असीम की सीमा का यह कैसा प्रगतिवादी
प्रश्न ?
सिन्धुघाटी, मिस्र, अरब और
ग्रीस आदि की प्राचीन सभ्यताओं में भी अभिव्यक्तियों ने मूर्तियों, चित्रों, खेलों, नाटकों
आदि के रूप धारण किए हैं । यह अभिव्यक्ति ही है जो ध्वनि, बोली, भाषा और
अंत में लिपि के रूप में मूर्तमान होती है । आकृतियाँ तो रहेंगी, बनती
रहेंगी, बिगड़ती
रहेंगी । वे देवी-देवताओं की मूर्ति के रूप में हो सकती हैं, मनुष्य
की अपनी ही प्रतिकृति के रूप में हो सकती हैं, मोनालिसा
की मूर्ति हो सकती है, यहाँ तक
कि मैडम तुसाद के म्यूज़ियम में अमिताभ बच्चन के रूप में या फिर लखनऊ के पार्कों
में मायावती की आदमकद मूर्तियों और उनके हाथियों के रूप में भी हो सकती हैं ।
देवी-देवताओं
की मूर्तियों के निर्माण और उनके व्यापार को लेकर एक बचकाना सा प्रगतिवादी व्यंग्य
किया जाता है, जिसने मनुष्य को बनाया क्या मनुष्य उसे बना सकता है ? असीम की सीमा का यह कैसा प्रगतिवादी
प्रश्न ?
यह एक बौद्धिक
प्रश्न नहीं हो सकता । प्रथमतः, भौतिक द्रव्य से निर्मित देवी-देवताओं की मूर्तियाँ
ही भगवान या ईश्वर हैं, ऐसा किसी भी भारतीय दर्शन में उल्लेख नहीं किया गया है । भारतीय
दर्शन तो परम सत्ता को निराकार, निर्गुण, अनादि और अखण्ड मानता है ।
मूर्त
ब्रह्म का जो अंतिम कारण है वह स्वयं में किसी का कार्य कैसे हो सकता है ? यह
विज्ञान सम्मत भी है और आध्यात्म सम्मत भी । लोग जो बनाते हैं वह मूर्ति है, ब्रह्म
नहीं । निराकार और निर्गुण को कौन बना सकता है ? यदि हम
किसी कलाकार की बनायी मूर्ति को भगवान, ईश्वर
या ब्रह्म मानने लगें तो हमारा दोष है, मूर्तिकार
का नहीं ।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 94वीं पुण्यतिथि : कादम्बिनी गांगुली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंकुछ सवाल ऐसे होते है जिसका जवाब हर व्यक्ति के लिये अलग हो सकता है. सुंदर आलेख. बधाई स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
हटाएंनिश्चित ही, यह इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति अपनी चेतना के किस स्तर पर किसी उत्तर को स्वीकार कर पाने की स्थिति में है । यह तो जन्म-जन्मांतर की यात्रा है, पता नहीं हम सब अपने-अपने किस पड़ाव पर हैं ।
शरीर जड़ है किन्तु उसमें चेतन आत्मा का वास है, पौधों में भी चेतना है, इसी तरह हर जड़ वस्तु में किसी न किसी अंश में मूल तत्व विद्यमान है. मूर्ति के अंदर पहले प्राण प्रतिष्ठा की जाती है अर्थात उस तत्व को जागृत किया जाता है, यहाँ भावना की ही प्रधानता है.
जवाब देंहटाएंईश्वर के प्रति हमारी अवधारणा या तो वैज्ञानिक है या फिर आस्थाजन्य । विवाद तब होता है जब हम ईश्वर को एक चमत्कारी व्यक्ति जैसा कुछ मानने लगते हैं । जो ईश्वर को नहीं मानते वे वास्तव में विज्ञान को नहीं जानते । बीच में एक तत्व और है - पाखण्ड... जो इन दोनों के मध्य एक अपारदर्शी दीवाल सा खड़ा है ।
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