जाति –
अच्छी जाति, बुरी जाति, छोटी जाति, बड़ी जाति, आरक्षित जाति, अनारक्षित जाति, दलित
जाति, महादलित जाति .... । क्या भारत के लोग जातियों को वास्तव में समाप्त करना
चाहते हैं ? हमारा विश्वास है कि भारत के लोग जाति व्यवस्था को बनाये रखना चाहते
हैं । वे वर्गभेद के शिकार होते रहना चाहते हैं । जाति को लेकर भारत में शिकार
करना और शिकार होते रहना एक निर्लज्ज खेल बन चुका है । (इस निर्लज्जता के कई रूप
हैं जिन पर पृथक से चर्चा की जायेगी । )
विभिन्न
विधाओं में दक्ष रहा भारतीय समाज विभिन्न जातियों में बट कर वर्गभेद का शिकार हो
चुका है । “वर्ग” को हाइबरनेशन में भेज कर “भेद” को सक्रिय बनाये रखने की कूटनीति
को भारत का एक बड़ा वर्ग समझ पाने में असमर्थ रहा । यह असमर्थता भारतीय समाज की एक
गम्भीर व्याधि बन गयी है ।
मानव
सभ्यता के विकास के साथ ही जाति के रूप में समाज का व्यवस्थापन प्रारम्भ हो गया था
। विश्व की सभी सभ्यताओं में किसी न किसी नाम से जातियाँ अपने अस्तित्व में बनी
रही हैं । मनुष्य की बुद्धिमत्ता, कार्यक्षमता, दक्षता का संकल्प, लक्ष्य प्राप्ति
के लिये तपस्या और दूरदर्शिता आदि गुणों का बटवारा ईश्वर ने एक जैसा नहीं किया । यही
वे घटक हैं जिनसे विभिन्न क्षमताओं वाले लोग विकसित होते रहे और समाज में अपनी विशिष्ट
पहचान बनाते रहे । उनकी इस विशिष्ट पहचान ने जातियों का आधार प्रस्तुत किया और जातियाँ
अपने अस्तित्व में आयीं । श्रमिक, कृषक, ऑफ़िस के बाबू, कलेक्टर, न्यायाधीश, वकील,
उद्योगपति, नेता, अभिनेता ...ये सभी आधुनिक भारत की आधुनिक जातियाँ हैं । क्या इन
जातियों से किसी भी समाज या देश को मुक्त किया जा सकना सम्भव है ? हड़बड़ाये हुये
अव्यवस्थित भारत में कुछ समय पूर्व कुछ जातियों के जातिसूचक शब्द प्रतिबन्धित कर दिये
गये । अब समस्या यह थी कि उन्हें किस श्रेणी में रखा जाय ? उन्हें क्या कह कर
पुकारा जाय ? व्यक्तिगत नाम से पुकारने में वर्ग की पहचान लुप्त होने का संकट था ।
वर्ग का अस्तित्व राजनीति के अस्तित्व के लिये आवश्यक तत्व है । इस सबसे प्रभावित
वर्ग प्रसन्न था कि चलो अब कोई उन्हें जातिगत हेय सम्बोधनों से नहीं जानेगा ।
किंतु राजनीति के भोजन का एक ग्रास संकट में आ गया । विभेदक वर्गों को बनाये रखते
हुये विभेदक हेय दृष्टि को समाप्त करना तत्कालीन राजनीति की आवश्यकता थी । पहचान
बनाये रखना आवश्यक समझा गया । तब यह विचार किया गया कि संज्ञाओं को स्थानापन्न
करने से इस संकट को समाप्त किया जा सकता है । तब जातिगत शब्दों के स्थान पर दो समूहगत
शब्द अस्तित्व में लाये गये – हरिजन और आदिवासी । कुछ ही समय बाद इन नयी संज्ञाओं
ने अपनी पूर्व संज्ञाओं का भाव ग्रहण कर लिया और ये शब्द पुनः हीनभाव से ग्रस्त हो
गये । शुभ संज्ञायें अशुभ माने जाने लगीं, भेद समाप्त नहीं हो सका । संज्ञाओं के हेर-फेर
से वर्गभेद को एक बार फिर नया चोला पहनाने का प्रयास किया गया । इस बार नये शब्द
आये अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति । संज्ञायें बदल दी गयीं किंतु जो बदला जाना
था वह नहीं बदल सका । कुछ समय बीतने पर ये संज्ञायें भी अपनी मूल संज्ञा के भाव को
पूरी तरह ग्रहण कर लेंगी तब पुनः संज्ञायें बदल दी जायेंगी । जातिगत मूल पहचान की
आत्मा को बनाये रखना अनैतिक राजनीति की प्रमुख आवश्यकता है ।
बौद्धिकप्रतिभा,
क्षमता, कर्मठता और दक्षता आदि गुणों में वृद्धि के किसी निष्ठापूर्ण प्रयास के
बिना ही समाज में समानता लाने के अवैज्ञानिक प्रयासों के छल के साथ असमानता बढ़ाने
का राजनैतिक लक्ष्य पूरा किया जाता रहा । बड़ी चतुरता से गुणात्मक वृद्धि के
प्रयासों के स्थान पर गुणात्मक शिथिलता के अनुदान से समाज के एक वर्ग को अक्षम, अदक्ष
और अकर्मण्य बने रहने के लिये प्रोत्साहित किया जाता रहा । इस तरह जातिगत आरक्षण भारत
के विकास के मार्ग का एक स्थायी अवरोधक बन कर उभरा । आरक्षण इंसूलिन का वह सूचीवेध
है जो मधुमेह के साथ आँख-मिचौली खेलता हुआ इंसूलिन बनाने वाली बीटा कोशिकाओं को
धीरे-धीरे गला घोटकर मार देता है । दक्षता और योग्यता में शिथिलता के आधार पर दान
दी गयी भौतिक उपलब्धियों से न तो कोई देश समृद्ध हो सकता है और न इस तरह कर्मयोग
की कोई साधना सम्भव होती है । यह एक समाज-वैज्ञानिक सत्य है जिसकी भारत में निरंतर
अवहेलना की जाती रही है । संज्ञाओं के छल से मुक्त होकर गुणात्मक विकास की साधना
की आवश्यकता को भारत का बहुसंख्यक समाज जिस दिन समझ जायेगा उसी दिन भारत का ऐसा कायाकल्प
होगा जिसे देखकर पूरी दुनिया अचम्भित हुये बिना नहीं रहेगी ।
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