खुजली...
महीनों
दवाइयाँ खाने के बाद भी यदि खुजली ठीक नहीं हो रही है तो अपनी जीवनशैली पर ध्यान
देना होगा । जीवनशैलीजन्य दुष्प्रभावों को दवाइयों से समाप्त नहीं किया जा सकता ।
एक्ज़ीमा, सोरियासिस
और टीनिया जैसे चर्म रोगों के अतिरिक्त अग्न्याशय, लिवर,
किडनी और थायरॉयड की समस्याओं के कारण भी खुजली हो सकती है । सही
चिकित्सा से इन्हें ठीक या नियंत्रित किया जा सकता है किंतु जो खुजली तमाम दवाइयों
के बाद भी ठीक नहीं होती उसके आगे हर कोई हथियार डालता दिखायी देता है । ओपियॉइड जैसी
दवाइयों के स्तेमाल से होने वाली खुजली ओपियॉइड का स्तेमाल बंद कर देने से ठीक की
जा सकती है किंतु उन रसायनों का क्या जिन्हें डियो, साबुन और
खाद्यपदार्थों के रूप में हम अपनी जीवनशैली में सम्मिलित कर चुके हैं ?
दूध से
लेकर सब्जियों, फलों और अनाजों में भी हम बेशुमार ज़हर घोलते जा रहे हैं । कौन घोल रहा है
यह ज़हर? कहाँ से मिलता है व्हाइट और ग्रीन रिवोल्यूशनर्स को
यह ज़हर ? कोई प्रतिबंधित क्यों नहीं करता इन तमाम ज़हरों को ?
किसान और डेयरी वाले कोई संगठन इस ज़हर के विरुद्ध कोई आंदोलन क्यों
नहीं करते ? आम जनता ख़ुशी-ख़ुशी इस ज़हर को क्यों अपने शरीर
में झोंकती जा रही है ? स्वास्थ्य सीमाओं का निरंतर उल्लंघन
करते रहने के लिये आप दोषी किसे ठहरायेंगे ?
अभी
हमने केवल ज़हरीले रसायनों की बात की है, जेनेटिकली मोडीफ़ायड फसलों की
बात फिर कभी करेंगे जो मनुष्य की नस्ल के लिये ही गम्भीर चुनौती बन चुकी हैं ।
एक
आंदोलन इसके लिये भी क्यों नहीं?
दवाइयों
का विशाल मार्केट होता है, मार्केट में ग्राहकों की भीड़ होती है । ग्राहकों की संख्या में निरंतर
वृद्धि मार्केट का उसूल होता है । इशारा स्पष्ट है, जो समझे
उसका भला, जो ना समझे उसका भी भला ।
हवा में
ज़हर है, पानी में ज़हर है, अन्न में ज़हर है, फलों-सब्जियों और दूध में भी ज़हर है जिसके कारण असाध्य बीमारियों की बहार
है । ज़हर हमारे चिंतन में भी व्याप्त हो चुका है । भारत में सेरिब्रल पैल्सी,
कैंसर, ओबेसिटी, डायबिटीज़,
थायरॉयड, मल्टीपल ओवेरियन सिस्ट, फ़ाइब्रॉयड यूटेरस, ऑब्सेसिव कम्पल्सिव बिहैवियर,
अल्ज़ाइमर और पार्किंसंस जैसी गम्भीर बीमारियाँ बढ़ती ही जा रही हैं ।
क्या इनके कारणों की व्यापकता पर भी कभी कोई समुद्रमंथन होगा ?
दिल्ली
की सीमाओं पर अन्नदाता आंदोलनरत हैं ...किंतु उनकी माँगों में खाद्यपदार्थों में
ज़हर घोलने वाले रसायनों पर प्रतिबंध लगाये जाने की माँग़ सम्मिलित नहीं है ।
हमारे आदरणीय
अन्नदाता गोभी पर ज़हरीली दवाई स्प्रे करते हैं जिससे वह अगले दिन तक बेचने लायक हो
जाय । हमारे पूज्य अन्नदाता लौकी, बैंगन, तरबूज
आदि के डंठल में इंजेक्शन लगाते हैं जिससे अल्पसमय में ही वह सब्जी इतनी बड़ी हो
जाय कि उसे तुरंत बेचा जा सके । फसल के परिपक्व होने में लगने वाले प्राकृतिक समय
तक कोई प्रतीक्षा नहीं करना चाहता । किसानों को एक-दो दिन में ही अपेक्षित परिणाम
चाहिये, फिर भले ही वह ज़हर के इंजेक्शन द्वारा क्यों न मिले
।
भ्रूण को
विकसित होने में लगने वाली निर्धारित अवधि में कटौती करके उसे रातोरात विकसित कर
डालने की मानसिकता इस धरती से मनुष्यों को समाप्त कर देगी ।
प्राकृतिक
विकास में लगने वाले समय को क़ैद करने की रावणी वृत्ति व्यापक हो चुकी है । एक आंदोलन
इसके लिये भी क्यों नहीं होना चाहिये ?
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