शनिवार, 19 दिसंबर 2020

दानद्वेष...

भारत में दान की एक उदार परम्परा रही है जिसने भारत की आर्य संस्कृति को और भी समृद्ध किया है । जैसा कि हर स्वस्थ परम्परा के साथ होता है, समय के साथ-साथ इस परम्परा में भी क्षय होता रहा जिसके कारण भारतीय समाज में दानवीरों की संख्या नगण्य सी होने लगी । हमारे समाज में जहाँ दानदाताओं की कमी हुयी है वहीं दान लेने वालों की भी कमी हुयी है । दीपदान और पुस्तकदान जैसी हमारी उत्कृष्ट दान परम्परायें भी अब बहुत कम देखने को मिलती हैं ।

दान के मामले में हमारा अनुभव बहुत विचित्र रहा है । दानद्वेष (Aversion to donation) का यह मामला दानदाता की ओर से नहीं बल्कि दान ग्रहण करने वाले की ओर से है । पुस्तकों से लगाव रहने के कारण हमारे पास उत्कृष्ट हिंदी साहित्य और दर्शनशास्त्र से लेकर मेडिकल साइंस जैसे विभिन्न विषयों पर पुस्तकों का बहुत अच्छा संकलन हो गया है । हमारा मानना है कि अच्छी पुस्तकें अधिक से अधिक सुपात्र पाठकों तक पहुँचनी चाहिये, यही सोचकर हमने पिछले लगभग एक दशक से शिक्षण संस्थाओं और पुस्तकालयों को पुस्तकें दान करने का सिलसिला प्रारम्भ किया है । दुःखद यह है कि हमें इन दोनों ही स्थानों में सुपात्रता का प्रायः अभाव ही देखने को मिला है । अभी तक मात्र एक विद्यालय, एक पुस्तकालय और एक व्यक्ति ने ही पुस्तकदान को सहर्ष स्वीकार किया शेष लोगों ने पुस्तकदान लेने में या तो उदासीनता दिखायी या फिर बहुत आनाकानी की । हमारे शिक्षित समाज के इस आइने को भी देखना और जानना सुधीजनों के लिये आवश्यक है ।

हमारे शहर में एक बहुत बड़ी शिक्षण संस्था है । मन में आया कि पुस्तकदान के लिये इससे अधिक उपयुक्त स्थान और क्या हो सकता है! बस, हमने एक थैले में बहुत सी पुस्तकें भरीं और पहुँच गये शिक्षण संस्था में किंतु हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब संस्था के कर्मचारी ने पुस्तकें देखे बिना ही दान में स्वीकार करने से साफ़ इंकार कर दिया । हमारे समझाने-बुझाने का भी उस कर्मचारी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा किंतु अंत में उस कर्मचारी ने सुझाव दिया कि यदि संस्था के मालिक सिफ़ारिश करेंगे तो वह ये पुस्तकें स्वीकार कर लेगा । हम थैला उठाकर संस्था के  मालिक के पास पहुँचे और उनसे निवेदन किया कि वे अपने कर्मचारी से पुस्तकें स्वीकार करने की सिफ़ारिश कर दें । हमारे आश्चर्य ने सीमाओं से परे जाकर कुछ और आयाम तय करते हुये हमारी आँखें निकालकर हमारी हथेली पर रख दीं जब संस्था के मालिक ने भी पुस्तकें देखे बिना ही लेने से साफ इंकार कर दिया । हमने यह सोचा भी नहीं था कि हमें ये पुस्तकें वापस लेकर आना होगा । हमने मोर्चा सँभाला और मालिक को मनाने में जुट गये । एक बहुत लम्बी चर्चा के बाद अंततः मालिक ने कृपा की और अपने कर्मचारी को बुलाकर सिफ़ारिश कर दी । हम ख़ुश हुये ।

संस्था के कर्मचारी को यह सिफ़ारिश शायद अच्छी नहीं लगी, उसने एक ओर उँगली से संकेत करते हुये उपेक्षा से कहा अपना थैला वहाँ छोड़ दीजिये । हमने कहा, हम पुस्तकें निकालकर वहाँ रख देंगे आप बाद में यथास्थान रख लीजियेगा । कर्मचारी ने कहा, थैले में से निकाल कर रखेंगे तो हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी, आप थैले सहित छोड़ कर जाइये । हमें कर्मचारी की आज्ञा का पालन करना पड़ा ।

इस घटना के बाद से अब हम अपने शहर की किसी संस्था को पुस्तकें दान करने से डरने लगे हैं । यह हमारी असफलता है कि हम अपने शहर में पुस्तकदान के लिये सुपात्र संस्थाओं को खोज नहीं पा रहे हैं । अब हम सोच रहे हैं कि हमें अपनी पुस्तकों के भंडार का एक हिस्सा काँगड़ा मेडिकल कॉलेज को और एक हिस्सा नैनीताल की जिला लाइब्रेरी को देना चाहिये, किंतु बस्तर से काँगड़ा और नैनीताल तक इतनी पुस्तकें लेकर जाना इतना सरल है क्या!


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