भारत में गुरुकुल पद्धति के अवसान के पश्चात् से शिक्षा का
सम्यक स्वरूप समाप्त हो गया है जिससे शिक्षित लोगों के सामाजिक और राष्ट्रीय
चरित्र में आये पतन का स्पष्ट प्रभाव चारों ओर देखने को मिल रहा है । उच्च शिक्षा
प्राप्त लोगों की आर्थिक और नैतिक अपराधों में लिप्तता एक चिंता का विषय है जिसने
शिक्षा के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । गुरुकुलों के अवसान के पश्चात्
तत्कालीन विदेशी सत्ता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये स्वार्थमूलक होने से
पश्चिमी देश-काल से प्रभावित जिन शालाओं और विद्यालयों का प्रचलन भारत में हुआ
उनका उद्देश्य भारतीय समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं था ।
स्वाधीनता के पश्चात् भी हम उस नवीन किंतु दोषपूर्ण व्यवस्था का त्याग नहीं कर सके
जिसका परिणाम यह हुआ कि आज शिक्षा के क्षेत्र में भारत की श्रेष्ठता पूरी तरह
समाप्त हो चुकी है । साम्यवादी चीन शिक्षा के क्षेत्र में भी हमसे बहुत आगे निकल
चुका है किंतु यह रुदन अब और कब तक करते रहेंगे हम ! हमें कुछ समाधानात्मक
क्रांतिकारी कदम उठाने ही होंगे ।
प्रथम तो यह कि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए हमें देश-काल
मूलक सामूहिक प्रयास करने होंगे । शिक्षकों की योग्यता, दक्षता और समर्पण आज के
भारत की प्रबल समस्या है । प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षकों की न्यूनतम योग्यता
स्नातक एवं विज्ञान विषयों के साथ इंटरमीडिएट होनी चाहिये साथ ही उन्हें
बालमनोविज्ञान का कम से कम एक वर्ष का एक विशेष पाठ्यक्रम करवाया जाना चाहिए जिससे
बच्चों की नींव सम्यक एवं सुदृढ़ हो सके । शिक्षा का माध्यम
प्रांतीय भाषायें हों किंतु राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक बहु प्रचलित भरतीय भाषा को
राष्ट्रीय सम्पर्क की भाषा बनाया जाना चाहिये । वहीं देशी भाषाओं की समृद्धि के
लिए संस्कृत की अनिवार्यता की जानी चाहिए । छात्राओं का यौनशोषण
करने वाले शिक्षकों के लिए मृत्युदण्ड की अनिवार्य व्यवस्था हो । हर शिक्षक को
किसी भी प्रकार के व्यसन से मुक्त रहने की अनिवार्यता होनी ही चाहिये अन्यथा उसकी
सेवायें समाप्त कर दी जानी चाहिए । शिक्षा को व्यवसाय से हटाकर यज्ञ की तरह
प्रतिष्ठित करना होगा ।
शिक्षा और व्यावहारिक जीवन के बीच एक गहरी खाई बन गयी है
जिसके कारण शिक्षा पूर्ण करने के बाद युवक-युवतियों में आत्मविश्वास और
आत्मनिर्भरता का अभाव होता है । यह एक ऐसा नकारात्मक पक्ष है जिसने शिक्षा के
महत्व को न्यून कर दिया है । हमें शिक्षा को व्यावहारिक बनाना होगा जिससे
व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा की उपादेयता प्रकाशित हो सके । वर्तमान
भारत की आवश्यकता अपनी शिक्षा को मूल्यपरक, नीतिपरक, स्वाभिमानपरक, आत्मनिर्भरता परक, राष्ट्रपरक और पर्यावरणपरक बनाने की है । आज की शिक्षा केवल
सूचनापरक हो कर रह गयी है, शिक्षा को व्यावहारपरक बनाने के लिए उसमें जीवन से जुड़े नैतिक एवं वैज्ञानिक
पक्षों का भी व्यावहारिक समावेश करना होगा । इसके लिए शिक्षा नीति, पाठ्यक्रम और शिक्षा के माध्यमों में आमूल परिवर्तन करने
होंगे जो विद्यार्थियों को भारत राष्ट्र, भारतीय जीवनमूल्यों, आदर्शों और भारतीय समाज की आवश्यकताओं को समझने में सहायक
हों। पाठ्यक्रम का प्रभाव मानवीय और वैज्ञानिक होना चाहिये जिससे शिक्षा और जीवन
के व्यावहारिक पक्ष के मध्य की गहरी खाई को पाटा जा सके । पाठ्यक्रमों में विज्ञान
और आध्यात्मिक तत्वों का समन्वय किया जाना चाहिये ताकि विज्ञान का लोकहित में अधिक
से अधिक उपयोग करने की समझ विकसित हो सके । योग्यता की वर्तमान मूल्यांकन पद्धति
दोषपूर्ण एवं भ्रष्ट है, मूल्यांकन के लिए अध्ययनकाल में सतत मूल्यांकन की पद्धति विकसित की जानी चाहिए
जो विद्यार्थी की योग्यता एवं व्यक्तित्व का सर्वांगीण मूल्यांकन कर सके । वर्धा
मेडिकल कॉलेज की तरह श्रम एवं लोक व्यावहारिक की शिक्षा एवं इज़्रेल की तरह सैन्य
शिक्षा हर विद्यार्थी के लिए अनिवार्य की जानी चाहिए ।
विद्यालयों में प्रवेश के लिए छात्रों की पात्रता एवं
उपयुक्तता के निर्धारण हेतु ऐसे नए मूल्य निर्धारित करने होंगे जिनमें प्राकृतिक
न्याय के साथ-साथ राष्ट्रीय और सामाजिक मूल्यों का भी अनिवार्य समावेश हो और किसी
भी शिक्षार्थी को कुंठित न होना पड़े । शिक्षा के क्षेत्र से आरक्षण को पूरी तरह
समाप्त किया जाना चाहिए । यह एक अवैज्ञानिक, अमानवीय और
अनैतिक व्यवस्था है जो किसी समाज विशेष के उत्थान के स्थान पर उसका पतन ही अधिक
करेगी । निर्धनों की शिक्षा पूरी तरह शुल्कमुक्त एवं पूर्ण सुविधायुक्त हो । शिक्षा के उन्नयन के नाम पर किए जाने वाले प्रयोगों के
औचित्य पर गम्भीर मंथन हो, आवश्यक होने पर ही प्रयोग किए जायं और उनकी सीमा एवं एक
निश्चित समयांतराल पर समीक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिये ।
शासकीय विद्यालयों की विभिन्न श्रेणियाँ और उनके स्तर
समाप्त किए जाने चाहिए । शिक्षा की निजी संस्थाएं व्यावसायिक हो गयी हैं और शिक्षा
के मौलिक तत्वों की हत्या कर दी गयी है । शिक्षा को भ्रष्टाचारमुक्त करना भारतीय
समाज और उसके विकास के लिए पहली आवश्यकता के रूप में लक्षित होना चाहिये । देश में
शिक्षा की एक ही प्रणाली और एक समान स्तर के लिए केवल शासकीय संस्थाएं ही शिक्षा
के लिए मान्य हों । देश का हर विद्यालय आदर्श विद्यालय होना ही चाहिए, आख़िर शिक्षा
के क्षेत्र में आदर्श से निम्न किसी भी स्तर की बात सोची भी कैसी जा सकती है !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गणेश शंकर विद्यार्थी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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