स्त्री
पश्चिम
में
स्वच्छन्द
भोग की सामग्री हुयी ।
मध्यपूर्व
में
युद्ध
की विजित वस्तु होकर यौनदासी हुयी ।
कभी वह
धर्म से अनुशासित हुयी
तो कभी
फ़तवों से त्रस्त हुयी ।
पुरुष
के समान
अधिकारों
को पाने के लिये
संघर्ष
करती नारी
कभी
पुरुष की क्रूर हिंसा का शिकार हुयी
तो कभी
आधुनिक होते-होते
“तू
चीज बड़ी है मस्त-मस्त” के छलावे में फसकर
‘विश्वसुन्दरी’
और
‘सबसे
सेक्सी स्त्री’ की
कामुक
उपाधियों से प्रसन्न होती हुयी
अंततः
“चीज”
की मनोवृत्ति से
उबर
नहीं पा रही है ।
आत्मनिर्भरता,
स्वाभिमान,
स्त्रीशक्ति,
समानाधिकार
जैसे शब्द चीखते रहते हैं ....
संघर्ष
चलता रहता है
और
असुरक्षित स्त्री
ढेरों
आश्वासनों के बाद भी
यौनहिंसा
की शिकार होती रहती है ।
आधुनिकता,
विकास,
समानता,
अहिंसा
और न्याय जैसे शब्द
अनैतिकता
के घुन से खोखले हो चुके हैं ।
स्त्री
की तलाश
अभी भी
जारी है ...
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