दुनिया के हर समाज में विसंगतियाँ थीं, आज भी हैं ... और आगे भी रहेंगी ।
पहले तो मानवीय मूल्यों के पतन एवं स्वार्थपरता ने और फिर
शताब्दियों की पराधीनता ने भारत में एक ऐसे समाज को जन्म दिया जिसमें
मनुष्य-मनुष्य के बीच न जाने कितनी दीवारें खड़ी होकर भारतीय संस्कृति को धता बताया
करती थीं । एक-दूसरे के प्रति घृणा और कटुता से भरे दो शब्द, “ब्राह्मण” और “दलित” चर्चित होने लगे
। निश्चित् ही इस विभेद को उत्पन्न होने में कई सदियों का समय लगा था । कुछ
व्यक्तिगत अहंकार और कुछ राजनीतिक परिस्थितियों ने समाज में दो ऐसे वर्गों को
उत्पन्न किया जिनमें पारस्परिक मानवीय सम्बन्ध पूरी तरह शून्य हो गये । भारतीय
समाज के लिये ये दिन पतन की पराकाष्ठा के दिन हुआ करते थे ।
वर्गभेद और सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने का भारत में एक
प्रयास किया गया, यह एक अच्छी बात थी, किंतु कुछ चतुर
लोगों ने इस अच्छे उद्देश्य को एक चक्रव्यूह में फांस दिया । भारत की इन घृणास्पद
गलियों में घूमने से पहले थोड़ी देर के लिए हम आपको रूस लेकर चलना चाहते हैं ।
उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरकाल रूसियों के लिये अच्छा नहीं था, ज़ार के शासन में अत्याचार अपनी चरम सीमा पर था । सामाजिक
विसंगतियों और अन्याय को समाप्त करने के लिए रूस में बोल्शेविक क्रांति हुयी और
उन्नीस सौ अट्ठारह में रूस एक साम्यवादी देश बन गया । यह माना जाने लगा कि अब इस
नयी व्यवस्था से समाजवाद आयेगा, अन्याय समाप्त
हो जायेगा मालिक और नौकर का वर्गभेद मिट जायेगा... किंतु यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़
सोवियत रूस उन्नीस सौ इक्यानवे में टूट गया, टूटकर पन्द्रह
टुकड़ों में बिखर गया । क्यों बिखर गया ? क्या रूसियों को
साम्यवादी समाजवाद रास नहीं आया ? क्या वे
पूँजीवाद को श्रेष्ठ मानने लगे थे ? क्या उन्हें
सामाजिक अन्याय और वर्गभेद मिटाने के प्रयास अच्छे नहीं लगे ? क्या वे फिर से अपनी पुरानी व्यवस्था में लौट जाना चाहते
थे....... ?
चलिये, हम अपनी गन्दी
गलियों में वापस लौट चलते हैं । ...तो स्वाधीनता आन्दोलनों के ज़माने से ही भारत
में भी एक नयी व्यवस्था पर चिंतन प्रारम्भ हुआ । यह आरक्षण था निर्बल को सबल बनाने
के लिए । एक व्यूह रचना हुयी, उसके समानांतर
एक चक्रव्यूह रचना भी हुयी और इस तरह जो सबल हैं उन्हें निर्बल बना देने के मूल्य
पर आरक्षण की यात्रा प्रारम्भ हुयी ।
आरक्षण ने जातियों को समाप्त नहीं किया,उन्हें और भी सुदृढ़ कवच पहना दिया । जनता को भुलावे में
रखने के लिए कुछ जातिसूचक संज्ञाओं को अपराध घोषित कर दिया गया तो कुछ जातिसूचक
संज्ञाओं को जी भर अपमानित करने के अधिकार को “अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता” की आड़ में प्रोत्साहित किया जाने लगा । विगत सात दशकों में
भारत के समाज ने अनुभव किया कि “शासकीय आरक्षण” समाज को बांटता है, सामाजिक और
जातिगत विद्वेष में वृद्धि करता है, राजनीतिक
ध्रुवीकरण का एक माध्यम बनता है, राई को पर्वत और
पर्वत को राई करता है, अकर्मण्यता को प्रोत्साहित करता है, दक्षता की उपेक्षा करता है, अपात्र को सुपात्र और सुपात्र को अपात्र निर्णीत कर समाज में कुंठा एवं
हीनभावना उत्पन्न करता है ।
नदी पर सेतु का निर्माण तो अच्छा है किंतु बांध का निर्माण
! तात्कालिक लाभ के लिये हम सबने नदियों पर बाँध बनाने की संस्कृति को अपसंस्कृति
में बदल दिया । हम इस सिद्धांत की उपेक्षा करते रहे कि जल में यदि प्रवाह है तो वह
अपना मार्ग बना लेगा । इसका परिणाम यह हुआ कि भारत की प्रतिभाओं ने विदेशों की ओर
पलायन करना प्रारम्भ कर दिया । अमेरिकी और योरोपीय देशों ने भारत की प्रतिभाओं का
युक्तियुक्त सदुपयोग किया और प्रगतिपथ पर आगे बढ़ चले । इधर भारत में स्वयं को
दीन-हीन-मूर्ख-पिछड़ा-विपन्न-दरिद्र-शोषित और दबा कुचला घोषित किये जाने की एक
प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो गयी । आरक्षण के लिये हिंसक आन्दोलन होने लगे, हम अपने ही देश की सम्पत्ति को नष्ट करने में लग गये ।
भारतीय समाज ने स्वयं को उन्नत बनाने की अपेक्षा अवनत बनाना कहीं अधिक श्रेष्ठ
समझा । ठीक है, इस बीच हम अंतरिक्ष अनुसन्धान में आगे बढ़ते रहे किंतु
कम्प्यूटर के माउज़ के लिए तो चीन पर आश्रित हो गये न !
जो चल नहीं सकते थे उन्हें दौड़ने के लिये बैसाखियाँ दी गयीं
। जो दौड़ सकते थे उन्हें चलने के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया । अंधे और लंगड़े
के बीच शत्रुता उत्पन्न कर दी गयी, दोनों की मेला
घूमने की चाहत दम तोड़ गयी, दो में से कोई भी मेल नहीं जा सका... और अब उनमें से कोई
भी... कभी मेला नहीं जा सकेगा । एक आश्वासन निरंतर दिया जा रहा है कि वे दोनों
अंतरिक्ष की यात्रा पर अवश्य जायेंगे । अब हमें अन्धे और लंगड़े की अंतरिक्ष यात्रा
का विश्लेषण करना होगा ।
जब कोई सरकारी विभाग अपनी तंत्रीय दुर्बलताओं एवं अक्षमताओं
के कारण अपने लिये निर्धारित सरकारी कार्य सम्पन्न करने में असफल हो जाता है तो
किसी स्वयंसेवी संस्था को एक श्रेष्ठ और सक्षम विकल्प मानकर उसी कार्य के लिए
आमंत्रित किया जाता है । कुछ उदाहरण देखिये –
1- शिक्षा के क्षेत्र में शासकीय तंत्रों की असफलता के बाद
निजी तंत्रों को फलने-फूलने का अवसर प्राप्त हुआ ।
2- चिकित्सा के क्षेत्र में भी यही कहानी दोहरायी गयी ।
3- औद्योगिक क्षेत्रों में शासकीय तंत्रों के घाटे में चलने के
किस्से कौन नहीं जानता ।
4- रेल के अतिरिक्त लगभग सारा परिवहन तंत्र निजी हाथों में चला
गया है और अब कुछ रेलवे स्टेशंस भी निजी उद्योगपतियों को दिये जाने की तैयारी हो
गयी है ।
भारत में आरक्षण का भविष्य क्या है ?
सीधी सी बात है, एक दिन राजतंत्र
की स्थापना के साथ आरक्षण समाप्त कर दिये जाने की घोषणा कर दी जायेगी । यह
भविष्यवाणी आपको चौंका सकती है किंतु आगम यही है । हमें आरक्षण के चक्रव्यूह का
विश्लेषण करना होगा ।
1- आरक्षण का प्रथम् व्यूह एक वर्ग की प्रतिभाओं को आगे नहीं
जाने देता जिससे वे निजी क्षेत्रों के साथ-साथ अमेरिकी और योरोपीय देशों की ओर
पलायन करते हैं । इसका परिणाम यह हुआ है कि अमेरिकी और योरोपीय देश भारतीय
प्रतिभाओं का उपयोग अपने विकास के लिए कर पा रहे हैं, वहीं भारतीय पूँजीपति और सार्वजनिक उपक्रमों के निजी
क्षेत्रों ने भी इन प्रतिभाओं के लिये अपने द्वार खोल दिये हैं ।
2- आरक्षण का द्वितीय व्यूह एक वर्ग के अ-प्रतिभावान लोगों का
शासन के तंत्रों और सार्वजनिक उपक्रमों में स्वागत करता है, उनके लिये पलक पाँवड़े बिछाये तैयार रहता है जिसका तात्कालिक
प्रभाव व्यवस्था, कुशलता और उत्पादन को गुणवत्ताविहीन करने के रूप में फलित
हो रहा है ।
3- आरक्षण का तृतीय व्यूह अनारक्षित वर्ग को तीव्र
प्रतिस्पर्धा और तद्जन्य प्रखर दक्षता के लिये प्रेरित कर रहा है जो आगे चलकर दक्ष
और अदक्ष के ध्रुवीकरण का कारण बनेगा ।
4- आरक्षण का चतुर्थ व्यूह एक वर्ग के अदक्ष लोगों को
बैसाखियों का प्रायः दास बना रहा है, यह दासता उन्हें
गुणात्मक दृष्टि से कभी आगे नहीं बढ़ने देगी ।
5- आरक्षण का पञ्चम् व्यूह गुणवत्ता का ध्रुवीकरण करने में सफल
हुआ है । भारत में शासकीयतंत्र अक्षम, अकुशल और
अकर्मण्य व्यवस्था में परिवर्तित होते-होते निरंतर निर्बल होते जा रहे हैं जबकि
इसके ठीक विपरीत निजीतंत्र दक्षता, कुशलता और
जुझारूपन के साथ प्रबल होते जा रहे हैं... होते जायेंगे । इस तरह भारत में एक और
ध्रुवीकरण निरंतर सुदृढ़ होता जा रहा है ।
6- आरक्षण का षष्ठम् व्यूह जातिगत ध्रुवीकरण को और भी तीव्र कर
रहा है जिससे सामाजिक खाइयाँ और भी बढ़ रही हैं ।
7- आरक्षण का सप्तम् व्यूह राजनीतिक अवसरवादिता को और भी
प्रचण्ड कर रहा है जिससे भविष्य में क्रांति की सम्भावनायें प्रबल होती जायेंगी ।
8- आरक्षण का अष्टम् व्यूह समाज को कई वर्गों में विभक्त कर
उसे दुर्बल कर देगा ।
9- आरक्षण का नवम् व्यूह निजीतंत्रों, पूँजीपतियों और दक्ष लोगों को शासकीयतंत्रों और अदक्ष लोगों
के विरुद्ध एक सहज संघर्ष के लिये प्रेरित करेगा जिससे लोकतंत्र समाप्त हो जायेगा
और राजतंत्र का पुनरुद्भव होगा ।
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