यूँ ही नहीं
था
ये चमन
मुरझाया।
किसी ने
लक्ष्मी को
तो किसी ने
मौत को गले लगाया।
गवाह एक-दो
नहीं
थी पूरी बस्ती
मगर अफसोस
कि लोगों के
मुहों में
आजकल जीभ नहीं
होती
अगर होती
तो ये संसद
यूँ बदनाम न
रोज होती।
समाचार है कि किले की सर्पिणी हज़म कर
गयी अपने ही मासूम बच्चे। यह कैग की रिपोर्ट है जिसे पेश किया गया है भारत की संसद
में, यह कहते हुये कि सरकार ने डुबोये देश के
1.86 लाख करोड़ रुपये। यह रकम इससे ज्यादा भी
हो सकती है क्योंकि यह गणना सिर्फ़ सन् 2004 से लेकर 2009 तक के मध्य की
है। सरकार ने कोल ब्लॉक बांट दिये उन्हें जो पहले से ही लक्ष्मी पुत्र थे। इन
ब्लॉक्स की अगर नीलामी हुई होती तो देश के हर आदमी को उसका हक़ मिला होता। जो पैसा
देश की जनता की भलाई में लगना चाहिये था ...जिस पर पूरे देश का हक़ था वो पैसा कुछ ख़ास
लोगों की तिज़ोरी में कैद हो चुका है। लक्ष्मी को लूटने वाले ये लुटेरे ही शायद असली
हक़दार थे इसके क्योंकि मात्र वे ही भारतवासी रहे होंगे बाकी शायद शरणार्थी हैं
जिन्हें इस हक़ पर कोई हक़ नहीं। कुल मिलाकर अमीर और अमीर हुये, ग़रीब और भी
गरीब हुये। कम से कम वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था ने तो देश के गरीबों की
जन्मकुण्डली में यही लिख दिया है। कहा यह भी गया है कि इस बीच एक महान
अर्थशास्त्री के पास कोयला मंत्रालय की बादशाहत थी।...मगर दुनिया जानती है कि
उन्हें इन सब चीज़ों के बारे कभी कुछ पता नहीं रहता। शेर को नहीं पता कि उसकी माँद
में आकर आख़िर शिकार किया किसने ? यह बालसुलभ भोलापन भारतीय राजनीति का एक
ऐसा ऐतिहासिक गुण बन चुका है जिसका उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
इधर बस्तर के धुर नक्सली क्षेत्र के
नारायणपुर जिले के एक इंजीनियर ने कुछ ही दिन पहले आत्महत्या कर ली। इसी जिले का
एक क्षेत्र है अबूझमाड़, जहाँ की विषम परिस्थितियों और नक्सली
आतंक के बीच रहने के लिये विवश हैं लोग। हमारी भ्रष्ट व्यवस्था से प्रताड़ित उस
इंजीनियर को ज़िन्दगी की अपेक्षा मृत्यु कहीं अधिक सहज लगी। मैं मानता हूँ जब भी
कभी इस तरह की कोई घटना होती है तो उसके लिये हम सब ज़िम्मेदार होते हैं...पूरा देश गुनहगार होता है...क्योंकि पूरा देश इस पूरे वाकये का एक मूक दर्शक बना
रहता है। ज़िन्दगी की अपेक्षा जब मृत्यु को सहज मान लिया जाय तो प्रश्न पूरी
व्यवस्था पर उठते हैं कि संविधान प्रदत्त हमारे अधिकार भी हमें ज़िन्दगी जीने की
राह दिखाने में समर्थ नहीं हैं। वैज्ञानिकों, पुलिस अधिकारियों और इंजीनियर जैसे उच्चशिक्षितों
को अगर आत्महत्या करनी पड़ती है तो सवाल सीधे-सीधे व्यवस्था के मालिकों से होना चाहिये।
ज़िन्दगी और मौत में किसी एक को चुनने का
फ़ैसला इतना आसान नहीं हुआ करता। इस फ़ैसले के बीच न जाने कितनी बार ज़िन्दगी और मौत को
क़रीब से देखना पड़ता है। कुछ लोग ज़िन्दगी से उम्मीद लगाये रहते हैं और जीने का फ़ैसला
करके जीवन भर मरने के लिये बाध्य रहते हैं। इन्हीं में हैं वे लोग भी जो पिछले कुछ
दिनों से मौत से भयभीत हो ज़िन्दगी बचाने के लिये भारत के विभिन्न शहरों से अपने
प्रांत असम की ओर वापस भागे जाने के लिये विवश हुये हैं। न जाने क्या हो
रहा है कि एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों को विदेशी मानने लगे हैं और भारत
के लोग भारत में ही बेगाने होने लगे हैं। राष्ट्रप्रेम के लक्षण कहीं दिखाई नहीं देते।
शायद हम अपने-अपने दिलों में और अपने-अपने इरादों में कबीला तंत्र के बीज बोते जा रहे
हैं। काश! सूरज इतना तपता...इतना तपता कि ये बीज झुलस के ख़ाक हो जाते।
कौड़ी कौड़ी बेंचते, झारखंड का माल ।
जवाब देंहटाएंबाशिंदे कंगाल है, पूछे मौत सवाल ।
पूछे मौत सवाल, आज ही क्या आ जाऊं ?
पल पल देते टाल, हाल क्या तुम्हें बताऊँ?
डूब मरे सरकार, घुटाले करके भारी ।
होते हम तैयार, रखो तुम भी तैयारी ।।
http://bastarkiabhivyakti.blogspot.in/2012/08/blog-post_19.html
वाह-वाह सब कर रहे,क्या कहने सरकार
हटाएंकुण्डलियाँ ये आपकी करती हैं आघात।
करती हैं आघात, मगर बेशर्मी देखो
घोटाले पे घोटाले सब करते देखो।
डॉक्टर साहब... हम भावुक लोगों की यही व्यथा है.. एक बार ऐसे ही किसी अवसर पर मैंने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी से पूछा था कि आपको प्रोन्नति प्रदान किये जाने के पूर्व, क्या आपके ह्रदय की शल्य-चिकित्सा हुई थी, क्योंकि मुझे लगता है कि वहाँ से ह्रदय निकालकर एक रुपये का सिक्का लगा दिया है. सत्तारूढ़ अ-नेतागण या कु-नेतागण अब इतनी मोटी खाल ओढाकर बैठे हैं कि हमारी बातों के शूल उनके पैसों की खुजली को आराम ही पहुंचाते हैं!!
जवाब देंहटाएंइसीलिये कई बार हम यह सोचने के लिये विवश होते हैं कि आख़िर ऐसा क्या है आर्यों की संतति में जिस पर हम गर्व कर सकें।
हटाएंजब हम निरूपाय हो जाते तो 'काश' कहकर अपने मन को सांत्वना देते हैं. समाज, सरकार, मनुष्य, मानसिकता, भ्रष्टाचार, भूख, गरीबी, बेकारी, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयतावाद, इत्यादि इत्यादि मसले अब समझ से परे लगते हैं. हर आदमी पीड़ित है और हर आदमी स्वयं को छोड़ सभी को दोषी मानता. बस यही एक शब्द निकलता ''काश...''.
जवाब देंहटाएंजेन्नी जी! बिल्कुल सही कहा आपने... हर व्यक्ति स्वयं को छोड़कर शेष सभी को दोषी सिद्ध करने में लगा है। प्राचीन भारत की यह विशेषता रही है कि जब-जब राजा अत्याचारी हुये हैं तब-तब आमजनता ने राजसत्ता को उखाड़ फेकने का प्रयास किया। आज यह सम्भव नहीं है क्योंकि आमजनता भी भ्रष्ट हो चुकी है...हम सब भ्रष्ट हो चुके हैं। सारे 'वाद' संघर्ष को बनाये रखने के लिये हैं...क्योंकि आमजनता के आपसी संघर्ष ही राजसत्ताओं के लिये प्राणवायु का काम करते हैं। जब तक हम सत्ताओं के लिये प्राणवायु बने रहेंगे स्थिति बद से बदतर होती जायेगी। भ्रष्टाचार के विरोध में बोलने वाला अन्ना दल टूट चुका है और अब बिखरने के कगार पर है। देश और समाज नेतृत्व विहीन हो गया है... ऐसी ही प्रतिकूल स्थितियों में विदेशी शासकों के लिये भारत की सत्ता हथियाने के अनुकूल अवसर निर्मित होते रहे हैं। वालमार्ट आने वाला है...ईस्ट इंडिया कम्पनी का इतिहास दोहराया जा रहा है।
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