मैं
पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि धर्म के आदर्श स्वरूप की चर्चा सुखकारक होती है,
क्लेशकारक नहीं । किंतु आज हम धर्म के उस लौकिक स्वरूप की चर्चा के लिये विवश हुये
हैं जो क्लेश का कारण बन गया है ।
धर्मांतरण
की घटनायें राजनैतिक आवश्यकता की चक्की से पिसकर एक वैचारिक अपराध के रूप में
प्रकट हुयी हैं । धर्मांतरण की दुर्घटनायें पूरे विश्व में होती रही हैं किंतु
भारत में इसकी तीव्रता प्रतिक्रियात्मक होती रही है । धर्म ने भारत को विभाजन की
त्रासदी सहने के लिये विवश किया है इसलिये धर्मांतरण की प्रतिक्रिया तीव्र से
तीव्र होती जा रही है । बहुसंख्य भारतीय समाज के दोहरे आचरण और राजनैतिक
अवसरवादिता ने इस समस्या को निरंतर उलझाया है । किसी भी रूप में हो किंतु धर्म यदि
समाज के लिये समस्या बन जाय तो यह चिंता का विषय है । दुर्भाग्य से भारत के हिंदू
कभी विवशता तो कभी लालच के कारण सहस्राब्दियों से आयातित धर्मों का चोला ओढ़ते रहे
हैं । एक आदर्श स्थिति में धर्मांतरण कभी धार्मिक समस्या नहीं रहा बल्कि राजनैतिक
और सामाजिक समस्या रहा है जो अब अपने विकृतरूप में प्रकट हो रहा है ।
यूँ,
स्वेच्छा से एक धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म का अनुकरण करना वैचारिक परिवर्तन का
परिणाम है । यह एक वैचारिक विद्रोह है किंतु विगत सहस्रों वर्षों में जो परिदृष्य
हमारे सामने उभर कर सामने आया है उससे किसी वैचारिक क्रांति ध्वनित नहीं होती ।
धर्मांतरित हुये लोगों को धर्म के मर्म से कोई अभिप्राय नहीं रहा । यदि कुछ
अपवादों को छोड़ दिया जाय तो ये वे लोग हैं जिन्हें धर्म के अनुशीलन से कोई
अभिप्राय नहीं, वे कुछ रूढ़ियों और पाखण्डों को ओढ़कर केवल अपनी प्रतिबद्धतायें
बदलते रहे हैं । निश्चित ही प्रतिबद्धताओं में परिवर्तन समाज और राष्ट्र के
अस्तित्व के लिये एक विघटनकारी कारक है ।
एक सहज
प्रश्न है - धर्मांतरण क्यों ?
जब कोई
अपने पारम्परिक धर्म का परित्याग करता है तो वह नये अपनाये जाने वाले धर्म में
विश्वास और श्रेष्टता के साथ ही अपने पूर्वजों के धर्म के प्रति अविश्वास और न्यूनता
की प्रच्छन्न घोषणा करता है । दो धर्मों के बीच मतों और विश्वासों का यह भेद
सामाजिक विघटन को ही जन्म दे सकता है । ऐसे धर्मांतरण से समाज किसी उच्च आदर्श को
प्राप्त नहीं कर सकता । भारत से बाहर जिन लोगों ने अपने पारम्परिक धर्म का त्याग
कर अहिंसा की संस्तुति करने वाले बौद्ध धर्म को अपनाया वे अहिंसा को अपने जीवन में
नहीं अपना पाये । उन्होंने अपने धर्म का
त्याग किया किंतु मांसाहार का त्याग नहीं कर सके । यह कैसा धर्म परिवर्तन हुआ ? सच
तो यह है कि धर्म बदलने की चीज है ही नहीं, वह तो मानवीय गुणों को संस्कारित करने
की चीज है, मनुष्य को पशुता से मनुष्यता की ओर ले जाने की चीज है, विघटन से संघटन
की प्रक्रिया को अपनाने की चीज है, भेद से अभेद की ओर बढ़ने की चीज है । अपने
पारम्परिक धर्म का त्याग कर किसी नये धर्म को अपनाने की अपेक्षा अपने अन्दर के
अन्धकार का त्याग करना ही उचित है । यह नया चोला कुछ अच्छा नहीं कर सकेगा, कुछ
अच्छा करने के लिये चोला बदलने की आवश्यकता ही नहीं है । धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं,
शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो ...इन लक्षणों को अपने अन्दर
उत्पन्न करने के लिये क्या किसी भी धर्म में निषेध किया गया है ?
क्या
कोई धर्म मनुष्यता विरोधी है ? क्या कोई धर्म प्रकाश से अंधकार की ओर जाने की
प्रेरणा देता है ? क्या विभिन्न धर्मों में अंतरविरोध है ? क्या कोई धर्म हीन या
श्रेष्ठ है ? यदि ऐसा कुछ है तो वह धर्म नहीं हो सकता, कुछ और ही होगा । क्या
मनुष्य को इस “कुछ और” की आवश्यकता है ?
धर्म
और संस्कृति का आपस में क्या रिश्ता है ?
इंडोनेशिया
के मुसलमान भारतीय संस्कृति के अनुकरण में कुछ बुरायी नहीं देखते । उनके आदर्श
चरित्रों में राम और हनुमान भी हैं । संस्कृति मनुष्य जीवन की परिष्कृत चर्या है
...इसे पाने के लिये प्रयत्न करना पड़ता है ...तप करना पड़ता है ...निरंतर अभ्यास
करना पड़ता है ...और आवश्यकता पड़ने पर अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है ।
संस्कृति एक जीवनशैली है जो निरंतर उत्कृष्ट और उदात्त मानवीय गुणों के अभ्यास की
संस्तुति करती है । संस्कृति से हमें धर्म को समझने की वैचारिकभूमि उपलब्ध होती है
जबकि धर्म हमें अपसंस्कृति से बचाता है ।
भारत
में धर्म और संस्कृति के बीच एक धुंधली सी रेखा है जिसे देखने के लिये व्यापक
दृष्टि की आवश्यकता है । भारतीयों का धर्म “धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रिय
निग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्” से अनुशासित होता है । धर्म
के ये दस लक्षण आदर्श व्यक्तित्व के लक्षण हैं जिनका अनुशीलन मानवमात्र के लिये
अभिप्रेत है । ऐसा धर्म व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की समृद्धि, सुख और शांति
के लिये आवश्यक है । यही कारण है कि जैन, बुद्ध और सिख मत के लोग भी सनातन धर्म की
इस मुख्य धारा का गुणगान करते हैं । क्या इन सिद्धांतों का किसी से कोई विरोध हो
सकता है ? मुझे नहीं लगता कि अन्य मतों के लोग इससे सहमत नहीं होंगे । फिर समस्या
कहाँ है ?
चरक
संहिता में उपदिष्ट वाक्य - “संस्कारो हि गुणंतराधानमुच्यते”
स्पष्टरूप से गुणों के अंतराधान का मंत्र देता है । यह अंतराधान किस तरह होता है ?
इसे सीखने के लिये कृषक के पास जाकर कृषि की प्रक्रिया देखनी होगी, कुम्भकार के
पास जाकर मृत्तिका भांड बनाने की पूरी प्रक्रिया देखनी होगी, किसी शिल्पी के पास
जाकर उसकी शिल्पसाधना को देखना होगा, किसी जुलाहे के पास जाकर वस्त्र बुनने की
प्रक्रिया जाननी होगी ....। संस्कार व्यक्तिगत अर्जन और साधना का परिणाम है किंतु
जब यही समूह में भी व्याप्त होकर प्रगट होता है तो उस समूह की संस्कृति बन जाता है
। किसी कार्य या आचरण को निरंतर अच्छा और शुभ बनाने के लिये बारम्बार किये जाने
वाले प्रयास संस्कार की प्रक्रिया का एक कार्मिक भाग है ।
शास्त्र उपदेश देते हैं
– “संस्करणं सम्यक् करणं वा संस्कारः” । पुस्तकों के अगले संस्करण में सुधार या
संशोधन की परम्परा से हम सभी परिचित हैं । भारतीय संस्कार निरंतर परिमार्जन करते
हुये आगे बढ़ने की साधना है । यहाँ वैचारिक जड़ता का अभाव है । यहाँ किसी एक विचार
या एक दिशा से प्रभावित होकर रूढ़ हो जाने का अभाव है । यहाँ मण्डन है ....और खण्डन
भी । यहाँ एक सरोवर नहीं बल्कि महासागर की बात है, घटाकाश की नहीं अनंताकाश की बात
है ।
संस्कार
तो त्रुटियों और चरित्र की शिथिलताओं की पुनरावृत्ति रोकने का अनुभूत योग है ।
‘संस्कार’अपने आचार और विचार में निरंतर
परिमार्जन की प्रक्रिया है । ‘संस्कार’ अपने जीवन में उत्कृष्ट गुणों का अभ्यास है
। ‘संस्कार’ मानव जीवन को पवित्र, उत्कृष्ट और लोकहितकारी बनाने वाला आध्यात्मिक
उपचार है । ‘संस्कार’ चेतना और संवेदना की वह सात्विक प्रक्रिया है जो मनुष्य के
आचरण को सामाजिक एवं व्यावहारिक जीवन में ग्राह्य और अनुकरणीय बनाती है ।
‘संस्कार’ सभ्यता का प्रथम सोपान है और संस्कृति का मूल आधार भी ।
भारत में धर्मांतरण रोकने के लिये एक निषेधात्मक
कानून बनाने की चर्चा हो रही है । सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर यह एक क्रांतिकारी
पहल है जिसका बुद्धिजीवियों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिये । भारतीय राजनीति और
भारतीय समाज को अपनी प्राथमिकतायें तय करनी होंगी । हम अपने प्राचीन गौरव को खो
चुके हैं इसलिये अभी तो हमें संस्कारित होने की आवश्यकता है, सामाजिक होने और
मनुष्य होने की आवश्यकता है । प्रकृति और मातृशक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करने की
आवश्यकता है । जघन्य और पैशाचिक यौन दुष्कर्मों से समाज को पूर्ण मुक्ति दिलाने के
लिये कटिबद्ध होने की आवश्यकता है । धर्म नहीं आचरण बदलने की आवश्यकता है ।
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