- भव्य है
बाबा का आश्रम ।
- दिन भर
पसीना बहाते श्रमिकों और कृषकों के लिए दुर्लभ हैं बाबा और उनके माया संसार ।
- भारत
बाबाओं का देश है । भारत की माटी बहुत उर्वरक है बाबाओं के लिए
- दाढ़ी वाले
बाबा, बिना दाढ़ी वाले बाबा, गेरुवा वस्त्रधारी बाबा, श्वेतवस्त्रधारी बाबा, धोती
और कुर्ता-पाजामा से लेकर जींस और स्टाइलिश परिधानधारी बाबा, देशी सुन्दरियों और विदेशी
गौरांगिनियों से मंडित-सेवित अभिजात्य बाबा, फलाहारी बाबा, सर्वभक्षी बाबा, गँजेड़ी
बाबा, शराबी बाबा, शुद्ध अंग्रेज़ी से लेकर अशुद्ध हिंदी तक बोलने वाले बाबा, माया
संसार में आँखें मूँदे डुबकी लगाते ऐश्वर्यसम्पन्न बाबा, धन-कुबेर को पराजित करते धन्नासेठ
बाबा...
- मठ-मंदिर
में बाबा, माया में बाबा, सत्ता में बाबा, विपक्ष में बाबा, भोग में बाबा, रोग में
बाबा, व्यापार में बाबा, जेल में बाबा...
- अद्भुत्
है बाबाओं का जोगमाया संसार ।
- वीतरागी
ने उपदेश दिया – “...भोग नहीं योग”।
- निषेध
कर दिया – “...ठगिनी माया का त्याग करो”।
- एकादश
इन्द्रियों वाले शरीरधारी विकल हो उठे, संत के वचनामृत का पान और पालन किए बिना
मुक्ति नहीं मिलेगी ।
- द्विविधा
यह थी कि अग्नि को ताप से मुक्त कैसे किया जाय ? हिम को शीत से मुक्त कैसे किया
जाय ? इन्द्रियों को उनके धर्मपालन से रोका कैसे जाय ?
- भक्तों
ने बल प्रयोग किया ...इन्द्रियों का दमन किया ...फिर एक दिन अचानक विस्फोट हुआ
...भक्तों को अपने-अपने स्वामी बाबाओं के साथ पापकुण्ड में आकण्ठ डूबे हुए देखा गया
।
- निषेध
का अतिवाद और अप्रासंगिकता इन्द्रियों को रास नहीं आई । इन्द्रियाँ अपने स्वभाव का
त्याग कैसे कर सकती हैं भला !
- किसी ने
कहा – “...भोग भी और योग भी”।
- ओशो ने भी
निषेध नहीं किया, स्वीकार किया । जो जैसा है उसे उसी रूप में ...उसके गुणधर्म के
साथ स्वीकार किया ...माया को आनन्द के साथ स्वीकार किया और यात्रा करते रहने का
संकल्प लिया ।
- यात्रा
होती रहेगी तो वर्तमान पीछे छूटता रहेगा... भोग पीछे छूट जाएगा ।
- यात्रा
में कुछ तो साथ रहेगा । जब भोग होगा तो योग नहीं होगा, जब योग होगा तो भोग पीछे
छूट जाएगा । दोनों को साथ रखना है तो विदेह होना होगा, बिना विदेह हुए... बिना
कृष्ण हुए सम्भव नहीं है स्थितप्रज्ञ हो पाना । विदेह होना स्थूल से सूक्ष्म होना
है..., द्रव्य से ऊर्जा होना है..., जड़ता से चेतना की स्थिति तक पहुँचना है ।
- निषेध के
साथ यात्रा नहीं हो सकती, स्वीकार के साथ सम्भव है यात्रा ।
- अब लाख
टके का प्रश्न यह है कि भोग से आगे की यात्रा कैसे की जाय ? द्विविधा है कि कहीं
उसी में लिपटे रह गए तो ? ...तो कैसे मिल सकेगा मोक्ष ?
- आयुर्वेद
के ऋषियों ने कहा – “प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनः ...”।
- उन्होंने
आत्मा और मन की ही नहीं इन्द्रियों की भी प्रसन्नता का उपदेश दिया ।
- प्रसन्नता
का अर्थ है निर्मलता । मल रहित इन्द्रियों के साथ की गई यात्रा ही प्रशस्त है ।