कहाँ खोये हैं समग्र सफलता
के सूत्र –
क्या है
सफलता... उच्च शिक्षा ? उच्च पद ? सम्मान ? अच्छे संसाधन ? सम्पत्ति ? यदि यही
सफलता है तो इन उपलब्धियों के बाद भी रात में नींद क्यों नहीं आती ? हाइपरटेंशन
क्यों है ? हार्ट अटेक क्यों हुआ ? डायबिटीज़ टाइप टू क्यों हुआ ?
शायद हम
मार्ग के पड़ावों को ही मंजिल समझ बैठे हैं... तब क्या है हमारी मंजिल जिसे हम
पहचान नहीं पाये अभी तक ?
हमारी
मंजिल है वह ज्ञान जो मन को निर्मल कर सके, वह कार्य जो आनन्ददायी हो, वह जीवन जो
सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो, वह भोजन जो स्वास्थप्रद हो, वे इन्द्रियाँ जो
जीवन के अंतिम क्षणों तक निर्दुष्ट बनी रहें, वे अनुभव जो दूसरों के लिये
प्रेरणादायी हो सकें, वह समय जो प्रेम से अनुरक्त हो, वह शोध जो पर्यावरण अविरोधी
और लोककल्याणकारी हो, वह कुटुम्ब जो पूरी धरती पर फैला हो ।
शाला
में पहला चरण रखते ही बच्चों के सामने एक नया परिवेश होता है जो उसे कहीं से भी
परिचित सा नहीं लगता, कानों में पड़ने वाले शब्दों की भाषा अपरिचित होती है, गीतों
और कहानियों में किसी अनजान देश के दृश्य होते हैं जिनमें भारत सी साम्यता को
खोजना पड़ता है । हमारे पाठ्यक्रम ऐसे नहीं हैं जो जीवनोपयोगी हों, हमें नैतिक
दृष्टि से बलशाली बना सकें और हमारे राष्ट्रीय गौरव को प्रकाशित और हमें प्रेरित
करते हों । इतिहास में पक्षपातपूर्ण, अधूरी और मिथ्या घटनायें हैं । शास्त्रों में
प्रक्षिप्तांश डाल दिये गये हैं जिनके परिमार्जन के लिये कभी विचार भी नहीं किया जाता
। हमारे विरुद्ध पश्चिम का छेड़ा सांस्कृतिक युद्ध अब हमने अपने हाथ में ले लिया है
और हम अपने ही विरुद्ध युद्ध कर रहे हैं । विश्वविद्यालयीन छात्रों और अध्येताओं
में भटकाव है । हम पहले से ही नारीमुक्ति जैसे विषयों में उलझे हुये थे अब
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, राष्ट्रवाद और आज़ादी जैसे विषयों की परिभाषाओं में भी
उलझ गये हैं । हमारी समस्या यह है कि हम समस्या को पहचानने का कोई प्रयास नहीं कर
रहे हैं । मूल समस्या को हम समस्या मानना ही नहीं चाहते और निरंतर प्रयोग पर
प्रयोग करते चले जा रहे हैं । जीर्ण-शीर्ण और लम्बी दरारों वाली लकड़ी की नाव पर
बैठकर हम ज्ञान के अथाह सागर में उतर पड़े हैं ।
क्या है समग्रता –
समग्रता
के आयाम “स्व” तक ही सीमित नहीं हैं । “स्व” की समग्रता “सुखायु” दे सकती है
“हितायु” नहीं । महर्षियों ने “हित आयु”, “अहित आयु”, “सुख आयु” और “दुःख आयु” भेद
से मनुष्य के चार प्रकार के जीवनों का उल्लेख किया है जिनमें “हित आयु” को
परमार्थकारी होने से समग्रता का प्रतीक माना गया है । प्राणिमात्र में अभेदकारी
दृष्टि रखने वाली यह समग्रता स्वहित से अपकेन्द्रित हो कर लोकहित में व्याप्त हो
जाती है । यह समग्रता भौगोलिक और धार्मिक सीमाओं से परे किसी पीड़ित को देखकर दुःखी
हो जाती है । यह समग्रता विविध शासनतंत्रों की लोक-कल्याणकारी भावनाओं और
आत्मानुशासन का सार है । यह समग्रता ही जैव विविधता और पर्यावरण को भी करुणा और
प्रेम से देख पाती है ।
कहाँ अटक गये हम, कहाँ
भटक गये हम –
अन्धानुकरण
में अटक गये हैं और छोटी-छोटी उपलब्धियों के जंगल में भटक गये हैं हम । कबीर के
पास किसी विश्वविद्यालय की उपाधि नहीं थी फिर भी वे विश्वविद्यालय के लिये उपाधि
का एक विषय बन गये । आज जब हम अपने आसपास के शिक्षित समुदाय को देखते हैं तो वहाँ वह
कुछ भी दिखायी नहीं देता जो दिखायी देना चाहिये बल्कि दिखायी देता है भटकाव,
व्यग्रता, निराशा और घोर तमस । हम सब व्यापक स्तर पर वैचारिक और पारिवारिक शून्यता
के शिकार हो गये हैं जिसके परिणामस्वरूप हमें समाज और राष्ट्र के हर क्षितिज पर
शून्यता का सामना करना पड़ता है ।
किसी भी
चिकित्सालय में आने वाले रुग्णों में अनिद्रा, उच्चरक्तचाप, मनः अवसाद एवं अन्य कई
प्रकार के मनोविकारों की संख्यात्मक वृद्धि एक चिंता का विषय है । शिक्षित लोग तो
इन लक्षणों से और भी पीड़ित हो रहे हैं । बचपन में माँ ने सिखाया था – “येषां न
विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मर्त्यलोके भुवि
भारभूताः, मनुष्य रूपेण मृगाश्चरंति ॥
बड़े
हुये तो विद्या के पीछे दौड़ पड़े, विद्या से आगे की चीजों तक पहुँच ही नहीं सके ।
जैसे-जैसे विद्या का भार बढ़ा वैसे-वैसे अहंकार भी बढ़ता गया । विद्या मिली, ज्ञान
नहीं मिला । तप किया ही नहीं तो दान का प्रश्न ही नहीं उठता । तप, दान और ज्ञान के
अभाव में शील ने आने से मना कर दिया । गुणाधान की पात्रता विकसित नहीं कर सके और
धर्म को कभी समझने की आवश्यकता ही नहीं समझी । जीवन के कई युग व्यतीत करने के बाद
प्रतीत हुआ कि जिसे लेकर हम भागे जा रहे हैं वह तो बहुत भारी है । इस बोझ को ढो कर
यात्रा पूरी नहीं की जा सकेगी ।
विद्यालय
से लेकर विश्वविद्यालय तक की यात्रा में उपाधियों के ढेर लगते गये । बोझ बढ़ता गया
। जीवन भारी होता गया । जीवन भारी हुआ तो इस भारीपन से मुक्त होने के लिये धन की
ओर दौड़ पड़े । धन से जो क्रय किया जा सकता था वह सब क्रय कर लिया... बोझ और बढ़ गया
। मन जब लघुता के लिये व्यथित होने लगा तो समझ में आया कि हम तो विद्या में ही
उलझे रह गये थे, उससे आगे तो बढ़े ही नहीं... मन निर्मल होता कैसे !
विद्या
पाकर अन्दर की मलिनता और भी उत्प्रेरित और कठोर हो गयी । मलिनता – मन में,
विद्यालयों में, पाठ्यक्रमों में, योग्यता के मूल्यांकन में, प्रवेश परीक्षाओं
में, शासकीय सेवाओं में, योजनाओं में, उनके क्रियान्वयन में ...और उस उपार्जित धन
में भी जो अधर्मपूर्वक अर्जित किया गया । विद्या भूलभुलैय्या हो गयी । उच्चाधिकारी
घृणित कार्यों में लिप्त होने लगे । संत असंतत्व में लीन होने लगे । मार्गदर्शक
स्वयं ही दिशाविहीन होने लगे... समाज बिखरता चला गया और अब देश भी टूटने की कगार
पर आ खड़ा हुआ है ।
विद्या
से शिल्प नैपुण्यता तो मिल सकती है किंतु बन्धनों से मुक्ति नहीं, तब यह कैसी
विद्या है जिसके पीछे दौड़ते जा रहे हैं हम ? दुर्भाग्य से ऋषियों की चेतावनी पर
हमने कभी विचार ही नहीं किया –
तत्कर्म
यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं
कर्म विद्यऽन्या शिल्पनैपुणम्॥१-१९-४१॥
–श्रीविष्णुपुराणे
प्रथमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः
इस मलिनता को दूर करने का अभियान हमें
स्वयं से और अपने परिवार से प्रारम्भ करना होगा, संतति के लिये यज्ञ करना होगा,
माँ को ‘माँ’ बनना होगा, पिता को ‘पिता’ बनना होगा । संस्कारों का बीजारोपण घर से करना
होगा जो माँ के दूध से सींचा जायेगा, पिता की गोद में पाला जायेगा, दादी और दादा
के स्नेह से पुष्पित होगा । संयुक्त परिवारों की परम्परा को पुनर्स्थापित करना
होगा ।
दुर्भाग्य
से हमने समानता का ऐसा स्वप्न देखा जिसमें स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री के
दायित्व निभाने की स्वतंत्रता में ही जीवन की सार्थकता प्रतीत होने लगी । संयुक्त
परिवारों की संरचना टूटने लगी, बच्चों को श्रमजीवी सेवकों की गोद मिली और सहज
प्रेम एवं संस्कारों की गौरवशाली परम्परा स्वप्न बन कर रह गयी । इस मकड़जाल में
उलझे समाज को विकल्प चाहिये तो विकल्प में वसुधा को कुटुम्ब स्वीकारना होगा ।
सेवानिवृत्त लोगों को अपने नगर में अध्ययन के लिये आने वाले विद्यालयीन और
महाविद्यालयीन छात्र-छात्राओं को गोद लेना होगा । एक नया गुरुकुल विकसित करना होगा
। ध्यान रखिये, चीन का उदाहरण हमारे सामने है । चीन पश्चिम का अनुसरण नहीं करता ।
हमें भी अपना पथ स्वयं निर्मित करना होगा ।
विद्या हेतु पात्रता का निर्धारण –
यस्य
नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां
विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥
हमारी
सुबह समाचार पत्रों से होती है जिनमें लिखा होता है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के
सचिव स्तर का कोई उच्च अधिकारी किसी अपराध में पकड़ा गया, सेतु निर्माण में
इंजीनियर ने घटिया सामग्री का प्रयोग किया जिससे निर्माण के दो माह बाद ही पुल गिर
गया और कई लोगों की मृत्यु हो गयी, सर्जन ने किसी ग़रीब की किडनी निकाल कर बेच दी,
शिक्षक अपने विद्यालय की एक छात्रा के साथ मुँह काला करते हुये पकड़ा गया या ऐसी ही
अन्य सूचनायें... । हम सब ऐसी नकारात्मक सूचनाओं के अभ्यस्त हो चुके हैं । हमें इन
घटनाओं का विश्लेषण करना होगा । उच्च शिक्षित व्यक्ति इतना ज्ञानशून्य, विवेकशून्य
क्यों है ? वह क्या है जो उच्च शिक्षा भी हमें दे नहीं सकी ?
हमारे पास वेद हैं, शास्त्र हैं, सूचनाओं
से परिपूर्ण पुस्तकें हैं, कच्ची-पक्की सूचनाओं से भरे अंतर्जाल हैं... और इन सबको
अच्छी तरह, बड़े जतन से अपने सिर पर लादे चले जा रहे हैं हम... उस दिशा में चले जा
रहे हैं जहाँ भ्रष्ट आचरण के विशाल विवर बने हुये हैं जो ब्रह्माण्ड के कृष्ण-विवर
की तरह अद्भुत आकर्षण से युक्त हैं, जहाँ समा जाती हैं शास्त्रों की सारी सूचनायें
और निरर्थक हो जाती है विद्या ।
प्रज्ञा
के अभाव में शास्त्र भी निरर्थक हो जाते हैं । प्रज्ञा वह अंतर्चेतना है जिसे
विद्या से प्रखर तो किया जा सकता है किंतु उत्पन्न नहीं किया जा सकता । विद्या का
सच्चा अधिकारी तो प्रज्ञावान ही होता है । हर कोई विद्या का पात्र नहीं होता ।
कैसे निर्धारित हो यह पात्रता ? समाधान के लिये हमें गुरुकुल-युग में झाँक कर
देखना होगा ।
उच्च
शिक्षा के लिये आने वाले आवेदकों की पात्रता का निर्धारण जिस प्रवेश परीक्षा के
द्वारा किया जा रहा है वह तो पिछली परीक्षाओं की ही पुनरावृत्ति है, उसमें नवीनता
क्या जो आगे की शिक्षा के लिये पात्रता का निर्धारण कर सके ? यह कैसे निर्धारित हो
कि कोई व्यक्ति न्यूक्लियर पॉवर की विद्या प्राप्त करने के बाद उसका दुरुपयोग नहीं
करेगा ? विद्या के नाम पर बांटी जा रही सूचनाओं से नैतिक चरित्र सुदृढ़ नहीं होता ।
गम्भीर प्रकृति की विद्या देने से पूर्व क्या हमें विद्यार्थी के चरित्र का
मूल्यांकन नहीं करना चाहिये ? विद्या के लिये गुरुकुल युगीन चारित्रिक पात्रता के
मूल्यांकन की परम्परा समाप्त कर दी गयी । गम्भीर एवं संवेदनशील प्रकृति की तकनीकी
सूचनायें रिस कर शत्रुओं के पास पहुँचने की सम्भावनायें बढ़ गयीं, अधिकारी अवैध
धनोपार्जन में लग गये और शिक्षक अपनी छात्राओं के साथ मुँह काला करने लगे । ऐसे
आचार्यों के सिखाये जीवन आदर्श विद्यार्थियों के लिये कितने आचरणीय होते हैं? क्या
ये आचार्य गुरु की आदर्श गरिमा का लेश भी स्पर्श कर पा रहे हैं ? “रविसन्निधिमात्रेण
सूर्यकान्ता प्रकाशयेत् । गुरुसन्निधिमात्रेण शिष्यज्ञानं प्रकाशयेत्” ॥ हमारा
समाज इन मात्र सूचना-प्रदाता रह गये गुरुओं से क्या आशा कर सकता है !
आधुनिक शोध कितने
उपयोगी –
भारत
में वैज्ञानिक शोधों को लेकर हम बहुत अवैज्ञानिक होते जा रहे हैं । शोध के
उद्देश्य, उसकी विधियाँ और उसकी दिशा पर जो चिंतन होना चाहिये था वह नहीं हो सका ।
इसके परिणामस्वरूप हमारा सम्यक विकास तो प्रभावित हुआ ही पर्यावरण भी गम्भीररूप से
क्षतिग्रस्त होता जा रहा है । बाजार अनावश्यक वस्तुओं से पटे पड़े हैं जिनकी जीवन
के लिये कोई उपयोगिता नहीं है बल्कि वे हमारे स्वास्थ्य को भी गम्भीररूप से
प्रभावित कर रहे हैं । जेनेटिकली मोडीफ़ाइड कृषि उत्पादों की आँधी सी चल पड़ी है
जिसने किसानों से उनकी स्वतंत्रता छीन ली है और वे बीजों के लिये बीज उत्पादक
उद्योगों पर आश्रित हो गये हैं । जेनेटिकली मोडीफ़ाइड बीजों की फसल से उत्पन्न बीज
अगली फसल के लिये अनुपयोगी होते हैं । किसानों को हर बार नये बीज लेने पड़ते हैं ।
यह बात अच्छी तरह समझनी होगी कि जो बीज अगली फसल नहीं दे सकते ऐसे अनाजों और फलों
के सेवन से हम कितने स्वस्थ्य रह सकेंगे ?
शोध के
उद्देश्य लोकजीवन के नैतिक उन्नयन और आनन्द से रहित हैं । वहाँ परिमाणात्मक
प्रतिस्पर्धा है जिसमें गुणात्मकता पर ध्यान नहीं दिया जाता । शोधों के लक्ष्य
औद्योगिक उत्पादकता से प्रभावित हो रहे हैं । रिफ़ाइण्ड तेलों, सौन्दर्य प्रसाधनों
और हानिकारक एवं अनावश्यक औषधियों की बाजार में भरमार है जो हमें केवल रुग्ण ही
बना रही हैं । विश्वविद्यालयीन शिक्षा जीवन के प्रति उदासीन है, उच्च शिक्षित
लोगों को भी न तो जीवन शैली के बारे में कुछ ज्ञात है और न जीवन मूल्यों के बारे
में । तब यह दायित्व किसका है जो लोगों को जीवनोन्मुख बना सके ? इस प्रश्न का
उत्तर हम सब जानते हैं, किंतु मान नहीं पाते उसे । मानने के लिये हमें अपनी
आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करना होगा ।
आध्यात्मिक चेतना के
जागरण की आवश्यकता –
अठारहवीं
शताब्दी के प्रारम्भ में औद्योगिक क्रांति के साथ जब दुनिया ने एक नये युग में
प्रवेश किया तो लोगों को लगा था कि अब यह धरती परीकथाओं में वर्णित स्वर्ग जैसी
सुखद हो जायेगी । इस युग में अचम्भित कर देने वाली बड़ी-बड़ी मशीनें थीं, नये-नये
आविष्कार थे, वैज्ञानिक चमत्कार थे और समय एवं दिशा को
जीतने के होड़ थी । पूँजी, कच्चामाल और बाज़ार केन्द्रित औद्योगिक क्रांति ने लोगों
के चिंतन और जीवन को बदल दिया । लोग नये मूल्यों और नयी मान्यताओं के साथ नये तरीके
से दुनिया का विकास कर रहे थे । भारत में गुरुकुल समाप्त हो गये और योरोपीय पद्धति
की शिक्षा ने अपने जड़ें भारत में भी दृढ़ता से जमा लीं । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद
भारत में भी औद्योगिक क्रांति की हवा चली जिसमें भारतीय मूल्य तिनकों की तरह उड़
गये और रह गयी एक निष्ठुर यांत्रिक गतिविधि । आज भारत के पास बहुत कुछ है किंतु वह
नहीं है जो कभी उसका अपना हुआ करता था । शिक्षा है किंतु मानवीय मूल्य नहीं हैं,
विकास है किंतु संवेदना नहीं है, संपत्ति
है किंतु नीति नहीं है, संपन्नता है किंतु प्रसन्नता नहीं
है । हम भटके हुये हैं, दिशाहीन यात्रा कर रहे हैं
क्योंकि अब हम अपनी समस्याओं को पहचानने में भी अक्षम हो गये हैं, यही कारण है कि समाधान हमसे बहुत दूर है । हम एक जीर्ण-शीर्ण और दरारों
वाली नाव से समुद्री यात्रा करने के लिये निकल पड़े हैं । प्रतिभा पलायन हमारी
दुर्बल नीतियों का प्रत्यक्ष परिणाम है । लोकनायक जयप्रकाश जी जिस युवा शक्ति को
लेकर समग्र क्रांति करना चाहते थे वह सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना के अभाव में
भटकती चली गयी । भारत के उत्कृष्ट जीवन मूल्यों को पुनः पाने के लिये हमें अपनी
सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना को जगाना ही होगा, समग्र विकास तभी सम्भव हो सकेगा
।