क्यों करते हैं नेता ...झूठे वादे? क्यों करते हैं देश के रहनुमा ...एक-दूसरे को नंगा? क्यों सत्तर सालों से बार-बार जुटती रही है भीड़ ...सुनने के लिये झूठे वादे? क्यों नहीं ख़त्म होने की जगह बढ़ते रहते हैं ...दर्द? क्यों कोई राशिद ख़ान कर देता है ऐलान ...किसी काफ़िर का सर कलम करने का? क्यों इंशा अल्लाह से शुरू होने वाली हर बात हो जाती ...धर्मनिरपेक्ष और क्यों मात्र एक शब्द “हिन्दू” कहने भर से पड़ जाता है इस्लाम ...ख़तरे में?
क्यों
नहीं होता कोई गम्भीर कि क्यों नहीं मिलता किसी भी “क्यों” का ...कोई भी समाधान?
चन्नी बोले- “अपने राज में हमने कर दीं कच्ची
नौकरियाँ पक्की”, केजरीवाल बोले- “चन्नी ने झूठ बोला”।
एक
धूर्त राजा बोला- हमने अपने राज को स्वर्ग बना दिया, इस बार अपने यहाँ भी
अपनी सेवा का अवसर दे दो । दूसरे धूर्त राजा ने पलटवार किया- अपनी प्रजा को ही
बनाओ स्वर्गवासी, हमारी प्रजा ऐसी ही सही ।
दुकानदार
ने पाँच कुर्तों की कीमत में तीन कुर्ते ख़रीदने पर एक कुर्ता फ्री में दे दिया, उसका
हर ग्राहक पक्का होता गया । नेता ने बड़े ध्यान से देखा और इस मंत्र को अपनी
धूर्तनीति का एक अहम हिस्सा बना लिया, एक से टैक्स लेकर
दूसरे की झोली भर दी । बिजली फ़्री, पानी फ़्री, बसयात्रा फ़्री, तीर्थयात्रा फ़्री, अनाज फ़्री, इलाज़ फ़्री, …
वारिश
हो रही है ...वादों की- “हर बेरोजगार को देंगे नौकरी, हर
बुज़ुर्ग को देंगे पेंशन, हर स्त्री के खाते में हर महीने
देंगे एक हजार रुपये का तोहफ़ा, हर मोहल्ले में बनेगी मस्ज़िद,
हर सड़क पर होगी नमाज…”
मोतीहारी
वाले मिसिर जी ने हैरत से पूछ दिया- “इन ख़ैरातों के लिये कहाँ से लायेंगे इतना
पैसा?” जालीदार गोल टोपी पहन कर मुस्कराते हुये उत्तर दिया नीतिश बाबू ने- “टैक्स
वसूलेंगे मंदिरों से, पैसों की बेशुमार वारिश होगी”।
जब तक झूठ
सुनने वाली भीड़ जुटती रहेगी तब तक झूठ बोलते रहेंगे नेता । जब तक लालची रहेगी
प्रजा तब तक नहीं होगा अंत किसी समस्या का ।
जब तक प्रजा
स्वीकार करती रहेगी ख़ैरात तब तक नहीं जागेगा स्वाभिमान, जब तक
नहीं जागेगा स्वाभिमान तब तक चलता रहेगा सब कुछ यूँ ही ...इतना ही बुरा, बल्कि इससे भी बुरा । राजा और प्रजा दोनों का ही सबसे लाड़ला आचरण हो गया
है भ्रष्टाचार; सच कहना अपराध और नैतिक मूल्यों की बातें करना
निकृष्ट हो गया है- “आपको शर्म नहीं आयी, जो हुआ सब साहब के
सामने वैसा ही बक दिया!”
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