बुधवार, 31 दिसंबर 2014

धर्म और संस्कृति का आपसी रिश्ता



इंडोनेशिया के मुसलमान भारतीय संस्कृति के अनुकरण में कुछ बुरायी नहीं देखते । उनके आदर्श चरित्रों में राम और हनुमान भी हैं । संस्कृति मनुष्य जीवन की परिष्कृत चर्या है ...इसे पाने के लिये प्रयत्न करना पड़ता है ...तप करना पड़ता है ...निरंतर अभ्यास करना पड़ता है ...और आवश्यकता पड़ने पर अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है । संस्कृति एक जीवनशैली है जो निरंतर उत्कृष्ट और उदात्त मानवीय गुणों के अभ्यास की संस्तुति करती है । संस्कृति से हमें धर्म को समझने की वैचारिकभूमि उपलब्ध होती है जबकि धर्म हमें अपसंस्कृति से बचाता है । 

भारत में धर्म और संस्कृति के बीच एक धुंधली सी रेखा है जिसे देखने के लिये व्यापक दृष्टि की आवश्यकता है । भारतीयों का धर्म धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्से अनुशासित होता है । धर्म के ये दस लक्षण आदर्श व्यक्तित्व के लक्षण हैं जिनका अनुशीलन मानवमात्र के लिये अभिप्रेत है । ऐसा धर्म व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की समृद्धि, सुख और शांति के लिये आवश्यक है । यही कारण है कि जैन, बुद्ध और सिख मत के लोग भी सनातन धर्म की इस मुख्य धारा का गुणगान करते हैं । क्या इन सिद्धांतों का किसी से कोई विरोध हो सकता है ? मुझे नहीं लगता कि अन्य मतों के लोग इससे सहमत नहीं होंगे । फिर समस्या कहाँ है ?

चरक संहिता में उपदिष्ट वाक्य - “संस्कारो हि गुणंतराधानमुच्यते स्पष्टरूप से गुणों के अंतराधान का मंत्र देता है । यह अंतराधान किस तरह होता है ? इसे सीखने के लिये कृषक के पास जाकर कृषि की प्रक्रिया देखनी होगी, कुम्भकार के पास जाकर मृत्तिका भांड बनाने की पूरी प्रक्रिया देखनी होगी, किसी शिल्पी के पास जाकर उसकी शिल्पसाधना को देखना होगा, किसी जुलाहे के पास जाकर वस्त्र बुनने की प्रक्रिया जाननी होगी ....। संस्कार व्यक्तिगत अर्जन और साधना का परिणाम है किंतु जब यही समूह में भी व्याप्त होकर प्रगट होता है तो उस समूह की संस्कृति बन जाता है । किसी कार्य या आचरण को निरंतर अच्छा और शुभ बनाने के लिये बारम्बार किये जाने वाले प्रयास संस्कार की प्रक्रिया का एक कार्मिक भाग है । शास्त्र उपदेश देते हैं – “संस्करणं सम्यक् करणं वा संस्कारः। पुस्तकों के अगले संस्करण में सुधार या संशोधन की परम्परा से हम सभी परिचित हैं । भारतीय संस्कार निरंतर परिमार्जन करते हुये आगे बढ़ने की साधना है । यहाँ वैचारिक जड़ता का अभाव है । यहाँ किसी एक विचार या एक दिशा से प्रभावित होकर रूढ़ हो जाने का अभाव है । यहाँ मण्डन है ....और खण्डन भी । यहाँ एक सरोवर नहीं बल्कि महासागर की बात है, घटाकाश की नहीं अनंताकाश की बात है । 
        संस्कार तो त्रुटियों और चरित्र की शिथिलताओं की पुनरावृत्ति रोकने का अनुभूत योग है । संस्कार
अपने आचार और विचार में निरंतर परिमार्जन की प्रक्रिया है । संस्कारअपने जीवन में उत्कृष्ट गुणों का अभ्यास है । संस्कारमानव जीवन को पवित्र, उत्कृष्ट और लोकहितकारी बनाने वाला आध्यात्मिक उपचार है । संस्कारचेतना और संवेदना की वह सात्विक प्रक्रिया है जो मनुष्य के आचरण को सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन में ग्राह्य और अनुकरणीय बनाती है । संस्कारसभ्यता का प्रथम सोपान है और संस्कृति का मूल आधार भी ।   
भारत में धर्मांतरण रोकने के लिये एक निषेधात्मक कानून बनाने की चर्चा हो रही है । सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर यह एक क्रांतिकारी पहल है जिसका बुद्धिजीवियों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिये । भारतीय राजनीति और भारतीय समाज को अपनी प्राथमिकतायें तय करनी होंगी । हम अपने प्राचीन गौरव को खो चुके हैं इसलिये अभी तो हमें संस्कारित होने की आवश्यकता है, सामाजिक होने और मनुष्य होने की आवश्यकता है । प्रकृति और मातृशक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है । जघन्य और पैशाचिक यौन दुष्कर्मों से समाज को पूर्ण मुक्ति दिलाने के लिये कटिबद्ध होने की आवश्यकता है । धर्म नहीं आचरण बदलने की आवश्यकता है ।  


रॉबर्ट हूबर की दृष्टि में भारत



राजमहल पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी थी। ख़ास महल के बरामदे में सोफ़े पर बैठा एक युवक मॉस्क्यूटो स्लाटर लिए बड़ी तल्लीनता से मच्छर मार रहा था । प्रोटीन के जलने की विशिष्ट गन्ध पूरे बरामदे में फैल रही थी । पच्चीस साल का यह युवक इन दिनों अपने पिता मिस्टर रॉबर्ट हूबर के साथ भारत भ्रमण के एक पड़ाव पर है । ज़र्मनी निवासी रॉबर्ट हूबर पिछले लगभग पच्चीस साल से भारत आते रहे हैं ।

दिल्ली की ठिठुरन को कुछ दिन प्रतीक्षा करने के लिये कहकर बड़े महाराजा यानी आदित्य प्रताप सिंह देव जी शीतकालीन छुट्टियाँ बिताने अपने घर कांकेर आये हुये हैं । साल में बहुत कम ऐसा होता है कि राजमहल के सभी लोग कुछ दिन एक साथ रहें । तीनों भाइयों के अलग-अलग क्षेत्रों और रुचियों के बाद भी मेरे साथ सभी का अच्छा तालमेल बैठता है इसलिये जब सभी लोग एक साथ होते हैं तो किसी न किसी बहाने मुझे भी याद किया जाता है । विशेषकर ज़ॉली बाबा को मेरी अनुपस्थिति खलती है ।
मिस्टर रॉबर्ट महल के पिछवाड़े बनी कॉटेज़ में से एक में ठहरे हुये थे । जिस समय ज़ॉली बाबा मुझे और अजय को लेकर कॉटेज़ में पहुँचे उस समय मिस्टर रॉबर्ट बाहर बरामदे में अकेले बैठे जाम की चुस्कियाँ ले रहे थे । परिचय की औपचारिकता के बाद चर्चा शुरू हुयी । मैंने पूछा, उन्हें कांकेर कैसा लगा ? उत्तर में मिस्टर रॉबर्ट शुरू हो गये ...
1-    अब मुझे कांकेर अच्छा नहीं लगता । यहाँ सड़कों पर भीड़ बढ़ गयी है और वाहनों के शोर ने वादी की शांति का अपहरण कर लिया है । .......पिछले मात्र तीन दशकों में ही छत्तीसगढ़ ने आधुनिक विकास के नाम पर अपना वह सब कुछ खो दिया है जो कभी विदेशियों के लिये आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था । ........हमें छत्तीसगढ़ की संस्कृति आकर्षित करती है किंतु अब वह अपने स्वाभाविक रूप में कहीं दिखायी नहीं पड़ती । हमने छत्तीसगढ़ के बैगाओं को देखा है, पहले भी ........और आज भी । वे अपनी मौलिकता खोते जा रहे हैं । ...और छत्तीसगढ़ ही नहीं, कर्नाटक के हम्पी में भी अब वह बात नहीं रही । वनवासियों की संस्कृति पर शहरी संस्कृति का अंधेरा साया पड़ गया है । पहनावा, भाषा, खाना-पीना, सोच .....सब कुछ तेज़ी से बदलता जा रहा है । इस तरह आप वनवासी संस्कृति को जीवित कैसे रख सकेंगे ?
2-    मुझे यह समझ में नहीं आता कि स्कूलों में गणवेश की क्या आवश्यकता है ? विद्यार्थियों को अपने पारम्परिक पहनावे में ही आना चाहिये तभी तो वे सब आपस में एक-दूसरे की परम्पराओं को सीख सकेंगे ।
1-    कांकेर का सरकारी अस्पताल अच्छा नहीं है ।  ज़र्मनी में नागरिकों के स्वास्थ्य के लिये वहाँ की सरकारें गम्भीर हैं और ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन करती हैं । भारत में निजी अस्पताल और स्कूल अच्छे हैं जबकि सरकारी अस्पतालों और स्कूलों को अच्छा होना चाहिये । यहाँ ऐसा क्यों है ? फिर सरकारें करती क्या हैं ?
2-    भारत में राजनीति की स्थिति भी अच्छी नहीं है । अधिकांश लोग भ्रष्ट हैं, सरपंच से लेकर एम.एल.ए. और एम.पी. तक .....जनता की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं है ।
3-    ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार कलियुग अब अपनी समाप्ति की ओर है, हमें सतयुग के स्वागत के लिये तैयार रहना होगा ।

मैंने मिस्टर रॉबर्ट की बातों को ध्यान से सुना । रॉबर्ट का युवा बेटा वार्ता के बीच में ही आकर गोष्ठी में सम्मिलित हो गया था । वह एक शांत युवक था, पूरी वार्ता में वह बिल्कुल चुप रहा । आम ज़र्मन लोगों की तरह उसकी त्वचा का रंग लाल नहीं था इसलिये वह बहुत कुछ भारतीय जैसा ही लग रहा था । हाँ ! उसकी लम्बाई ज़रूर पारम्परिक थी जो मुझे हमेशा ही अच्छी लगती है ।

जिस समय मिस्टर रॉबर्ट वनवासियों की वेशभूषा की बात कर रहे थे मुझे राजीव रंजन प्रसाद जी का गुस्सा याद आ गया । राजीव जी बस्तर के निवासी हैं और उन्हें बस्तर आने वाले उन लोगों से सख़्त नाराज़गी है जो वनवासी लड़कियों की नग्न देह में वनवासी संस्कृति की तलाश के लिये लालायित रहते हैं और उन्हें किसी नदी या तालाब में स्नान करते हुये शूट करने के लिये पेड़ों की आड़ में छिपने की अपनी शहरी संस्कृति में कोई दोष नहीं देखते ।

मिस्टर रॉबर्ट हूबर और राजीव रंजन जी दोनो ही वनवासियों के प्रति चिंतित नज़र आते हैं । विकास और वनवासी संस्कृति की मौलिकता उनकी चिंता के विषय हैं । यह एक गम्भीर विषय है जिस पर मैं पृथक से एक लेख लिखना चाहूँगा ।

..
और हाँ ! मिस्टर रॉबर्ट एक बहुत अच्छे फ़ोटोग्राफर हैं । वे भारत और भारत के गाँवों को बहुत निकटता से देखने का प्रयास करते हैं । इस बार उनके पास एक ड्रोन कैमरा था जिसका प्रदर्शन वे मेरे वहाँ पहुँचने से पहले महाराजा साहब और अजय के सामने कर चुके थे । उन्होंने इसी ड्रोन कैमरे से गुजरात की खाड़ी को बड़ी कुशलता से शूट किया है ।

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

औरत


स्त्री
पश्चिम में
स्वच्छन्द भोग की सामग्री हुयी ।
मध्यपूर्व में
युद्ध की विजित वस्तु होकर यौनदासी हुयी ।
कभी वह धर्म से अनुशासित हुयी
तो कभी फ़तवों से त्रस्त हुयी ।
पुरुष के समान
अधिकारों को पाने के लिये
संघर्ष करती नारी
कभी पुरुष की क्रूर हिंसा का शिकार हुयी
तो कभी आधुनिक होते-होते
“तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त” के छलावे में फसकर
‘विश्वसुन्दरी’
और
‘सबसे सेक्सी स्त्री’ की
कामुक उपाधियों से प्रसन्न होती हुयी
अंततः
“चीज” की मनोवृत्ति से
उबर नहीं पा रही है ।
आत्मनिर्भरता,
स्वाभिमान,
स्त्रीशक्ति,
समानाधिकार जैसे शब्द चीखते रहते हैं ....
संघर्ष चलता रहता है
और असुरक्षित स्त्री
ढेरों आश्वासनों के बाद भी
यौनहिंसा की शिकार होती रहती है ।
आधुनिकता,
विकास,
समानता,
अहिंसा और न्याय जैसे शब्द
अनैतिकता के घुन से खोखले हो चुके हैं ।
स्त्री की तलाश

अभी भी जारी है ...  

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

पहचान बनाये रखने का छल

जाति – अच्छी जाति, बुरी जाति, छोटी जाति, बड़ी जाति, आरक्षित जाति, अनारक्षित जाति, दलित जाति, महादलित जाति .... । क्या भारत के लोग जातियों को वास्तव में समाप्त करना चाहते हैं ? हमारा विश्वास है कि भारत के लोग जाति व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं । वे वर्गभेद के शिकार होते रहना चाहते हैं । जाति को लेकर भारत में शिकार करना और शिकार होते रहना एक निर्लज्ज खेल बन चुका है । (इस निर्लज्जता के कई रूप हैं जिन पर पृथक से चर्चा की जायेगी । )
विभिन्न विधाओं में दक्ष रहा भारतीय समाज विभिन्न जातियों में बट कर वर्गभेद का शिकार हो चुका है । “वर्ग” को हाइबरनेशन में भेज कर “भेद” को सक्रिय बनाये रखने की कूटनीति को भारत का एक बड़ा वर्ग समझ पाने में असमर्थ रहा । यह असमर्थता भारतीय समाज की एक गम्भीर व्याधि बन गयी है ।  
मानव सभ्यता के विकास के साथ ही जाति के रूप में समाज का व्यवस्थापन प्रारम्भ हो गया था । विश्व की सभी सभ्यताओं में किसी न किसी नाम से जातियाँ अपने अस्तित्व में बनी रही हैं । मनुष्य की बुद्धिमत्ता, कार्यक्षमता, दक्षता का संकल्प, लक्ष्य प्राप्ति के लिये तपस्या और दूरदर्शिता आदि गुणों का बटवारा ईश्वर ने एक जैसा नहीं किया । यही वे घटक हैं जिनसे विभिन्न क्षमताओं वाले लोग विकसित होते रहे और समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बनाते रहे । उनकी इस विशिष्ट पहचान ने जातियों का आधार प्रस्तुत किया और जातियाँ अपने अस्तित्व में आयीं । श्रमिक, कृषक, ऑफ़िस के बाबू, कलेक्टर, न्यायाधीश, वकील, उद्योगपति, नेता, अभिनेता ...ये सभी आधुनिक भारत की आधुनिक जातियाँ हैं । क्या इन जातियों से किसी भी समाज या देश को मुक्त किया जा सकना सम्भव है ? हड़बड़ाये हुये अव्यवस्थित भारत में कुछ समय पूर्व कुछ जातियों के जातिसूचक शब्द प्रतिबन्धित कर दिये गये । अब समस्या यह थी कि उन्हें किस श्रेणी में रखा जाय ? उन्हें क्या कह कर पुकारा जाय ? व्यक्तिगत नाम से पुकारने में वर्ग की पहचान लुप्त होने का संकट था । वर्ग का अस्तित्व राजनीति के अस्तित्व के लिये आवश्यक तत्व है । इस सबसे प्रभावित वर्ग प्रसन्न था कि चलो अब कोई उन्हें जातिगत हेय सम्बोधनों से नहीं जानेगा । किंतु राजनीति के भोजन का एक ग्रास संकट में आ गया । विभेदक वर्गों को बनाये रखते हुये विभेदक हेय दृष्टि को समाप्त करना तत्कालीन राजनीति की आवश्यकता थी । पहचान बनाये रखना आवश्यक समझा गया । तब यह विचार किया गया कि संज्ञाओं को स्थानापन्न करने से इस संकट को समाप्त किया जा सकता है । तब जातिगत शब्दों के स्थान पर दो समूहगत शब्द अस्तित्व में लाये गये – हरिजन और आदिवासी । कुछ ही समय बाद इन नयी संज्ञाओं ने अपनी पूर्व संज्ञाओं का भाव ग्रहण कर लिया और ये शब्द पुनः हीनभाव से ग्रस्त हो गये । शुभ संज्ञायें अशुभ माने जाने लगीं, भेद समाप्त नहीं हो सका । संज्ञाओं के हेर-फेर से वर्गभेद को एक बार फिर नया चोला पहनाने का प्रयास किया गया । इस बार नये शब्द आये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति । संज्ञायें बदल दी गयीं किंतु जो बदला जाना था वह नहीं बदल सका । कुछ समय बीतने पर ये संज्ञायें भी अपनी मूल संज्ञा के भाव को पूरी तरह ग्रहण कर लेंगी तब पुनः संज्ञायें बदल दी जायेंगी । जातिगत मूल पहचान की आत्मा को बनाये रखना अनैतिक राजनीति की प्रमुख आवश्यकता है ।

बौद्धिकप्रतिभा, क्षमता, कर्मठता और दक्षता आदि गुणों में वृद्धि के किसी निष्ठापूर्ण प्रयास के बिना ही समाज में समानता लाने के अवैज्ञानिक प्रयासों के छल के साथ असमानता बढ़ाने का राजनैतिक लक्ष्य पूरा किया जाता रहा । बड़ी चतुरता से गुणात्मक वृद्धि के प्रयासों के स्थान पर गुणात्मक शिथिलता के अनुदान से समाज के एक वर्ग को अक्षम, अदक्ष और अकर्मण्य बने रहने के लिये प्रोत्साहित किया जाता रहा । इस तरह जातिगत आरक्षण भारत के विकास के मार्ग का एक स्थायी अवरोधक बन कर उभरा । आरक्षण इंसूलिन का वह सूचीवेध है जो मधुमेह के साथ आँख-मिचौली खेलता हुआ इंसूलिन बनाने वाली बीटा कोशिकाओं को धीरे-धीरे गला घोटकर मार देता है । दक्षता और योग्यता में शिथिलता के आधार पर दान दी गयी भौतिक उपलब्धियों से न तो कोई देश समृद्ध हो सकता है और न इस तरह कर्मयोग की कोई साधना सम्भव होती है । यह एक समाज-वैज्ञानिक सत्य है जिसकी भारत में निरंतर अवहेलना की जाती रही है । संज्ञाओं के छल से मुक्त होकर गुणात्मक विकास की साधना की आवश्यकता को भारत का बहुसंख्यक समाज जिस दिन समझ जायेगा उसी दिन भारत का ऐसा कायाकल्प होगा जिसे देखकर पूरी दुनिया अचम्भित हुये बिना नहीं रहेगी । 

रविवार, 21 दिसंबर 2014

धर्मपरिवर्तन



मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि धर्म के आदर्श स्वरूप की चर्चा सुखकारक होती है, क्लेशकारक नहीं । किंतु आज हम धर्म के उस लौकिक स्वरूप की चर्चा के लिये विवश हुये हैं जो क्लेश का कारण बन गया है ।
धर्मांतरण की घटनायें राजनैतिक आवश्यकता की चक्की से पिसकर एक वैचारिक अपराध के रूप में प्रकट हुयी हैं । धर्मांतरण की दुर्घटनायें पूरे विश्व में होती रही हैं किंतु भारत में इसकी तीव्रता प्रतिक्रियात्मक होती रही है । धर्म ने भारत को विभाजन की त्रासदी सहने के लिये विवश किया है इसलिये धर्मांतरण की प्रतिक्रिया तीव्र से तीव्र होती जा रही है । बहुसंख्य भारतीय समाज के दोहरे आचरण और राजनैतिक अवसरवादिता ने इस समस्या को निरंतर उलझाया है । किसी भी रूप में हो किंतु धर्म यदि समाज के लिये समस्या बन जाय तो यह चिंता का विषय है । दुर्भाग्य से भारत के हिंदू कभी विवशता तो कभी लालच के कारण सहस्राब्दियों से आयातित धर्मों का चोला ओढ़ते रहे हैं । एक आदर्श स्थिति में धर्मांतरण कभी धार्मिक समस्या नहीं रहा बल्कि राजनैतिक और सामाजिक समस्या रहा है जो अब अपने विकृतरूप में प्रकट हो रहा है ।
यूँ, स्वेच्छा से एक धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म का अनुकरण करना वैचारिक परिवर्तन का परिणाम है । यह एक वैचारिक विद्रोह है किंतु विगत सहस्रों वर्षों में जो परिदृष्य हमारे सामने उभर कर सामने आया है उससे किसी वैचारिक क्रांति ध्वनित नहीं होती । धर्मांतरित हुये लोगों को धर्म के मर्म से कोई अभिप्राय नहीं रहा । यदि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो ये वे लोग हैं जिन्हें धर्म के अनुशीलन से कोई अभिप्राय नहीं, वे कुछ रूढ़ियों और पाखण्डों को ओढ़कर केवल अपनी प्रतिबद्धतायें बदलते रहे हैं । निश्चित ही प्रतिबद्धताओं में परिवर्तन समाज और राष्ट्र के अस्तित्व के लिये एक विघटनकारी कारक है ।
एक सहज प्रश्न है - धर्मांतरण क्यों ?
जब कोई अपने पारम्परिक धर्म का परित्याग करता है तो वह नये अपनाये जाने वाले धर्म में विश्वास और श्रेष्टता के साथ ही अपने पूर्वजों के धर्म के प्रति अविश्वास और न्यूनता की प्रच्छन्न घोषणा करता है । दो धर्मों के बीच मतों और विश्वासों का यह भेद सामाजिक विघटन को ही जन्म दे सकता है । ऐसे धर्मांतरण से समाज किसी उच्च आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकता । भारत से बाहर जिन लोगों ने अपने पारम्परिक धर्म का त्याग कर अहिंसा की संस्तुति करने वाले बौद्ध धर्म को अपनाया वे अहिंसा को अपने जीवन में नहीं अपना पाये । उन्होंने अपने धर्म  का त्याग किया किंतु मांसाहार का त्याग नहीं कर सके । यह कैसा धर्म परिवर्तन हुआ ? सच तो यह है कि धर्म बदलने की चीज है ही नहीं, वह तो मानवीय गुणों को संस्कारित करने की चीज है, मनुष्य को पशुता से मनुष्यता की ओर ले जाने की चीज है, विघटन से संघटन की प्रक्रिया को अपनाने की चीज है, भेद से अभेद की ओर बढ़ने की चीज है । अपने पारम्परिक धर्म का त्याग कर किसी नये धर्म को अपनाने की अपेक्षा अपने अन्दर के अन्धकार का त्याग करना ही उचित है । यह नया चोला कुछ अच्छा नहीं कर सकेगा, कुछ अच्छा करने के लिये चोला बदलने की आवश्यकता ही नहीं है । धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो ...इन लक्षणों को अपने अन्दर उत्पन्न करने के लिये क्या किसी भी धर्म में निषेध किया गया है ? 
        क्या कोई धर्म मनुष्यता विरोधी है ? क्या कोई धर्म प्रकाश से अंधकार की ओर जाने की प्रेरणा देता है ? क्या विभिन्न धर्मों में अंतरविरोध है ? क्या कोई धर्म हीन या श्रेष्ठ है ? यदि ऐसा कुछ है तो वह धर्म नहीं हो सकता, कुछ और ही होगा । क्या मनुष्य को इस “कुछ और” की आवश्यकता है ?

धर्म और संस्कृति का आपस में क्या रिश्ता है ?

इंडोनेशिया के मुसलमान भारतीय संस्कृति के अनुकरण में कुछ बुरायी नहीं देखते । उनके आदर्श चरित्रों में राम और हनुमान भी हैं । संस्कृति मनुष्य जीवन की परिष्कृत चर्या है ...इसे पाने के लिये प्रयत्न करना पड़ता है ...तप करना पड़ता है ...निरंतर अभ्यास करना पड़ता है ...और आवश्यकता पड़ने पर अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है । संस्कृति एक जीवनशैली है जो निरंतर उत्कृष्ट और उदात्त मानवीय गुणों के अभ्यास की संस्तुति करती है । संस्कृति से हमें धर्म को समझने की वैचारिकभूमि उपलब्ध होती है जबकि धर्म हमें अपसंस्कृति से बचाता है । 

भारत में धर्म और संस्कृति के बीच एक धुंधली सी रेखा है जिसे देखने के लिये व्यापक दृष्टि की आवश्यकता है । भारतीयों का धर्म “धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्” से अनुशासित होता है । धर्म के ये दस लक्षण आदर्श व्यक्तित्व के लक्षण हैं जिनका अनुशीलन मानवमात्र के लिये अभिप्रेत है । ऐसा धर्म व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की समृद्धि, सुख और शांति के लिये आवश्यक है । यही कारण है कि जैन, बुद्ध और सिख मत के लोग भी सनातन धर्म की इस मुख्य धारा का गुणगान करते हैं । क्या इन सिद्धांतों का किसी से कोई विरोध हो सकता है ? मुझे नहीं लगता कि अन्य मतों के लोग इससे सहमत नहीं होंगे । फिर समस्या कहाँ है ?

चरक संहिता में उपदिष्ट वाक्य - “संस्कारो हि गुणंतराधानमुच्यते स्पष्टरूप से गुणों के अंतराधान का मंत्र देता है । यह अंतराधान किस तरह होता है ? इसे सीखने के लिये कृषक के पास जाकर कृषि की प्रक्रिया देखनी होगी, कुम्भकार के पास जाकर मृत्तिका भांड बनाने की पूरी प्रक्रिया देखनी होगी, किसी शिल्पी के पास जाकर उसकी शिल्पसाधना को देखना होगा, किसी जुलाहे के पास जाकर वस्त्र बुनने की प्रक्रिया जाननी होगी ....। संस्कार व्यक्तिगत अर्जन और साधना का परिणाम है किंतु जब यही समूह में भी व्याप्त होकर प्रगट होता है तो उस समूह की संस्कृति बन जाता है । किसी कार्य या आचरण को निरंतर अच्छा और शुभ बनाने के लिये बारम्बार किये जाने वाले प्रयास संस्कार की प्रक्रिया का एक कार्मिक भाग है । 

शास्त्र उपदेश देते हैं – “संस्करणं सम्यक् करणं वा संस्कारः” । पुस्तकों के अगले संस्करण में सुधार या संशोधन की परम्परा से हम सभी परिचित हैं । भारतीय संस्कार निरंतर परिमार्जन करते हुये आगे बढ़ने की साधना है । यहाँ वैचारिक जड़ता का अभाव है । यहाँ किसी एक विचार या एक दिशा से प्रभावित होकर रूढ़ हो जाने का अभाव है । यहाँ मण्डन है ....और खण्डन भी । यहाँ एक सरोवर नहीं बल्कि महासागर की बात है, घटाकाश की नहीं अनंताकाश की बात है । 
        संस्कार तो त्रुटियों और चरित्र की शिथिलताओं की पुनरावृत्ति रोकने का अनुभूत योग है । ‘संस्कार’अपने आचार और विचार में निरंतर परिमार्जन की प्रक्रिया है । ‘संस्कार’ अपने जीवन में उत्कृष्ट गुणों का अभ्यास है । ‘संस्कार’ मानव जीवन को पवित्र, उत्कृष्ट और लोकहितकारी बनाने वाला आध्यात्मिक उपचार है । ‘संस्कार’ चेतना और संवेदना की वह सात्विक प्रक्रिया है जो मनुष्य के आचरण को सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन में ग्राह्य और अनुकरणीय बनाती है । ‘संस्कार’ सभ्यता का प्रथम सोपान है और संस्कृति का मूल आधार भी ।   
        भारत में धर्मांतरण रोकने के लिये एक निषेधात्मक कानून बनाने की चर्चा हो रही है । सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर यह एक क्रांतिकारी पहल है जिसका बुद्धिजीवियों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिये । भारतीय राजनीति और भारतीय समाज को अपनी प्राथमिकतायें तय करनी होंगी । हम अपने प्राचीन गौरव को खो चुके हैं इसलिये अभी तो हमें संस्कारित होने की आवश्यकता है, सामाजिक होने और मनुष्य होने की आवश्यकता है । प्रकृति और मातृशक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है । जघन्य और पैशाचिक यौन दुष्कर्मों से समाज को पूर्ण मुक्ति दिलाने के लिये कटिबद्ध होने की आवश्यकता है । धर्म नहीं आचरण बदलने की आवश्यकता है ।   

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

यह फफूंद बदनाम नहीं है

    


     रसोई के भोजन को ख़राब कर देने के लिये बदनाम फफूंद के विपरीत तिब्बत के पठारों पर तीन हज़ार से पाँच हज़ार मीटर की ऊँचाई पर थिटारोड्स प्रजाति के एक पतंगे के लारवा को संक्रमित कर उसके शरीर में वृद्धि करने वाली फफूंद की एक प्रजाति ने लोगों को अपना दीवाना बना दिया है । यह दीवानगी जहाँ स्थानीय लोगों को चोरी, लूट, धोखा, मारपीट और हत्या तक के लिए विवश कर देती है वहीं तिब्बत की अर्थव्यवस्था में इसके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुये स्थानीय प्रशासन द्वारा वसंत ऋतु के आते ही लगभग चालीस दिन के लिए स्कूलों में अवकाश घोषित कर दिया जाता है जिससे विद्यार्थी इस बेशकीमती सॉफ़्ट गोल्डके संग्रहण द्वारा परिवार की आय में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कर सकें ।

        ओफ़ियोकार्डीसेप्स साइनेन्सिस नामक इस फफूंद को सामान्य बोली में कैटरपिलर फंगस भी कहते हैं । तिब्बती भाषा में यार्त्सा गुनबू, चीनी भाषा में डांग छांग झिया चाओ और नेपाली भाषा में यारसा गुम्बा के नाम से पुकारे जाने वाले इस सॉफ़्ट गोल्ड की वर्तमान कीमत सोने से भी अधिक है यानी एक पौण्ड कैटरपिलर फंगस के लिये आपको पचास हज़ार डॉलर तक चुकाने पड़ सकते हैं । कीमत में यह उछाल 1993 के बाद से आयी है जब पश्चिमी देशों ने चीनी खिलाड़ियों के माध्यम से इसके औषधीय गुणों के बारे में जाना । तिब्बत, नेपाल, सिक्किम और चीन के लोग पारम्परिक चिकित्सा में सहस्रों वर्षों से इसका उपयोग विभिन्न रोगों के उपचार और कामशक्ति वर्धक औषधि के रूप में करते आ रहे हैं ।  

        चीन में धनाड्यों की डिनर पार्टीज़ में यर्त्सा का सेवन समृद्धि का प्रतीक माना जाता है । इस कैटरपिलर फंगस ने तिब्बत, नेपाल, सिक्किम और चीन के उन ग्रामीणों की किस्मत बदल दी है जहाँ यह पाया जाता है । इसे लेकर संघर्ष भी होते रहे हैं और हत्यायें भी यहाँ तक कि इसके संग्रहण को लेकर होने वाले हिंसक विवादों को सुलझाने के लिये एक बार तो दलाई लामा को भी आकर हस्तक्षेप करना पड़ा । दिनोदिन इसकी कीमत बढ़ती ही जा रही है । पश्चिमी देशों में भी, जहाँ हर चीज का रासायनिक विश्लेषण कर कई प्रयोगों के बाद ही उसे प्रामाणिक माने जाने की परम्परा है, इसके प्रति आकर्षण बढ़ा है ।

         इस फफूंद के व्यापार का मुख्य केन्द्र तिब्बत के किंघाई राज्य का गोलोग एनक्लेव है जहाँ के नागरिकों की आय का मुख्य स्रोत फंगस संग्रहण है । तिब्बत में मई के शुरुआती दिनों से जून के अंत तक का समय वसंत ऋतु का होता है ।  इस समय बर्फ पिघलने लगती है और ठण्डी-कठोर धरती तापमान के बढ़ने और स्थानीय घास के अंकुरण के कारण कुछ-कुछ स्पंजी होने लगती है । यह थिटारॉड्स पतंगे के संक्रमित कैटरपिलर से फंगस के अंकुरित होने का समय होता है । धरती के नीचे मात्र आधा इंच की गहरायी में रहने वाले इस कैटरपिलर के सिर की ओर से अंकुरित होने वाली इस फफूंद के संग्रहण का यह समय लगभग 40 दिनों का होता है । संग्रहण के लिये अनुभव की आवश्यकता होती है । संग्रहण उचित समय पर ही किया जाना होता है जब फंगस लारवा को मारकर ऊपर उभर कर दृष्टिगोचर होने लगता है । गीली धरती की सतह पर उगी घास के अंकुरों के बीच माचिस की तीली के बराबर के यर्त्सा को पहचानना सरल नहीं है । कई बार संग्राहकों को गीली धरती की सतह पर घुटनों और कोहनियों के बल पर रेंगते हुये पैनी निगाहों से फफूंद के अंकुरों को तलाशना होता है । जैसे ही कोई अंकुर उन्हें दिखायी देता है वे ख़ुशी से चीखने लगते हैं और बड़ी सावधानी से लोहे के ट्रोवेल से कैटरपिलर सहित अंकुर को खाँद लेते हैं । 

       आप सोचेंगे कि आख़िर ऐसा क्या है इस फंफूद में जिसने इसे सोने से भी अधिक मूल्यवान बना दिया है । उत्तर में हम तो कहेंगे कि दीवानगी के लिये महज़ दिल का मेहरबान होना ज़रूरी है । यूँ चीनियों का दावा है कि इस फफूंद से बनने वाली औषधि थकावट को दूर करने वाली, कामशक्ति को बढाने वाली, पाचनशक्ति और मेटाबोलिज़्म को सुधारने वाली तो है ही अन्य कई बीमारियों को भी दूर  करने में समर्थ है । 1993 के बाद पश्चिमी देशों ने इन दावों की पुष्टि के लिये शोधकार्य प्रारम्भ किये । देखिये एक रिपोर्ट -     

      New study published in the journal RNA finds that cordycepin, a chemical derived from the caterpillar fungus, has anti-inflammatory properties. Inflammation is normally a beneficial response to a wound or infection, but in diseases like asthma it happens too fast and to too high of an extent," said study co-author Cornelia H. de Moor of the University of Nottingham. "When cordycepin is present, it inhibits that response strongly."

       And it does so in a way not previously seen: at the mRNA stage, where it inhibits polyadenylation. That means it stops swelling at the genetic cellular level—a novel anti-inflammatory approach that could lead to new drugs for cancer, asthma, diabetes, rheumatoid arthritis, and cardiovascular-disease patients who don't respond well to current medications. 

रविवार, 14 दिसंबर 2014

धार्मिक स्वतंत्रता के अर्थ


       भोजन, आवास, और सुरक्षा जीवन की मूलभूत अत्यावश्यकतायें हैं जिनके लिये संघर्ष होते रहे हैं । इन आवश्यकताओं की सुनिश्चितता के लिये कुछ शक्तिशाली लोग कभी राजतंत्र तो कभी लोकतंत्र के सपने दिखाकर स्वेच्छा से ठेके लेते रहे हैं । सभ्यता के विकास के साथ-साथ अवसरवादी लोगों ने भी धर्म के ठेके लेने शुरू कर दिये । भोजन, आवास और सुरक्षा की उपलब्धि के लिये एक सात्विक मार्ग के रूप में “धर्म” का वैचारिक अंकुश तैयार किया गया था किंतु अब मौलिक आवश्यकताओं की सुनिश्चितता के अन्य उपाय खोज लिये गये हैं और धर्म एक ऐसी भौतिक उपलब्धि बन गया है जिसकी प्राप्ति के लिये अधर्म और अनीति के रास्ते प्रशस्त हो चुके हैं । धर्म अब रत्नजड़ित मुकुट हो गया है जिसे पाने के लिये हर अधार्मिक व्यक्ति लालायित है । अधर्म ने धर्म का मुकुट पहनकर अपनी सत्ता को व्यापक कर लिया है । धर्म के नाम पर किये जाने वाले सारे निर्णय अब अधर्म द्वारा किये जाते हैं ।

     धर्म के नाम पर भारत को खण्डित किया गया । पाकिस्तान बना, बांग्लादेश बना और अब मौलिस्तान और कश्मीर बनाने की तैयारी चल रही है । पूरे विश्व में धर्म के नाम पर हिंसा होती रही है ...लोग बटते रहे हैं ...समाज खण्डित होता रहा है .....स्त्रियों के साथ यौनाचार होता रहा है । धर्म के नाम पर वह सब कुछ होता रहा है जो अधार्मिक है । यह धर्म है जिसने लोगों को अपनी मातृभूमि छोड़ने के लिए विवश किया । यह धर्म है जिसने लोगों को अपने ही घर में शरणार्थी बनने पर विवश किया । ब्रितानिया पराधीनता से मुक्ति के बाद भी कश्मीरी पण्डितों को 1990 में अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा । धर्म यदि ऐसा विघटनकारी तत्व है जो हिंसा की पीड़ा का मुख्य कारक बन सकता है तो ऐसे धर्म की आवश्यकता पर विचार किए जाने की आवश्यकता है ।

      भारत के संविधान में धर्म की स्वतंत्रता के साथ-साथ धर्म के प्रचार की भी स्वतंत्रता प्रदान की गयी है । इस प्रचार की स्वतंत्रता ने ही धर्म को एक वस्तु बना दिया है । धर्म अब आयात किया जाता है, धर्म के नाम पर अरबों रुपये ख़र्च किये जाते हैं । धर्म ने अपने मूल अर्थ को खो दिया है और अब वह व्यापार बन चुका है ।
      मैं यह बात कभी समझ नहीं सका कि जिस धार्मिक स्वतंत्रा के कारण देश और समाज का अस्तित्व संकटपूर्ण हो गया हो उसे संविधान में बनाये रखने की क्या विवशता है ? क्या धार्मिक स्वतंत्रा को पुनः परिभाषित किये जाने की आवश्यकता नहीं है ? क्या धार्मिक स्वतंत्रता की सीमायें तय किये जाने की आवश्यकता नहीं है ? हम यह मानते हैं कि जो विचार या जो कार्य समाज और देश के लिये अहितकारी हो उसे प्रतिबन्धित कर दिया जाना चाहिये । मनुष्यता और राष्ट्र से बढ़कर और कुछ भी नहीं हो सकता । परस्पर विरोधी सिद्धांतों और विचारों को अस्तित्व में बनाये रखने की स्वतंत्रता का सामाजिक और वैज्ञानिक कारण कुछ भी नहीं हो सकता । ऐसी स्वतंत्रता केवल राजनीतिक शिथिलता और असमर्थता का ही परिणाम हो सकती है ।

     बहुत से बुद्धिजीवी सभी धर्मों के प्रति एक तुष्टिकरण का भाव रखते हैं यह उनकी सदाशयता हो सकती है और छल भी । हम उन सभी बुद्धिजीवियों से यह जानना चाहते हैं कि यदि सभी धर्म मनुष्यता का कल्याण करने वाले हैं तो फिर उन्हें लेकर यह अंतरविरोध क्यों है? सारे धर्म एक साथ मिलकर मानव का कल्याण क्यों नहीं करते ? धर्म को लेकर ये अलग-अलग खेमे क्यों हैं ? ये एक ही लक्ष्य के लिये पृथक-पृथक मार्गों की संस्तुति क्यों करते हैं ?  कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत एक प्रकार के लक्ष्य के लिये विभिन्न मार्गों की संस्तुति नहीं करता तब धर्म के साथ ऐसा क्यों है ?


     आप कह सकते हैं कि धर्म और विज्ञान दो पृथक-पृथक विषय हैं, उन्हें एक साथ रखकर किसी सिद्धांत की व्याख्या नहीं की जा सकती । मेरी सहज बुद्धि यह स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है । विज्ञान से परे कुछ भी नहीं है, धर्म और विज्ञान को पृथक नहीं किया जा सकता । पृथक करने से जो उत्पन्न होगा वह अधर्म ही होगा । 

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

कोहरे में लिपटे सोनपुर की एक सुबह ...


       पटना के महेन्द्रूघाट से पहलेजाघाट के लिये सुबह-सुबह छूटने वाले जहाज की यात्रा की स्मृतियाँ अब इतिहास की धरोहर बन चुकी हैं । यात्रा के बीच में होने वाले सूर्योदय के दर्शन के लोभ में पहले जहाज को पकड़ना मेरी विवशता हुआ करती थी । डेक पर खड़े होकर गंगाजी की धारा में उगते सूर्य के किरणों की अठखेलियों को कई बार निहारा है ...पर कभी तृप्त नहीं हो पाया ।
        सुबह-सुबह, कोहरे में लिपटा सोनपुर जब जगने की तैयारी में था ठीक तभी कोहरे को चीरती हुयी हमारी ट्रेन सोनपुर पहुँची । बाहर आकर हमने पहलेजा के लिये ऑटो रिक्शा लिया और चल पड़े ।
       पहलेजा पहुँचकर लगा किसी नये स्थान पर आ गये हैं । पहलेजाघाट रेलवे स्टेशन के स्थान पर अब एक बस्ती थी । सामने श्री गंगाजी के दर्शन न हुये होते तो विश्वास नहीं हो पाता कि हम पहलेजा में हैं ।

कोहरा अभी भी था । सूरज आज अंगड़ाई तक लेने के मूड में नहीं लग रहा था । हो सकता है कि बस्ती के लोगों को हाज़त रफ़ा करने के लिये गंगाजी के किनारे लोटा लेकर जाते हुये देखने से बचने के लिये सूरज ने कोहरे की चादर ओढ़ रखी हो ।  

          अंततः सूरज को बाहर आना ही पड़ा, अलसाये से सूरज ने मुझे देखा तो बोल पड़ा –"अरे ! कहाँ रहे अब तक ?" 
उत्तर में मैं केवल मुस्कराया भर । 


शीत कितनी भी हो, गंगास्नान करने वाले ब्राह्ममुहूर्त में ही पहुँच जाते हैं ।  

कोहरे से भीगी ठंडी रेत और गंगाजी के भक्त ....

मुखारी करने सूरज भी पहुँच ही गया ....  


मुखारी के बाद गंगाजी के जलदर्पण में अपना मुखड़ा देखता सूरज 

गंगास्नान के बाद भी मेरी आँखें रेल की पटरियों और प्लेटफ़ॉर्म को खोजती रहीं । लेकिन बस्ती उसे न जाने कब का निगल चुकी थी ।


       मेरे सामने गीली रेत और कीचड़ भरे रास्ते थे, किंतु आँखों को बन्द करके भी मैं रेल की उन पटरियों को देख पा रहा था जिनका अब वहाँ नाम-ओ-निशान तक नहीं था ।


अंततः एक झोपड़ी के पीछे मिल ही गया रेलवे स्टेशन का एक भरापूरा प्रमाण ....पानी की टंकी   

और ये रहा वह प्लेटफ़ॉर्म ...जहाँ अब सड़क है । 

गाँव ने शहर के कपड़े पहन लिये हैं ...लेकिन गाँव की ख़ुश्बू अभी भी बाकी है 

ठण्ड में अपने-अपने स्वीटर पहने सुबह का पहला नाश्ता करते गाय-गोरू 

और लीजिये .....हम आ गये मेले में ...

मेले की एक दीवार पर चित्रकारी 

कभी यह मेला पशुओं के लिये प्रसिद्ध था, आज काम करने वाले पशुओं का स्थान मशीनों ने ले लिया है और दूध का स्थान नकली दूध ने ...इसलिये मेले में भरमार है मनुष्य नामक प्राणी की जो आजकल अक्सर बद से बदतर हो जाया करता है ।  

मेला स्थल के पास ही गज-ग्राह की कथा को चित्रित करता यह शिल्प । इस कथा के कारण ही इस स्थान का नाम पड़ा हरिहर क्षेत्र । 

मेले में मिठाइयाँ और पिज्जा ही नहीं सत्तू भी है और लिट्टी-चोखा भी । बिहार आज भी कई प्रकार के सत्तुओं के लिये प्रसिद्ध है । भई हमारा तो मानना है कि बिहार में जब तक सत्तू और लिट्टी-चोखा है तब तक बिहार की ख़ुश्बू बरकरार है । यूँ भी डायबिटीज़ के रोगियों के लिये सत्तू से उत्तम आहार और क्या है ! 

हरिहर क्षेत्र में गंगा जी का तट 


 गंगा जी का जल निर्मल है यहाँ ..


मेले के बाहर रस्सी पर चलती नन्हीं सी जान 


सोनपुर मेले के डांस थिएटर अक्सर सुर्खियों में रहते हैं ।


मेले में पशुविभाग की एक प्रदर्शिनी । सामने मंच पर पॉवर प्रज़ेंटेशन की तैयारी में व्यस्त हैं डॉ. महेश जी 



मेले में मिल गये पंतनगर से ग्रेज़ुएट पशुचिकित्सक डॉ. महेश जी 


..और हाँ, तीसरी कसम की याद दिलाती ये लाठियाँ आज भी हैं । 

घूम लिया मेला ...चलो अब चलें घर ...


तोता सचमुच चिंतित है मनुष्य के भविष्य को लेकर ..