शनिवार, 10 नवंबर 2018

उपहार



प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते समय सुरसती को एक दिन यह पता चला कि उसका जन्म छोटी जाति में हुआ है और इसीलिए उसे कुछ ऐसी सुविधाओं की पात्रता है जिनके लिए उसी विद्यालय में पढ़ने वाले ऊँची जाति के लोगों को नहीं है । सुविधाओं का यह उपहार विश्वविद्यालयीन शिक्षा और उसके बाद के जीवन में भी निरंतर बना रहा । उपहार बरसते रहे, सुरसती की झोली भरती रही । उसके साथ के अन्य लोग जो पढ़ने में बहुत अच्छे हुआ करते थे, अपनी खाली झोली के साथ धीरे-धीरे पिछड़ते चले गए और वह आगे निकलती चली गई । जैसे-जैसे उसे विशिष्ट सुविधाओं के उपहार मिलते रहे वैसे-वैसे वह ऊँची जाति के लोगों की दृष्टि में हेय से हेय होती चली गयी । तभी एक दिन उसके घर में पादरी का आगमन हुआ । उसने एक आयातित प्रभु और उसके सु-समाचार को सामाजिक सम्मान पाने का एकमात्र उपाय बताया । पादरी अगले दिन भी आया... और उसके अगले दिन भी ....। पादरी अब हर रविवार को आने लगा, सुरसती के घर में सपनों की वारिश होती रही । घर के लोगों को लगा कि यदि वे पादरी की बात मान कर प्रभु यीशु की शरण में चले जाएं तो उन्हें सामाजिक हेय दृष्टि से मुक्ति मिल जाएगी और वे भी प्रतिष्ठित नागरिक बन जायेंगे ।
सुरसती के घर में पुराने और जीर्ण-शीर्ण हो चुके भारत का स्थान एक नया परदेश लेता जा रहा था । भारत की पुरानी तस्वीर धुंधली होने लगी, येरुशलम की नयी विदेशी तस्वीर निखरने लगी । सब कुछ बेहद आकर्षक और दिव्य सा लगने लगा था ।   
फिर एक दिन सुरसती का परिवार प्रभु यीशु की शरण में चला गया । सुरसती अब सेराफ़िना जॉन हो गयी, परिवार के सब लोगों ने अपनी परम्परागत देहाती बोली का परित्याग कर दिया, अब वे सभी लोग अंग्रेज़ी मिश्रित खड़ी बोली बोलने लगे थे । उनके नाश्ते में बेकरी वाली ब्रेड और अण्डा सम्मिलित हो गया, शराब भी अब पहले से अधिक पवित्र लगने लगी थी । उनकी नवीन आस्था उन्हें भारत की धरती से दूर येरुशलम की कल्पना में ले गयी, अब उन्हें योरोपीय देश आकर्षक ही नहीं अपने भी लगने लगे थे । आस्था के साथ-साथ धीरे-धीरे पहनावा, तौरतरीके, भोजन, परम्परायें ...सब कुछ बदलता चला गया । पैर छूना और नमस्कार करना अब उन्हें दकियानूसी लगने लगा था, हाथ मिलाकर अभिवादन करना या फिर गाल में गाल स्पर्श कर चुम्बन करना अधिक गरिमामयी लगने लगा था । उन लोगों को अपने राष्ट्रीय पूर्वजों को स्मृत करने की अपेक्षा प्रभु यीशु और मदर मेरी मरियम को स्मृत करना अधिक अच्छा लगने लगा । चर्च में उन्हें अपने ही जैसे लोगों से सम्मान तो मिला ही, ऊँची जाति के लोगों जैसी श्रेष्ठता का आभास भी होने लगा । भारत के भीतर एक नया इण्डिया आकार लेने लगा था जिसे ऊँची जाति के लोगों की उपेक्षा के बाद भी बढ़ने से रोका नहीं जा सकता था ।  
भारत का एक बहुत छोटा सा हिस्सा अब सुदूर येरुशलम से जुड़ चुका था । सुरसती उर्फ़ सेराफ़िना जॉन अपने साथ पढ़ने वाले ऊँची जाति के लोगों से बहुत दूर जा चुकी थी । विद्यालय में खींची गयी विभेदक रेखा ने वर्गभेद की खाइयों को और भी गहरा कर दिया था । सरकार इन खाइयों को पाटने का वादा करती रही, खाइयाँ और भी गहरी होती चली गयीं । दो पहाड़ों के बीच बनने वाली खायी कभी पहाड़ बन सकी है भला!  

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