कैलेण्डर का वार्षिक
चक्र पूरा होने को है, 2012 से कुछ तलाशते हुयी आँखों में अब स्थायी शून्यता घर कर
गयी है .... । बचपन ने कब किशोरावस्था को लाँघ कर युवावस्था में प्रवेश कर लिया,
साराह को पता ही नहीं चला । केवल साराह ही नहीं, उस जैसे लगभग एक लाख बच्चों के
बचपन और किशोरावस्था को निगल गया आइसिस का शैतान । अपना घर, अपने गाँव की गलियाँ,
घर के ठीक पीछे फैली पर्वत श्रृंखला, मोहल्ले के बच्चे, दिन भर खेलना और फिर
बड़े-बूढ़ों से डाँट खाना.... यह सब छोड़कर कोई बच्चा सीरिया से भागना नहीं चाहता था
किंतु भागना ही उनकी नियति में लिखा था ...वह भी अपना ऐसा कुछ छोड़कर ...ऐसा कुछ
खोकर ...जो अब कभी नहीं मिलेगा । साराह की एक सहेली जॉर्डन नहीं आ सकी, वह भीड़ के
साथ लेबनान चली गयी थी । साराह को उसकी बहुत याद आती है ...उसके छोटे भाई की भी
...जो बहुत शरारती था । साराह की आँखों में अब एक समुद्र रहने लगा है ।
पता नहीं किस हाल में होंगी
माँ... और दादा-दादी !
सीरिया में इस्लाम के नाम
पर छह सालों में जो हुआ... जो हो रहा है उसके बाद उम्र को लाँघ कर आगे बढ़ गयी ज़िन्दगी
अब कुछ सवाल पूछने लगी है ।
भीड़ के साथ जो बच्चे जॉर्डन
चले गये ...शायद उनकी किस्मत कुछ अच्छी थी, उन्हें वहाँ भोजन के साथ खिलौने और पुस्तकें
भी मिल जाती हैं । साराह स्कूल जाना चाहती है .... किंतु दीगर रिश्तों की तरह किताबों
से भी उसका रिश्ता बहुत पहले छूट गया था ...किंतु उसे उम्मीद है कि वह जॉर्डन के किसी
स्कूल में दाख़िला ले सकेगी ।
लेबनान की सड़कों पर सीरिया
की ज़िन्दग़ी कुछ यूँ ले रही है साँसें ...
आँखों के सामने पति का
ख़ून कर दिया गया, बच्चों को लेकर भागना पड़ा ...मुल्क से बाहर ...किधर भी ...तब यह होश
नहीं था कि कहाँ जाना है । भीड़ के जत्थे जिधर चले उधर ही लोगों की किस्मत भी चली गयी
। दमस्कस तो एक भुतहा शहर हो गया है, ख़ूबसूरत मकान अब खण्डहर हो गये हैं और सूनी सड़कों
पर कोई जानवर भी निकलना पसन्द नहीं करता । लेबनान में भीख़ माँगकर ज़िन्दा रहने का सहारा
तो हो गया किंतु.... इन बच्चों का क्या होगा ? इनका भविष्य क्या लेबनान की सड़कों पर
अपने दुर्भाग्य की यूँ ही इबारतें लिखेगा ?
इन्हें नहीं पता कि अब
ये अपने मुल्क में नहीं बल्कि एक पड़ोसी मुल्क में हैं ...और इनका परिचय है सीरियन शरणार्थी
! यह बचपन अभी तो बेख़बर है ..लोगों की निगाहों से...किंतु शीघ्र ही उन्हें इस बात का
अहसास हो जायेगा कि वे बाकी लेबनानियों जैसे नहीं हैं ..उनकी ज़िन्दग़ी बाकी लोगों से
बिल्कुल अलग है ... जो दुःख देती है और कई सवाल भी पूछती है । आइसिस के इस्लाम के पास
इन जैसे हजारों नन्हें मुन्नों के किसी भी सवाल का है कोई ज़वाब ?
ख़ुद्दारी भी दगा दे गयी
... ख़ैरात के भरोसे हो गयी है ज़िन्दगी । ये पहाड़ सी ज़िन्दगी यूँ कब तक खड़ी रहेगी सिर
उठाकर ? दीग़र मुल्क ...दीग़र लोग ...ख़ैरात ... पता नहीं कब कौन फिर दगा दे जाये ! औरत
होने की सीमायें और भी सिकुड़ गयी हैं यहाँ ...
सीरिया है एक सवाल... इस्लाम
के सामने ! सीरिया है एक सवाल... घातक हथियारों की तिज़ारत करने वाले मुल्कों के सामने
! सीरिया है एक सवाल... दुनिया भर के बुद्धिजीवियों के सामने ! ग़ैर-मुस्लिमों की ज़िन्दगी
की क्या कोई कीमत नहीं इस धरती पर ? यें आँखें बहुत उदास हैं ... गहरे...बहुत गहरे
दुःख में डूबी हुयीं ।
लेबनान की एक सीरियाई शाम
! शरणार्थी शिविर के बच्चों ने एकत्र कीं कुछ लकड़ियाँ ...कुछ फूस ... कुछ देर के लिए
बोन-फ़ायर का आनन्द ! यह सर्द रात तो कट जायेगी किसी तरह ...किंतु लाखों सीरियाई लोगों
की सर्द किस्मत कब ग़र्म हो पायेगी ...कौन जाने ?
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