शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

गणतंत्र दिवस पर देश की सेना के साथ क्रूर मज़ाक

पत्थरबाजों को सामूहिक माफ़ी का फैसला... 

तुम से तो ऐसी उम्मीद न थी संबिद !
तुम भी मर गए ?

आख़िर यह भी शीशा ही निकला
मौका देखा
और झन्न से टूट गया
भारत को अब शीशे नहीं
कन्नाड़ी चाहिए ।

आज पत्थरबाजों को माफ़ी
कल चारा चोरों को माफ़ी
परसों बलात्कारियों को माफ़ी
उसके अगले दिन घोटालेबाजों को माफ़ी ...
इस देश का संविधान माफ़ीनामे में डूब गया है ।
चलो
कहीं किसी टापू में चलकर
बाकी ज़िंदग़ी गुजार लें ।


कश्मीर से चालू हुयी अरबी पत्थरबाजी परम्परा अंततः सरकारी तौर पर भारत में स्वीकार कर ली गई है । गणतंत्र दिवस के दिन भारतीय सेना पर पत्थर फेंकने वाले सैकड़ों आतंकवाद समर्थकों को माफ़ करने अलोकतांत्रिक फ़ैसले ने देशवासियों को बेहद निराश ही नहीं किया बल्कि आक्रोश से भी भर दिया है । आज का दिन... भारत के नागरिकों के दुर्भाग्य का दिन है । हमें भारत और जम्मू-कश्मीर की सरकारों से अब कोई उम्मीद नहीं रही ।
आज ज़ी-न्यूज की टीवी डिबेट में संबिद पात्रा एक सरकारी भोंपू बनकर प्रस्तुत हुए जिससे उनकी असमय नैतिक मृत्यु हो गयी । संबिद अब एक भोंपू मात्र रह गये हैं और भारत को इस भोंपू की कोई आवश्यकता नहीं है । सरकार के ग़लत फ़ैसले का समर्थन करने के कारण एक प्रखर वक्ता संबिद पात्रा की नैतिक और सामाजिक मृत्यु पर भारत को गहरा दुःख है ।

केंद्र की भाजपा और राज्य की मुफ़्ती सरकार ने इतने अलोकतांत्रिक और अपराध प्रोत्साहित करने वाला निर्णय भारत की जनता पर थोपते समय इतना भी नहीं सोचा कि इससे सेना के मनोबल पर क्या प्रभाव पड़ेगा । क्या भारत के देशभक्त नागरिक अब भी अपने युवकों को सेना में अपमानित होने और पत्थर खाने के लिए भेजने की आवश्यकता समझ सकेंगे ?

महबूबा मुफ़्ती तो कभी पत्थरबाजों के साथ होती हैं ...तो कभी उनके ख़िलाफ़ किंतु केंद्र सरकार भी पत्थरबाजों के साथ खड़ी हो जायेगी इसकी उम्मीद भारत के किसी भी नागरिक को कभी नहीं थी । भारत के लोग ख़ुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं । देश के साथ घोर विश्वासघात हुआ है, और अब यह सिद्ध हो गया है कि कोई भी राजनीतिक दल या उसकी नीतियाँ भारत के साथ नहीं बल्कि अपने व्यक्तिअगत स्वार्थों के साथ हैं जिसके लिए वे कुछ भी करने को हर क्षण तैयार हैं । अर्थात देशवासियों को अपनी रक्षा अब ख़ुद करनी होगी । जनता को सोचना होगा कि जब सरकारें आतंकियों के साथ हैं तो उन्हें किसके साथ होना चाहिए ?


          गणतंत्र दिवस के दिन पत्थरबाजों को आम माफ़ी देना क्या आतंकवाद को संरक्षण देना नहीं है ? जो सरकार देश की सेना के साथ नहीं है वह देश की जनता के साथ कैसे हो सकती है ? देश को सोचना होगा कि पत्थरबाजों को माफ़ी देने का फ़ैसला कितना ज़ायज़ है ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.