देश-काल
के अनुरूप एक सीमा तक चिंतन और वैचारिक भिन्नता का होना स्वाभाविक है किंतु रिलीज़न
एक ऐसा उत्प्रेरक घटक है जो देश-काल की सीमाओं को अस्वीकार कर लोगों के चिंतन और
जीवनशैली को प्रभावित करता है । इसका अंतरमहाद्वीपीय विस्तार आश्चर्यचकित करता है
। मैनहट्टन में उज्बेक ट्रकचालक हो या आर्यावर्त् में याक़ूब मेमन ...कुछ तो
साम्यता है जो उन्हें प्रेरित करती है क्रूर हत्याओं के लिए ।
और इधर कश्मीर
में भेड़ियों से बात करने गयी थी सरकार, एक युवा नेता गौहर हुसैन भट को चबा लिया
भेड़ियों ने किंतु फिर भी सरकार बन्द नहीं करेगी भेड़ियों की तीमारदारी पर करोड़ों
रुपये ख़र्च करना । यही लोकतंत्र है, बाबर क़ादरी जैसे लोग सरे आम गालियाँ बकते हैं
भारतीय सेना को और सम्प्रभुता सम्पन्न भारत वर्ष ताकता रहता है दयनीय भाव से आसमान
की ओर...हे प्रभु ! हमें भेड़ियों से बचा लो !
यह कैसी
सम्प्रभुता है जिसमें इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि अपने नागरिकों और सेना की जान और
सम्मान की रक्षा भी कर सके, पिछले सत्तर वर्षों से यह असहायता ही सम्प्रभुता का प्रमाण
है क्या ?
जबसे पैदा हुये
बातें ही करते रहे भेड़ियों से,
पालते रहे उन्हें
मनाते रहे,
लुटाते रहे
उनकी अय्याशी पर
करोड़ों रुपये
जो कमाती है मर-मर के
भारत की निरीह जनता ।
भेड़िये
अब बहुत पुष्ट हो गये हैं
प्रचण्ड
हमले करने लगे हैं
हम पर,
हमारे
बच्चों पर,
हमारी
स्त्रियों पर,
हमारी
सेना पर,
हमारे
सम्मान पर,
हमारे
देश पर ।
मालिक !
बस इतना
और बता देते
कि
अभी कितना और कमाना होगा हमें
भेड़ियों
को और पुष्ट करने के लिये ?
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