सीरिया जैसी
हिंसक घटनाएँ कभी सदा के लिए ख़त्म नहीं होतीं, महाभारत का युद्ध कभी अंतिम
नहीं होता, राक्षसीवृत्ति मनुष्य का वह तामसिक और दुःखद पक्ष
है जो सदा से रहा है... आगे भी रहेगा । दैवीय और मानवीय शक्तियों को इन सभी समस्याओं
से सदा ही जूझना पड़ा है ...आगे भी यह परम्परा बनी ही रहने वाली है ।
सी.ए.ए.
को लेकर दिल्ली में हुए हिंसक दंगों के बर्बरतापूर्ण तरीकों में सीरियायी गृहयुद्ध
के रिहर्सल की झलक मिलती है जिसमें दो बातें प्रमुख हैं – एक तो यह कि इसमें
बर्बरता की आइसिस वाली सीमाओं तक पहुँचने का सफल प्रयास किया गया. दूसरा यह कि इस
रिहर्सल से भारत सरकार की सुरक्षा व्यवस्था, हिंदुओं की भीरुता और गद्दारों
की स्वामिभक्ति की गहराइयों को मापने का प्रयास किया गया । यह दंगा राक्षसी तत्वों
के शक्ति प्रदर्शन और भविष्य की योजनाओं की नींव के लिए मज़बूत ज़मीन की तलाश में भी
सफल हुआ है ।
“मैंने भाजपा को छोड़ा है हिंदुत्ववाद को नहीं” – उद्धव
ठाकरे ।
मेरी आज
की टिप्पणी उद्धव ठाकरे के इसी वक्तव्य के संदर्भ में है । सनातन धर्म के मौलिक
तत्वों, षड्दर्शनों और अध्यात्मिक सम्पदा का प्रबल समर्थक होते हुए भी मैं
हिंदुत्व-वाद का उतना ही विरोधी हूँ जितना कि इस्लाम-वाद और ईसाई-वाद का । कोई भी वाद
सहिष्णुता को स्वीकार नहीं करता इसलिए वह अपनी सीमाओं के विस्तार की असीमित अपील करता
है जो वास्तव में सनातनमूल्यों के विरुद्ध है । वास्तव में मैं इसे कबीलाई
परम्पराओं के रूप में ही देख पाता हूँ जो अस्तित्व के सांखिकीय विस्तार के लिए
हिंसक संघर्षों का पोषण करती है ।
मैं दो
शब्दों की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा – एक है धार्मिकआस्था और दूसरा है धार्मिकतत्व
। हमें इन दोनों शब्दों की सूक्ष्मता को समझने का प्रयास करना होगा ।
धार्मिक
आस्थाओं के बारे में एक जटिलता यह है कि उसके जड़ता में बदल जाने का संकट रहता है
जबकि धार्मिक तत्व अपने सात्विक मूल्यों की वैज्ञानिकता को प्रदर्शित करने के कारण
हर प्रकार की जड़ता से मुक्त रहते हैं । अब हम पुनः वाद पर आते हैं । कोई भी
धार्मिकवाद धार्मिकतत्वों की हत्या के बाद ही प्रकाशित हो पाता है । यदि
हिंदुस्तान में रहने के कारण हमें हिंदुत्ववाद की वकालत का अधिकार है तो असदुद्दीन
और अकबरुद्दीन ओवेसी को इस मुल्क पर आठ सौ साल तक हुक़ूमत करने के पट्टे की विरासत
में इस्लाम-वाद की वकालत का अधिकार है ...और इसी तरह अन्य धर्मावलम्बियों को भी
अपने-अपने धार्मिक-वादों को लेकर जंग छेड़ने और गज़वा-ए-हिंद का शक्तिपूर्ण अधिकार
है । इस तरह के संघर्षों से मुक्ति का एक ही रास्ता है कि हम धार्मिकवादों के
अहंकारपूर्ण संघर्षों से समाज को किसी भी तरह मुक्त करने का प्रयास कर सकें ।
किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम किसी भी थोपे जा रहे धर्मयुद्ध से मुँह
मोड़कर आत्मघाती बन जाएँ और राक्षसी तत्वों को पूरी स्वच्छंदता के साथ पनपने का भरपूर
अवसर उपलब्ध कराते रहें ।
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