पश्चिमी
देशों में व्यक्तिपूजा के लिये मूर्तियों का प्रचलन रहा है । हम इसे वैयक्तिक
प्रभुता की महत्वाकांक्षा और दासता की घोषणा मानते हैं । प्रकृतिपूजक वैदिक कालीन
भारत में ऐसी कोई परम्परा कभी नहीं रही । वैदिकोत्तर भारत में प्राकृतिक शक्तियों
के प्रतीकस्वरूप देवी-देवताओं की पूजा के लिये काल्पनिक मानवाकार मूर्तियों का
प्रचलन अस्तित्व में आया । राजमुद्रा प्रणाली में राजाओं के चित्र का अंकन भी बहुत
बाद में प्रारम्भ हुआ जो आज तक विद्यमान है ।
मोतीहारी
वाले मिसिर जी मानते हैं कि व्यक्तिपूजा लोकतंत्र ही नहीं राजतंत्र के लिए भी घातक
है । राम, कृष्ण और परशुराम जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर व्यक्तिपूजा अंततः विवाद और
वंशवाद को ही समृद्ध करती है ।
अद्वैत
दर्शन के प्रणेता रहे भारत के संदर्भ में इसका महत्व और भी अधिक हो जाता है । सैद्धांतिक
दृष्टि से देखा जाय तो निराकार ब्रह्म के उपासक देश में व्यक्तिपूजा का कोई स्थान
नहीं होना चाहिये ।
किसी
महान व्यक्ति के लिए आदरणीय या परम आदरणीय जैसे सम्बोधन क्या पर्याप्त नहीं हैं? मिसिर
जी के अनुसार “किसी भी व्यक्ति के लिए “परमपूज्य...” “हिज़ हाईनेस” और “मी लॉर्ड” जैसे
सम्बोधन मस्तिष्क की उन खिड़कियों को बंद कर देते हैं जहाँ से होकर विभिन्न विचारों
की बयार अंदर प्रवेश करती है और अव्यापक एवं अनृत विचारों को बाहर निकलने के लिये
अवसर प्रदान करती है । परिणामतः, धीरे-धीरे हम अपने सीमित
विचारों के साथ संकुचित होने लगते हैं । वैचारिक संकीर्णता जहाँ सहज मनोविज्ञान के
विपरीत एक अवैज्ञानिक स्थिति है वहीं यह हमारे अंदर असहिष्णुता के बीज बोने का
कारण भी बन जाया करती है” ।
खरी-खरी
कहने वाले मोतीहारी वाले मिसिर जी बताते हैं– “राष्ट्रीयमुद्रा में किसी मनुष्य के
चित्र का अंकन साम्राज्यवादी और अधिनायकवादी मानसिकता की घोषणा के साथ-साथ उस देश
के निवासियों की वैचारिक स्वतंत्रता को भी सीमित करता है । लगभग यही बात भवनों, राजमार्गों,
सेतुओं, बाँधों और रेलवे स्टेशन आदि अन्य
संरचनाओं के लिये भी लागू होती है”।
सद्दाम
हुसैन और स्टालिन की मूर्तियों का हश्र हम देख चुके हैं । बाहियान में महात्मा बुद्ध
की मूर्ति के हश्र की पीड़ा स्थायी हो चुकी है । महापुरुषों की मूर्तियों का
समय-समय पर उनके विरोधियों द्वारा अपमान रोष और विद्रोह का कारण बनता है । क्या हम
एक ऐसे भारत की रचना नहीं कर सकते जहाँ किसी व्यक्ति की कोई मूर्ति न हो और
राष्ट्रीय मुद्रा पर किसी व्यक्ति का चित्र न हो? आख़िर कोई लोकतांत्रिक
शासनसत्ता अपने नागरिकों को व्यक्तिपूजा के लिये बाध्य क्यों करना चाहती है?
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