थाने में दरोगा साहब के ऑफ़िस में किसी ने लिख दिया – “यतो धर्मस्ततो जयः”। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी अशोक चक्र के नीचे किसी ने लिख दिया – “यतो धर्मस्ततो जयः”। भारत के वर्तमान चिंतकों से पूछे बिना ही लिख दिया और सरे आम ‘हिन्दुत्वावाद’ कर दिया ।
इक्कीसवीं
सदी के चिंतक अभय दुबे ने आज एक टीवी चैनल पर कहा – “राजनीति में धर्म का
घालमेल उचित नहीं”। अभय दुबे अकेले नहीं हैं, भारत के वर्तमान राजनीतिज्ञ और समाजचिंतक आज इसी पथ पर चल रहे हैं । कम्युनिस्ट
देशों में धर्म अफीम हो गया, भारत में धर्म एक वर्ज्य विषय हो
गया ।
पश्चिम में
जब चर्च राज्य की सर्वोच्च शक्ति बन गये तो चर्च निरंकुश हो गये और भ्रष्टाचार चरम
पर पहुँच गया । पश्चिम ने माना कि चर्च धर्म के केंद्र हैं, जहाँ
निरंकुशता जन्म लेती है । पश्चिम में चर्चविरोधी लहर चली, धर्म
को पृथक करो । राजनीति ही नहीं विज्ञान, संगीत, कला, शिक्षा, समाज, व्यापार और युद्ध आदि जीवन के सभी विषयों से धर्म को पृथक कर दिया गया । चर्च
शक्तिहीन हो गये । शिक्षा, समाज, युद्ध
और व्यापार आदि धर्ममुक्त हुये । रामायण और महाभारतकालीन युद्धों का स्थान गुरिल्ला
युद्धों ने ले लिया ।
पश्चिम में
धर्म और राज्य आदि की अवधारणायें भारत से पूरी तरह भिन्न थीं । किंतु पश्चिम में जो
लहर चली उसका भारत में भी स्वागत किया गया । जबकि यहाँ उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी ।
भारत तो सदा से कहता रहा है – “यतो धर्मस्ततो जयः”। महाभारत के उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, स्त्रीपर्व, अनुशासनपर्व
और शल्यपर्व में भी बारम्बार यही कहा जाता रहा– “यतो
धर्मस्ततो जयः”। इस आशा से कहा जाता रहा कि कदाचित लोग समझ जायें
और युद्ध रुक जाय, कदाचित कुछ लोगों की समझ में आ जाय कि
धर्म कहाँ है और कहाँ नहीं है । किंतु जिन्हें समझना था वे नहीं समझे । कृष्ण युद्ध
को रोकना चाहते थे किंतु युद्ध होकर ही रहा ।
युद्ध होने
की स्थिति में उसके परिणाम की ओर स्पष्ट संकेत करते हुये श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा
– “क्षपयिष्यति नः सर्वांस सुव्यक्तं महारणे । विदितं मे हृषीकेश यतो धर्मस्ततो
जयः”॥
महात्मा
विदुर ने धृतराष्ट्र को समझाया तो दबे मन से उसने इस सत्य को स्वीकार तो किया किंतु
उसी क्षण अपनी विवशता भी बता दी– “सर्वं त्वमायतीयुक्तं भाषसे
प्राज्ञसंमतम् । न चोत्सहे सुतं त्यक्तुं यतो धर्मस्ततो जयः”॥
द्वैपायनव्यास
ने धृतराष्ट्र से कहा – “दिष्टमेतत्पुरा चैव नात्र शोचितुमर्हसि । न चैव शक्यं संयंतु यतो
धर्मस्ततो जयः”॥
युद्ध सामने
था, युधिष्ठिर डाँवाडोल होने लगे तो अर्जुन को भी कहना पड़ा– “त्यक्त्वा धर्मं च लोभं च मोहं चोद्यममास्थिताः । युध्यध्वमनहंकारा यतो धर्मस्ततो जयः ॥
संजय ने
धृतराष्ट्र से कहा– “न ते युद्धान्निवर्तंते धर्मोपेता महाबलाः । श्रिया परमया युक्ता यतो
धर्मस्ततो जयः”॥
भीष्म
ने तो दुर्योधन से साफ-साफ कह दिया – “राजन्सत्वमयो ह्येष
तमोरागविवर्जितः । यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः”॥
धर्ममूलक
शिक्षा, धर्ममूलक आचरण, धर्ममूलक व्यापार, धर्ममूलक सत्ता ....सब कुछ धर्ममूलक हो, भारतीय चिंतन
धर्म को जीवन के मूल में देखता है ।
भारत की
दुर्दशा के लिये वह अनीति उत्तरदायी है जिसने धर्म को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से
विदा कर दिया और उसे मात्र कर्मकाण्ड का विषय बना दिया । सच कहूँ तो भारत अब एक अधार्मिक
देश हो गया है । राज्याश्रय के बिना शिक्षा, व्यापार, चिकित्सा, सरोवर या मंदिर, किसी
का विकास सम्भव नहीं । अभय दुबे जी राज्य के सर्वाङ्गीण विकास के लिये राज्याश्रय का
होना आवश्यक क्यों नहीं मानते?
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