जब तुम
कहते हो कि ज़रा-ज़रा सी बात पर तुमसे अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देने की अपेक्षा
की जाती है तो हम पूछते हैं कि संदेह का यह वातावरण निर्मित ही क्यों और कैसे हुआ
? हमारे सन्देह के घेरे में पारसी, जैन, बौद्ध और सिख क्यों नहीं हैं ? क्या यह सच
नहीं है कि भारत की तबाही का एक बहुत बड़ा कारण वह समुदाय है जो अपने हर सिद्धांत
क्रूरतापूर्वक दूसरों पर थोपने का अभ्यस्त रहा है ?
भारत के
राजा-महाराजा आपस में एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहे हैं किंतु ऐसा कोई इतिहास नहीं
मिलता कि भारत ने अपनी सीमाओं से आगे बढ़कर कभी किसी पर आक्रमण किया हो । भारत में
धार्मिक पुनर्जागरण एवं मत-मतांतरों का इतिहास मिलता है किंतु सनातन धर्मियों,
जैनों, बौद्धों और सिखों द्वारा अन्य धर्मावलम्बियों के धर्मांतरण का कोई इतिहास
नहीं मिलता ।
उपलब्ध
इतिहास इस बात का साक्षी है कि आर्यावर्त की सीमाओं पर लगभग पूरे विश्व द्वारा
बारम्बार आक्रमण किये जाते रहे हैं । भारत की थलसीमायें ही नहीं बल्कि जलसीमायें
भी विदेशियों से आक्रांत होती रही हैं । मंगोलिया हो या उज़्बेकिस्तान, बैक्ट्रिया
हो या ईरान, ग्रीस हो या पुर्तगाल, डच, स्पेन, फ़्रांस और इंग्लैण्ड जैसे अन्य
योरोपीय देश सभी ने भारत की धरती को बारम्बार आक्रांत किया है और भारतीयों पर
अमानवीय अत्याचार किये हैं । क्या कभी भारत ने इन देशों पर प्रतिआक्रमण किया ?
हमने न
जाने कितनी बार और कितने विदेशियों दारा बर्बरतापूर्वक अपनी मातृशक्तियों के अपहरण
और बलात्कार का दंश झेला है । आज हमारे रक्त में यवन, शक, हूण, मंगोल, ग्रीक,
अरबी, ब्रिटिश .....पता नहीं कितनी बर्बर जातियों का रक्त सम्मिलित है । और फिर भी
तुम कहते हो कि हम असहिष्णु हैं !
कलियुग
के प्रभाव से सनातन धर्म के अनुयायियों में जब सामाजिक विकृतियाँ पनपने लगीं तो
जैन, बौद्ध और सिख धर्मों का नवनिर्माण हुआ किंतु धर्म को लेकर आपस में कभी किसी
ने रक्तपात नहीं किया । भारत में एक-दो नहीं छह दर्शन अस्तित्व में आये और सभी को
बड़े आदर के साथ स्वीकार किया गया । जगत्गुरु शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द सरस्वती,
स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों ने समय-समय पर धार्मिक जागरण के कार्य किये
किंतु कभी किसी को धर्मांतरण के लिये प्रेरित तक नहीं किया ।
भारत से
बाहर के लोग भारत पर आक्रमण कर न केवल भारत के लोगों को बारम्बार लूटते रहे बल्कि
धर्मांतरण के लिये लूट, नरसंहार और बलात्कार जैसी जघन्य और क्रूर घटनाओं को अपना
अस्त्र बनाते रहे । हम ऐसी विदेशी बर्बर सभ्यताओं को भी सहस्रों वर्ष तक सहते रहे,
फिर भी तुम कहते हो कि हम असहिष्णु हैं !
विदेशी
आयातित धर्मों ने भारत में क्रूरतापूर्वक अपना स्थान बनाया और देश खण्ड-खण्ड हो
गया । हम अपने ही घर में शरणार्थी होने लगे, फिर भी तुम कहते हो कि हम असहिष्णु
हैं !
निश्चित
ही सूफ़ीवाद को उसकी पवित्रता के कारण हमने स्वीकारा, पारसियों को उनकी मानवीयता के
कारण हमने स्वीकारा । हम कभी इनसे आतंकित नहीं हुये; सूफ़ियों ने भारत को भक्ति के
रंग में रंगा तो पारसियों ने भारत की धरती से बेपनाह मोहब्बत की और हर दृष्टि से
भारत को समृद्ध करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी । भारत की धरती ने इन्हें अपनी
कोख के जाये जैसी ममता दी और सिर आँखों पर रखा । हम कभी इनके प्रति संशकित क्यों
नहीं हुये ?
हमें
नहीं पता कि तुम्हारे धर्म में ऐसा क्या है कि तुम विश्व में हर जगह अधिसंख्य होने
का प्रयास करते हो फिर गान्धार, पाकिस्तान और बांगलादेश बन जाते हो ! सीरिया में
तुम हर उस लड़की (और छोटे लड़कों) से
सामूहिक बलात्कार करते हो जो मुसलमान नहीं है और फिर उसे दास मण्डी में ले जाकर
बेच देते हो । हमें नहीं पता कि आतंक का धर्म क्या होता है किंतु इतना अवश्य पता
है कि पूरे विश्व को जिन लोगों ने तबाह करना शुरू किया है वे स्वयं को इस्लाम का
अनुयायी कहते हैं । उनमें से आजतक किसी ने नहीं कहा कि वे यज़ीदी, ज़ेब्स या
ज़ोरोस्ट्रियन हैं । जिस तरह तुमने कश्मीरी पण्डितों के साथ बर्बरता की और अपनी
जनसंख्या बढ़ाने के लिये उन्हें बेघर करते रहे उसी तरह अब असम और पश्चिमी बंगाल में
तुम अपनी जनसंख्या बढ़ाते जा रहे हो और स्थानीय लोगों को वहाँ से पलायन करने पर
विवश करते जा रहे हो । पाकिस्तान और बांगलादेश के मूल हिन्दुओं की जनसंख्या निरंतर
कम क्यों होती जा रही है, इस ज्वलंत प्रश्न का तुम्हारे पास कोई तार्किक उत्तर
नहीं है । धर्म के आधार पर ही कश्मीर के पंडित क्रूरतापूर्वक बेघर कर दिये गये
अन्यथा क्या कारण था कि आज वे अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रहने को विवश हैं,
फिर भी तुम कहते हो कि हम असहिष्णु हैं !
हमें
पता है कि हम अपने जयचन्दों से हमेशा हारते रहे हैं । सुधीर कुलकर्णी, मणिशंकर
अय्यर और खड़गे जैसे जयचन्द हमारी दुर्बलतायें हैं फिर भी हम ईश्वर से प्रार्थना
करते हैं कि वह इन्हें सन्मति प्रदान करे । भले ही वे भारत के राजनैतिक और
सांस्कृतिक कैंसर हैं किंतु वे भी हमारे ही अंग हैं इसलिये हमें उनसे भी प्यार है
।
अब यह
मत कहना कि हम रसखान कवि, रहीम दास, अब्दुल हमीद और ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के
योगदान की उपेक्षा कर रहे हैं या फ़िल्मों में भक्तिगीत गीत रचने और गाने वालों की
उपेक्षा कर रहे हैं । ये वे लोग हैं जिन्होंने भारत की संस्कृति को अपनी आत्मा से
अपनाया । उनके लिये धर्म से बड़ी है मानवता और फिर भारत की संस्कृति और सभ्यता
जिसकी हम आपसे भी अपेक्षा करते हैं । एक बार अब्दुल हमीद और रसखान बनकर तो देखिये,
यह देश तुम्हें भी सर-आँखों पर उठा लेगा ।