाएंवो ही लिख दूँ
जो दिख रहा है
पर लिख नहीं पाता हूँ
शरमा जाता हूँ
फिर उसी चीज से मिलता
जुलता शब्द ढूँढ के लाता हूँ
उसकी अगरबत्ती बनाता हूँ
आप तो गजब कर जाते हैं
वैसा का वैसा दिखा जाते हैं
जय हो !
शरमाइये मत सुशील जी! लिख ही डालिये अब सब कुछ।
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