रविवार, 20 जनवरी 2013

दामिनी की प्रतीक्षा ...


   ब्रिटेन के सरकारी आँकड़े बताते हैं कि वेल्स और इंग्लैण्ड में यौनदुष्कर्मों की घटनायें भारत की अपेक्षा द्विगुणित हैं। अमरीकी देशों का हाल भी ऐसा ही है। यह तुलना दोषों या अपराधों की भयावहता को कम नहीं करती। यह तुलना शासन-व्यवस्था और समाज के दोषों के अध्ययन और विश्लेषण के लिये एक तुलनात्मक आधार प्रस्तुत करती है। सबसे बुरी स्थिति अफ़्रीकी देशों की है जहाँ यौनदुष्कर्म को स्त्रियों ने अपनी नियति स्वीकार कर लिया है; किसी भी समाज के लिये यह विवश स्वीकृति न केवल निन्दनीय है अपितु घातक भी। विकसित होते समाज की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी यौनदुष्कर्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती। क्या हम यह मान लें कि यौनदुष्कर्म की प्रवृत्ति का वैश्वीकरण हो चुका है?
   मानव सभ्यता के लिये इस निरंकुश और व्यापक होते जा रहे कलंक के सामने भौतिक उपलब्धियों की उपादेयता हमारी सम्पूर्ण प्रगति के लिये एक बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है। यांत्रिक विकास ने मनुष्यता को बहुत पीछे धकेल दिया है। यौनदुष्कर्मों में होने वाली नृशंसता मन-मस्तिष्क को कंपा देने  वाली है। इससे भी बड़ी त्रासदी है इन अपराधों की प्रवृत्ति के आगे व्यवस्थाओं का निरुपाय होना। ...जो उपाय हैं भी वे किसी  आशा का संचार नहीं करते प्रत्युत असंतोष और आक्रोश ही उत्पन्न करते हैं।
   आज हम यह विचार मंथन करने के लिये विवश हुये हैं कि क्या भौतिक विकास ने हमें असभ्यता और नृशंसता की ओर ढकेल दिया है जिसके कारण विश्व की आधी जनसंख्या के साथ कभी भी यौनदुष्कर्म की घटना घटित होने की आशंका बन गयी है। ब्रह्माण्ड में किसी दूसरी सभ्यता की उपस्थिति के लिये होने वाले अनुसन्धानों पर बेशुमार व्यय की जाने वाली धनराशि में उनका भी आर्थिक योगदान होता है जो यौनदुष्कर्म से पीड़ित होती हैं। क्या इस धनराशि का उपयोग धरती की आधी जनसंख्या की सुरक्षा के लिये नहीं किया जाना चाहिये? हम अपनी आधी दुनिया की तो सुरक्षा कर नहीं पा रहे और लगे हैं दूसरी दुनिया की सभ्यता की खोज में ...क्या इसलिये कि हम अपनी अपसंस्कृति का विस्तार वहाँ तक भी कर सकें? कल्पना कीजिये कि हम ब्रह्माण्ड में किसी अन्य मानव सभ्यता की खोज कर लेने में सफल हो जाते हैं। दोनों सभ्यताओं के लोग अपनी-अपनी सभ्यताओं के आदान-प्रदान के लिये एक प्रकल्प तैयार करने की योजना बनाते हैं। धरती के लोग हमारी सभ्यता की किन-किन बातों को छिपायेंगे और क्या-क्या प्रकाशित करेंगे? क्या वे यह बता सकने की स्थिति में होंगे कि धरती की आधी जनसंख्या असुरक्षित वातावरण में अपमानजनक जीवन जीने के लिये बाध्य है जबकि शेष आधी जनसंख्या के लोग ही इन सारी स्थितियों के लिये उत्तरदायी हैं?
   क्या हम यह मान कर चलें कि पुरुष की आदिम प्रवृत्ति आक्रामक है जो अपने ही समाज के अर्धांश के अस्तित्व के लिये चुनौती बन चुकी है? क्या यह पुरुष की वह प्रवृत्ति है जो हिंसा और पीड़ा में आनन्द के चरम को देख रही है। क्या यह पुरुष की वह प्रवृत्ति है जो निरंकुश होने में विश्वास रखती है। क्या यह पुरुष की वह प्रवृत्ति है जिसने उसे निर्लज्ज और निर्भय बना दिया है? क्या यह पुरुष की वह प्रवृत्ति है जो अपनी दुष्टता और क्रूरता से गौरवान्वित होती है? आख़िर क्यों आधी दुनिया उपेक्षित और अपमानित है और शेष आधी दुनिया या तो दुष्टता से मुस्करा रही है या फिर घड़ियाली आँसू बहा रही है?           
    मनुष्य अपनी शैशवावस्था में ईश्वर का प्रतिरूप सा होता है निर्दोष। बाल्यावस्था में आते ही सतोगुण के कारण भेद, रजोगुण के कारण लोभ और तमोगुण के कारण आक्रमण करना सीख जाता है। ये ही प्रवृत्तियाँ तो पशुओं में भी देखते हैं हम, फिर वह क्या है जो मनुष्य को हिंस्रपशु से पृथक करता है?  जो पृथक करता है वह है सभी प्राणियों के प्रति हमारी संवेदना और उनके प्रति कल्याण की भावना का होना। इस संवेदना और सर्वकल्याणकारी मानवीय गुण की कोटि सभी में एक जैसी न होना हमारी समस्याओं का मूल है। समाज और शासन की व्यवस्था का औचित्य यहीं से प्रारम्भ होता है। आज औचित्य समाप्त हो गया केवल समाज रह गया और व्यवस्था रह गयी, वह भी ....अपनी सम्पूर्ण विकृतियों के साथ। तो क्या यह पुनरीक्षण किसी बड़ी क्रांति के औचित्य पर विचार करने का अवसर है? हाँ, है ....यह अवसर आ गया है।
   समय-समय पर विभिन्न देशों के समाज ने अपने यहाँ इस तरह की क्रांतियाँ की हैं, दुर्भाग्य से ऐसी क्रांतियाँ व्यापक नहीं हो सकीं और समस्या बनी ही रही।
   मैं यह मानता हूँ कि समाज के भीतर एक निश्चित क्रांति और परिमार्जन की धारा निरंतर चलती रहनी चाहिये। इस धारा के अभाव में समाज में सड़ाँध उत्पन्न होने लगती है। स्त्रियों की स्थिति को लेकर पूरे विश्व में उठ रही सड़ाँध को समाप्त करने के लिये हमें सामाजिक सुधार करने होंगे। मेरी प्राथमिकताओं में प्रथम क्रम पर है स्त्री के प्रति सम्मान का भाव हृदय में निरंतर बनाये रखना। उत्तर-प्रदेश के अवधमण्डल की एक सामाजिक प्रथा अनुकरणीय है। वहाँ के पुरुष नवजात कन्या शिशु से लेकर (अपनी पत्नी को छोड़कर) अंतिम साँसे गिन रही वृद्धा तक के आदर के साथ चरणस्पर्श करते हैं। यहाँ उम्र की सीमा कोई अर्थ नहीं रखती, बस स्त्री होना ही पर्याप्त है। ऐसे संस्कार को क्या हमें अपने पूरे देश में व्यापक नहीं बनाना चाहिये? मैं यह नहीं कहता कि इससे यौनदुष्कर्म समाप्त हो जायेंगे किंतु यौनदुष्कर्म की घटनाओं में कमी होगी ...यह निश्चित है। यह एक भावनात्मक स्थिति है जो स्त्रियों के प्रति हमारे उपभोगवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकती है, बशर्ते भावना अपने शुद्ध रूप में भावना हो भावना का पाखण्ड नहीं। छत्तीसगढ़ में ऐसी परम्परा नहीं है, किंतु एक दिन जब मैंने अपनी महिला फ़ॉर्मासिस्ट से इस बात की चर्चा की और इससे होने वाले वैचारिक परिवर्तन के परिणामों पर प्रकाश डाला तो उन्होंने तुरंत प्रतिज्ञा की कि वे अपने घर की परम्परा में परिवर्तन करेंगी। वे उस दिन अपनी छह माह की बच्ची को टीका लगवाने लायी थीं। जब मैंने कहा कि परम्परा के अनुसार कन्यादान के समय आप कन्या के पाँव पूजते हैं, नवरात्रि के दिनों में उसे शक्ति का प्रतिरूप मानकर उसके चरणस्पर्श करते हैं तो शेष दिनों में इसके विपरीत आचरण क्यों? तब उन्होंने भावुक होकर अपनी बच्ची को सीने से लगा लिया और कहा कि वे अपनी बच्ची को किसी पुरुष के पैर नहीं छूने देंगी।  
   दूसरी प्राथमिकता है यौनदुष्कर्म की घटनाओं को रोकने के लिये सामूहिक प्रयास। हमें अन्याय का विरोध करने के लिये साहस जुटाना होगा, हमें खुलकर सामने आना होगा। हमें कानूनी प्रक्रिया में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। पुलिस की अन्यायपूर्ण परेशानियों से बचने के लिये सामूहिक एक-जुटता बनाये रखनी होगी। ध्यान रहे कि पुलिस कानून से ऊपर नहीं है, जो भी अन्याय करे हमें उसके विरुद्ध न्यायिक संघर्ष छेड़ देना होगा। यह भी ध्यान रहे कि पुलिस विभाग के लोग इसी समाज के भाग हैं, मानवीय भावनायें और संवेदनायें उनके अन्दर भी जगाने का काम हमें ही करना है। पुलिस और नागरिकों के मध्य एक समझ विकसित करनी होगी। पुलिस के आततायी स्वरूप को समाप्त करने के लिये पूरी तरह शासन पर ही निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं।
   हमें समाज और व्यवस्था की विभिन्न कड़ियों को भी समझने की आवश्यकता है। जब कोई शासन अपने उत्तरदायित्वों को पूरा कर सकने में असफल हो जाय उस समय सबसे बड़ा उत्तरदायित्व समाज का ही होता है ...तब हमें अपने उत्तरदायित्व तय करने होते हैं। हम समाज के महत्वपूर्ण घटक हैं, समाज का निर्माण हमसे हुआ है, समाज पर पड़ने वाले हर प्रभाव से हम प्रभावित होते हैं इसलिये समाज का प्रमुख उत्तरदायित्व भी हमें ही निभाना होगा। कोई भी कानून समाज के कल्याण के लिये होना चाहिये, यदि कोई कानून इस उद्देश्य को पूरा करने में सफल नहीं होता तो ऐसे कानून में परिवर्तन का उत्तरदायित्व भी अंततः हमारा ही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि समाज पर नियंत्रण के लिये किसी आदर्श सत्ता की आवश्यकता होती है किंतु सत्ता पर नियंत्रण के लिये समाज का सजग होना अनिवार्य है।
   हमें अपने सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिये कई अभियान छेड़ने होंगे। हमें अपने आपसी सम्बन्धों पर ...उनकी शुचिता बनाये रखने पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। किसी समय हमारे पड़ोसी देश के चिंतक कुंग-फू-त्जू (आंग्ल संस्करण में कंफ़्यूशियस) को भी व्यक्ति, समाज और राजनीति के मध्य कुछ अनिवार्य सम्बन्धों पर चिंतन करने की आवश्यकता पड़ी थी। एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण करने के लिये आवश्यक हो गया था ऐसा करना।
   कुंग-फू-त्जू ने मानव समाज के सम्यक विकास और कल्याण के लिये पांच गुणों की निरंतरता पर बल देते हुये ‘वू च्छांग’ के नियम को अपने अनुयायियों के लिये अनिवार्य किया। उसने बताया कि मनुष्यता (रेन)  हमारा वह जातिगतगुण है जो स्वयं से परे अन्य लोगों के कल्याण के लिये एक सहृदय एवं करणीय भाव का संचार करता है। समाज के निर्माण और फिर उसके स्वस्थ्य पारस्परिक संबन्धों के लिये युक्तियुक्त संयोजन (यी),  औचित्य (ली),  बुद्धिमत्तापूर्ण विचार और कर्म (झी), तथा शब्दों का सम्मान (जिन) करने के गुण विकसित करना मनुष्य समाज की अनिवार्य आवश्यकतायें हैं।
   कुंग-फू-त्जू ने मानवीय सम्बन्धों की शुचिता पर अधिक बल देते हुये पाँच प्रकार के सम्बन्धों (वू लुन) के लिये एक आदर्श व्यवस्था सुनिश्चित की। ये सम्बन्ध हैं अभिभावक और बच्चों के बीच सम्बन्ध, शासक और शासित के बीच सम्बन्ध, पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध, बड़े और छोटे भाई-बहनों के बीच सम्बन्ध और मित्र-मित्र के बीच आपसी सम्बन्ध।
   महाभारत में भी राजा और प्रजा के बीच, प्रजा-प्रजा के बीच, प्रजा और पर्यावरण की शक्तियों के बीच एक संतुलित सम्बन्ध की कामना का उल्लेख किया गया है। शुभ विचारों की भौगोलिक सीमायें नहीं होतीं ...कोई बाध्यता नहीं होती; परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार उनके क्रियान्वयन की दृढ़ इच्छ-शक्ति की आवश्यकता भर होती है जिसका, वर्तमान में तो अभाव ही प्रतीत हो रहा है। भारतीय ऋषि चिंतन का वैचारिक भण्डार इतना समृद्ध है कि प्रकाश के लिये हमें कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं।
     समाजिक क्रांति के लिये एक दीप जल चुका है। इस दीप को जलाने के लिये न जाने कितनी दामिनियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी है .....आहुति का यह क्रम अभी थमा नहीं है। अब इस क्रम को विराम देना होगा और अपने पुरुषार्थ की आहुति देने के लिये तैयार होना होगा। हम तो चल पड़े  ....और आप सभी का बड़े आदर के साथ आह्वान करते हैं कि इस यात्रा के सहयात्री बनने के लिये कटिबद्ध हो आगे आ जायें। न जाने कितनी दामिनियाँ हमारी-आपकी प्रतीक्षा में हैं। यज्ञ में अपनी-अपनी आहुति डालने के लिये आप सभी का स्वागत है।    

5 टिप्‍पणियां:

  1. दामिनी की प्राणों की आहुति बेकार नही जायगी
    समय भले लगे लेकिन,एकदिन रंग जरूर लायेगी,,,

    recent post : बस्तर-बाला,,,

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  2. प्रभावशाली लेख ,,,
    दामिनी की घटना के बाद इस तरह की घटनाएं रुकनी चाहिए और
    कुछ सख्त कदम जरुर उठाए जाने चाहिए !

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  3. हालाँकि यह आंकड़े सिर्फ रिपोर्ट की गई घटनाओं पर आधारित होते हैं. फिर भी यह सच है कि इस तरह के अपराध दुनिया में हर स्थान पर होते हैं और पश्चिम तो बर्बरता की परकाष्ठ पर रहा है हमेशा से , इतिहास गवाह है.

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  4. दुष्कर्म की घटना किसी भी देश में हो; दुखद है. लडकी या स्त्री के पाँव छूने की परंपरा जिस प्रांत में है वहाँ भी ऐसी घटनाएँ रोज़-रोज़ हो रही है. जब अपना पिता और भाई हवस का शिकार बनाता है तो ऐसे में क्या हो? पुरुषों के द्वारा स्त्रियों का सम्मान जब तक ह्रदय से न होगा ऐसी घटनाएँ होती रहेंगी. कन्फ्यूशियस के चिंतन के बारे में ज्ञानवर्धक और महत्वपूर्ण जानकारी मिली. चिंतनशील आलेख के लिए धन्यवाद.

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    1. जेन्नी जी! नमस्कार! सम्मान तो हृदय से ही उपजता है। पाँव छूने की परम्परा के पीछे का जो पुनीत आशय रहा उस आशय को ही पुनः व्यवहृत करने की आवश्यकता है। इस परम्परा के बहाने हम एक आशा की किरण देख सकते हैं, अन्यथा समाज पर वैचारिक अंकुश लगाने के लिये अपने पास और रह ही क्या जाता है। जिन संस्कारों की हम बात करते हैं वे प्रवचन भर में रह गये हैं, आचरण में कहाँ हैं? समस्या तो यही है न जेन्नी जी!

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.