गुरुवार, 20 नवंबर 2014

मृगमरीचिका


            मरीचिका अब राज्य में नहीं रहती । उसने अपना विस्तृत राज्य स्थापित कर लिया है । मरीचिका का विस्तार हो गया है, राज्य उसमें डूब चुका है ।
सबके देखते-देखते राजाओं ने मृग की नाभि से कस्तूरी का अपहरण कर लिया ।
मृगों का होना मृगों के लिये बहुत अर्थ नहीं रखता । उनका होना राजा के लिये बहुत अर्थवान होता है । राजा के ऐश्वर्य .....उसकी प्रभुता .....उसकी समृद्धि ...उसके अस्तित्व के लिये मृगों का होना अनिवार्य है । मृग ही तो राजा के अर्थशास्त्र और अस्तित्व की नींव होते हैं । तथापि .......  
तथापि इतिहास के किसी भी पृष्ठ पर यह कहीं नहीं लिखा जायेगा कि रेगिस्तान में प्यास से भटक रहे कस्तूरीविहीन मृग बारबार मरीचिका से छले जाते रहे हैं ।
तृषित मृग शोषित, पीड़ित, वंचित और दीन-हीन हैं । वे भीरु और असंगठित भी हैं । उनकी समस्यायें उस कृष्ण विवर की तरह हैं जिसमें जाकर सब कुछ समा जाता है ......समा जाती हैं उनकी याचनायें, उनकी प्रतीक्षायें, उनकी आशायें, उनकी प्रार्थनायें .......और उनके अस्तित्व भी ।  
तृषित मृग के असीम दुःख की विवशता समुद्र की उन उद्दाम लहरों की तरह है जो हाहाकार से भरी और तटीय सीमाओं से घिरी है, ये विवश लहरें उछलती हैं फिर पछाड़ खाकर सागर के किनारों और पत्थरों से टकराकर स्वयं को ही घायल कर लेती हैं ।
तृषित मृग भटकते हैं । आश्वासन उसे अपनी ओर खीचते हैं । वे आश्वासनों के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते हैं । उनकी प्रतीक्षायें कभी समाप्त नहीं होतीं ।
वे प्रार्थना करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, गिड़गिड़ाते हैं .....और निराश होते हैं ।
वे कुव्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना चाहते हैं किंतु कोई उनके नेतृत्व के लिए आगे नहीं आता ।  
वे संगठित और सुनियोजित नहीं हो पाते इसलिए कुचल दिये जाते हैं ।
रेगिस्तान में कुछ धूर्त भेड़िये भी हैं । राजा ने सभी धूर्त भेड़ियों को संरक्षण दे दिया है ।
राजा अपंग और नपुंसक है इसलिए राज्य में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये भेड़ियों का आशीर्वाद पाना उसे आवश्यक लगता है ।
धूर्त भेड़िये कुछ गुप्त किंतु अघोषित और अलिखित समझौतों की नीव पर नपुंसक राजाओं को आशीर्वाद दे दिया करते हैं ......यह एक प्रच्छन्न राजनैतिक परम्परा है ।
तिलकधारी भेड़िये अब जंगलों में नहीं, किलों में रहते हैं । किलों में सेना होती है । सेना को अपना चारा लाने की स्वतंत्रता होती है ।
किसी अवतार की प्रतीक्षा में भटक रहे मृगों को, न जाने क्यों भेड़ियों के किले बहुत आकर्षित करते हैं ।
थके-हारे, निराश और दीन-हीन मृग भूख और प्यास से तड़प रहे हैं । राजा ने उनकी नाभि की कस्तूरी पहले ही निकाल कर तस्करों को बेच दी है । विवश और तृषित मृग भेड़ियों के जाल में फसते रहने के लिये अभिषप्त हैं ...अन्य विकल्पों को देखने और समझने की शक्ति भी उनसे छीन ली गयी है । उनके दुःखों की भारी गठरी हर बार और भी भारी ही होती रही है ।


और हाँ ! सावधान ! परिभाषाओं की सारी शुभता को बन्दी बना लेने वाले धूर्त भेड़ियों ने निष्प्राण हुये शब्दों का चीवर बना कर ओढ़ लिया है । 

2 टिप्‍पणियां:

  1. शब्दों में कहाँ बची इतनी ताब ,वे पूरी तरह छद्म के आवरण बन गए हैं .जो कहना चाहता है वह स्वयं अपने में दहता है - भाषा विवश हो जाती है वहाँ, जहाँ शब्द अर्थहीन हो कानों को छू कर निकल जानेवाली ध्वनिमात्र रह गए हों !

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    1. ...जी ! किंतु विडम्बना यह है कि झूठ पर तो लोग झूम-झूम कर विश्वास कर लेते हैं और सत्य दूर खड़ा लांछित होता रहता है । आधुनिक बाबाओं ने तो स्थिति को और भी विकट बना दिया है ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.