शनिवार, 28 मई 2022

मंदिर-मस्ज़िद विवाद का समाधान

सुश्री अम्बर जैदी ने अपने खुले मंच पर “मंदिर-मस्ज़िद विवाद के समाधान” पर लोगों के विचारों का आह्वान किया है। भारत के गिने-चुने राष्ट्रवादी मुसलमानों में सौम्य स्वभाव वाली अम्बर जैदी का अपना एक अलग स्थान है। बहुत से लोग उन्हें परिवर्तनकारी मानते हैं जो भारत के लिए आवश्यक है। 

धार्मिक-स्थलों का विवाद एक वैश्विक समस्या है। येरुशलम को लेकर यहूदियों और मुसलमानों में एक बार फिर ठन गयी है। हमें धार्मिक स्थलों के स्पिरिचुअल या रिलीजियस नहीं, बल्कि सांसारिक स्वरूप पर विचार करना होगा।

येरुशलम कभी यहूदियों का तीर्थस्थल हुआ करता था, यही उसकी प्राचीनता और ऐतिहासिक मौलिकता है। क्रिश्चियनिटी के आगमन के साथ उसका एक हिस्सेदार और हो गया, फिर इस्लाम के आगमन के साथ उसका एक तीसरा हिस्सेदार भी हो गया। आज यह तीन हिस्सेदारों के बीच विवाद का स्थल है। ये हिस्सेदार कौन हैं? कहाँ से आये हैं? इनकी मौलिकता क्या है? एक के धर्मस्थल पर दूसरे का अतिक्रमण क्यों हुआ? नवागंतुकों ने अपने धर्मस्थल अविवादित स्थल पर क्यों नहीं बनाए? नवागंतुकों ने दूसरे धर्मस्थलों पर अतिक्रमण क्यों किया? स्पष्ट उत्तर वाले इन प्रश्नों को विवाद के जंगल में धकेला जा सकता है और फिर इन विवादों को अदालत में ले जाया जा सकता हैइस सिद्धांत धता बताते हुये कि जहाँ धर्म है वहाँ विवाद नहीं हो सकता, जहाँ विवाद है वहाँ धर्म नहीं ठहर सकता।

आज तो भारत के हजारों धार्मिकस्थलों से धार्मिकता का लोप हो चुका है। वहाँ जो है वह वर्चस्व और पहचान का संघर्ष है, सत्ता का संघर्ष है। धार्मिकता का उससे कोई लेना-देना नहीं है।

इस बात के कई साक्ष्य हैं कि इस्लामिक आक्रांताओं ने सनातनी धार्मिक-स्थलों को लूटा, तोड़ा और उन पर मस्ज़िद, मज़ार या दरगाह जैसी कुछ इमारतें खड़ी कीं। भारत के मुसलमान सनातन पर इस्लामिक विजय का प्रतीक मानते हुये इन्हें बनाए रखना चाहते हैं। मुसलमानों के लिए भारत में जो विजय के प्रतीक हैं वही सनातनियों के लिए उनके पराभव के प्रतीक हैं। दोनों अपनी पहचान को लेकर संघर्षरत हैं। इस पहचान के सहारे वे आगे की यात्रा तय करना चाहते हैं, जिसका लक्ष्य है सत्ता की प्राप्ति। एक को शरीया चाहिए, दूसरे को सनातन की सुरक्षा और स्वाभिमान चाहिये।

हमें यह भी सोचना होगा कि भारत में पारसी भी हैं, भारत के विकास में उनकी सबसे बड़ी भूमिका आज भी बनी हुयी है, उन्हें लेकर कभी कोई धार्मिक विवाद क्यों नहीं होता!

सनातनियों को यदि उनके धार्मिक स्थल वापस न मिले तो भारत का इतिहास समाप्त हो जायेगा, भारतीयता की पहचान समाप्त हो जायेगी, वे सारी चीजें... वे सारे मूल्य समाप्त हो जाएँगे जिनके बल पर भारतीय सभ्यता को विश्व की प्राचीनतम सभ्यता और श्रेष्ठतम संस्कृति वाले देश का गौरव प्राप्त हो चुका है। सनातनियों को यदि उनके धार्मिक स्थल वापस न मिले तो भारत एक दिन एक नया पाकिस्तान बन जायेगा। एक और पाकिस्तान बन जाने में भी कोई हर्ज़ नहीं है ब-शर्ते यह नया पाकिस्तान इण्डोनिशिया की तरह भारतीय बना रहे। किंतु ऐसा यदि सम्भव हो पाता तो भारत खण्डित ही नहीं होता, भारत और पाकिस्तान में धार्मिक दंगे और हत्याएँ नहीं होतीं। सनातनियों को यदि उनके धार्मिक स्थल वापस न मिले तो एक दिन भारत भी मध्य एशिया के मुस्लिम देशों की श्रेणी में जाकर खड़ा हो जायेगा जहाँ वर्षों तक होने वाले गृह-युद्धों में होने वाली तबाही को पूरी दुनिया ने देखा है।

भारत के सनातनियों ने ज़र्मनी और पाकिस्तान में हुये तहर्रुश-गेमिया के किस्से सुने हैं, रक्का के बाजारों में कुर्द और यज़ीदी स्त्रियों की ख़रीद-फ़रोख़्त की ख़बरें पढ़ी हैं, भारत में यौनदुष्कर्मों को अपनी आँखों के सामने घटित होते हुये देखा है, कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थियों के रूप में बेघर देखा है... और यह भी सुना है कि हुसैन की हत्या किसी सनातनी, ईसाई, यहूदी, कुर्द या पारसी ने नहीं बल्कि कुछ मुसलमानों ने ही की थी। भारत के सनातनियों ने सेना पर स्टोन पेल्टिंग देखी है, हैवानियत देखी है, जेनोसाइड देखा है, बदलती हुयी डेमोग्रफ़ी और उनके परिणामों को भोगा है, आतंकवादियों के समर्थन में आयोजित उग्र प्रदर्शन देखे हैं, भारत के टुकड़े किए जाने के नारे सुने हैं, “एक भी हिन्दू नहीं बचेगा” जैसी दहशत भरी धमकियाँ सुनी हैं.... यह सब देख-देख कर भारत के भविष्य को लेकर सनातनियों की चिंता स्वाभाविक है। धर्म तो नितांत व्यक्तिगत आचरण है, प्रश्न देश की सुरक्षा और भारत की प्राचीनतम सभ्यता की पहचान को लेकर है। अरबी सभ्यता भारत की पहचान नहीं हो सकती। अरबी जीवनशैली भारत की जीवनशैली नहीं हो सकती। हम भारत की नदियों को रेत में तब्दील नहीं कर सकते। हम भारत में गायों की हत्या कर ऊँटों से काम नहीं चला सकते। हम भारत की प्रकृति को उसी रूप में बनाये रखना चाहते हैं जिस रूप में कभी वह जानी जाती रही है, और जिसके कारण भारत “भारत” रहा है।

समाधान

एक देश-एक विधान! भारत की प्राचीन पहचान का संरक्षण और संवर्द्धन! भारत के इतिहास का पुनर्लेखन। और मेहमान का सम्मान ब-शर्ते वह मेज़बान के घर में अपनी हुकूमत न चलाने लगे। 

बुधवार, 18 मई 2022

लिङ्ग

             कल एक टीवी चैनल पर वकील साहब ने हिन्दू पक्ष से पूछा कि क्या किसी व्यक्ति के लिङ्ग का अग्रभाग ऐसा हो सकता है जैसा कि ज्ञानवापी में मिले फव्वारे का है?

चर्चा में सम्मिलित एक महिला सहित एंकर ने भी इस प्रश्न पर आपत्ति की । वकील साहब को “लिङ्ग” का केवल एक ही अर्थ, “पुरुष-जननेंद्रिय” या “Phallus” मालुम था और वे शिवलिङ्ग में उसी छवि को देखने के हठ पर अड़े हुये थे । सोशल मीडिया पर भी अ-सनातनी विद्वान शिवलिङ्ग को प्रायः “Phallus” के अर्थ में अश्लील टिप्पणियाँ करते हुये पाये जाते हैं ।   

अपेक्सा की जाती है कि जब सम्भाषा के किसी प्रतिभागी को किसी देश की संस्कृति, दर्शन, भाषा और अध्यात्मिक चिंतन के बारे में लेश भी जानकारी न हो तो ऐसे गम्भीर विषयों पर न तो कुतर्क करना चाहिये और न अपनी आइडियोलॉजी की सत्यता पर हठ करना चाहिये । मुश्किल यह है कि टीवी चैनल्स पर आने वाले विद्वान इस्लाम और सनातन दोनों आइडियोलॉजी के सम्बंध में अपने विचारों और जानकारी को ही सर्वोपरि मानने लगे हैं ।   

“संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ” नामक शब्द-कोष में लिङ्ग के कई अर्थ दिए गए हैं । स्पष्ट है कि प्रसंग के अनुसार इनके अर्थों का ग्रहण किया जाना चाहिए । संस्कृत शब्द “लिङ्ग” के अर्थ हैं – प्रतीक, पहचान, आकृति, प्रमाण, सूचक, संबंध (यथा संयोग, वियोग्, साहचर्य). चित्रण, रोग के लक्षण, नेत्र का एक रोग, अंधकार, वह सूक्ष्म-शरीर जो स्थूल-शरीर के पंचतत्व में मिलने के पश्चात् कर्मफल भोगने के लिए प्राप्त होता है ।

लिङ्ग में कुछ और शब्द जोड़कर कई युगल-शब्दों की रचना की गयी है, यथा- लिङ्गानुशासन (व्याकरण में शब्दों के लिङ्ग-ज्ञान से सम्बंधित नियम), शिव-लिङ्ग, देव-लिङ्ग, लिङ्ग-पीठ, लिङ्गार्चन, लिङ्ग-शरीर, लिङ्गधारिन्, लिङ्ग-नाश, लिङ्ग-पुराण, लिङ्ग-प्रतिष्ठा, लिङ्ग-विपर्यय, लिङ्ग-वृत्ति (आडम्बरी), लिङ्ग-वेदी, लिङ्गक (कैथे का पेड़), लिङ्गिन (लक्षणयुक्त) और लिङ्गायत (दक्षिण भारत में प्रचलित शैव विचारधारा) ।

सनातन दर्शन में ईश्वर को “निराकार”, “अनादि”, “अनंत”, “अखण्ड”, “अभेद्य” आदि शब्दों से समझने और समझाने का प्रयास किया गया है । शिव आदि त्रिदेव भी निराकार हैं । शिव का जो मनुष्यरूप हम मूर्तियों और चित्रों में देखते हैं वह मात्र एक हाइपोथेटिकल प्रतीक है जिसमें नीला रंग, जटा, सर्प, चंद्र, कैलाश, नृत्यमुद्रा (ताण्डव) आदि का उपयोग कर निराकार “शिव” के ब्रह्माण्डीय स्वरूप की व्याख्या का प्रयास किया गया है ।

अब बात आती है मंदिरों में प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग की । सनातन दर्शन में मंदिर आराधना और चिंतन के स्थल हैं जहाँ कोई चिंतक या आराधक ईश्वर और ब्रह्माण्ड के बारे में समझने का प्रयास करता है । सनातन संस्कृति और दर्शन में शिवलिङ्ग को ब्रह्माण्ड के स्थूल स्वरूप का एक प्रतीक चिन्ह माना गया है, जिसका किसी मनुष्य के “Phallus” से कोई सम्बंध नहीं है ।

जो सनातन दर्शन से विमुख हैं उन्हें शिव के नृत्य पर भी आपत्ति है, वे नृत्य को किसी प्राणी की विभिन्न मुद्राओं तक ही सीमित करके देख पाते हैं । सृष्टि की रचना, स्थिति एवं विलय, इन तीनों ही स्थितियों के लिए गति, संयोजन और वियोजन अपरिहार्य ब्रह्माण्डीय क्रियाएँ हैं । Dr. Fritjof Capra को साधुवाद जिन्होंने शक्ति के “लास्य-नृत्य” और शिव के “ताण्डव-नृत्य” को इसी रूप में समझा है । ये वे मौलिक नृत्य (movements, actions, reactions and positions) हैं जिनके बिना ब्रह्माण्ड की रचना, स्थिति और विलय की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।

भाईजान और मार्क्सवादी मित्र पूछते हैं कि – “ब्रह्माण्ड का शब्दार्थ है ब्रह्मा जी का अण्डा । अरे, गोबर खाने और मूत्र पीने वाले काफ़िरो! क्या दुनिया का कोई भी पुरुष अण्डा दे सकता है?”

हम ऐसे परम विद्वानों को बताना चाहते हैं कि अंग्रेज़ी को छोड़ दिया जाय तो अरबी और फ़ारसी बड़ी समृद्ध भाषाएँ हैं किंतु केवल उन्हें जानकर ही संस्कृत के “ब्रह्माण्ड” को तब तक समझना सम्भव नहीं है जब तक आप संस्कृतभाषा और भारतीय दर्शन को समझ नहीं लेते ।         

चलते-चलते यह बताना भी प्रासंगिक है कि भारतीय दर्शन में त्रिदेव का बड़ा महत्व है । भारतीय दर्शन का Cosmology की गुत्थियाँ सुलझाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इसीलिए विश्व के महान भौतिकविद् Dr. Fritjof Capra इसकी ओर आकर्षित हुए । वे मानते हैं कि ब्रह्म (Potential energy having capacity of transformations of something from nothing), विष्णु (energy required for Sustaining the cosmos) और शिव (energy required for initiation, evolution and involution ) ईश्वर की वे आदि शक्तियाँ हैं जिनके अभाव में सृष्टि और विलय की ब्रह्माण्डीय घटनाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती ।  

बुधवार, 11 मई 2022

कानून की व्याख्या

   1-   लोकतंत्र में प्रजा को राजद्रोह का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त है । राज्य के प्रधान, राज्य की नीतियों और राज्य के द्वारा बनाये कानूनों के विरुद्ध द्रोह करना, उनकी आलोचना करना, उन्हें मानने से इंकार करना और उन्हें अपने अनुकूल बदलने के लिये आंदोलन करना लोकतंत्र की शुचिता के लिए आवश्यक है । अतः चोरी और भ्रष्टाचार आदि अपराधों के विरुद्ध राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों के विरुद्ध द्रोह करना लोकतंत्र की मर्यादाओं के अनुकूल है । आई.ए.एस. पूजा जी ज़िंदाबाद!

2-   लोकतंत्र में देश की एकता, अखण्डता और सम्प्रभुता के विरुद्ध की गयी कोई भी गतिविधि राष्ट्रद्रोह के अंतर्गत दण्डनीय अपराध है, ...किंतु लोकतंत्र में आम नागरिक की तरह किसी अपराधी को भी सत्ता का सहभागी या प्रधान बनने का अधिकार संविधान प्रदत्त है । जिस तरह राजतंत्र में शक्तिशाली योद्धा को राजा बनने का अधिकार हुआ करता था इसी तरह लोकतंत्र में भी हर व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनने का अधिकार है । जिस तरह 1947 में दो व्यक्ति भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते थे इसलिए उन्होंने दो देश बना लिए और प्रधानमंत्री बन गये उसी तरह आज के भारत में यदि चालीस लोग प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो वे एक देश में से चालीस और नये देश बनाकर, एक-एक देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं । इसे राष्ट्रद्रोह नहीं कहा जा सकता । रही बात एकता, अखण्डता और सम्प्रभुता की तो ये शब्द यूटोपियन हैं, इनका वास्तविक स्वरूप तो केवल कम्युनिस्ट देशों में ही देखने को मिल सकता है । बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु आदि प्रांतों का केंद्र के साथ शत्रुवत टकराव इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एकता-अखण्डता-सम्प्रभुता केवल मंच पर बोले जाने वाले शब्द हैं, परिवार में इन मौलिक शब्दों के अर्थों का हमें लगभग अभाव हे देखने को मिलता है, हम इतने बड़े देश के लिए इनकी कल्पना कैसे कर सकते हैं! उमर ख़ालिद ज़िंदाबाद!

3-   लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति, रीति, नीति, क्रिया, प्रतिक्रिया आदि का विरोध करना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार हैं इसलिए कोई भी व्यक्ति या भीड़ सेना पर पथराव ही नहीं गोली भी चला सकती है । किसी आपराधिक प्रकरण में जाँच के लिए आने वाली पुलिस या अन्य किसी विधिक दल पर हिंसक आक्रमण कर देना लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप है, ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह की कोई धारा लगा कर कार्यवाही करना लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या है । कश्मीरी आतंकवादी अमर रहे! आतंकवादियों के हिमायती अब्दुल्ला और महबूबा ज़िंदाबाद!

4-   लोकतांत्रिक देश में न्यायालय या सरकार या जाँच समितियों के क्रिया-कलापों और निर्णयों को मानने या न मानने के लिये उन नागरिकों को पूरा अधिकार है जिनके पास पर्याप्त हिंसक बल उपलब्ध है । ऐसे लोगों के विरुद्ध लोकतांत्रिक देश भारत के पास कोई भी कानून या दण्ड संहिता उपलब्ध नहीं है । अमानतुल्ला ख़ान ज़िंदाबाद! शाहीनबाग अमर रहे!

5-   प्रांतीय सरकार के समानांतर अपनी स्थानीय सरकार चलाना शक्तिशाली संगठनों का अधिकार है, यह न राजद्रोह है और न राष्ट्रद्रोह्। यही कारण है कि भारत के कई प्रांतों के कुछ क्षेत्रों में कुछ संगठनों की समानांतर सरकारें चल रही हैं और ऐसे संगठनों से सरकारें भी थर्राती हैं । इसके पीछे की पुण्य भावना यह है कि विश्व के किसी भी व्यक्ति को किसी समुदाय या भौगोलिक क्षेत्र का नेतृत्व करने, उस पर शासन करने, उससे टैक्स या चौथ या जजिया वसूलने का अधिकार है । आख़िर क्यों राम ही राजा बनेंगे गंगू क्यों नहीं बनेगा? लाल सलाम ज़िंदाबाद! नक्सलवाद अमर रहे!

6-   पत्नी से यौन सम्बंध स्थापित करना न्यायोचित भी है और अपराध भी । यह इस बात पर निर्भर करता है कि अदालत में वकील किस तरह का क्रिएशन प्रस्तुत करता है । अर्थात एक ही कृत्य उचित भी है और अनुचित भी । किसी कृत्य को कब उचित कहा जायेगा और कब अनुचित यह परिस्थितियों और भाग्य पर निर्भर करता है । भूषण-सिब्बल ज़िंदाबाद! सुप्रीम कोर्ट अमर रहे!

इस वितण्डा और गाल बजाऊ छीछालेदर के बाद प्रातः स्मरणीय श्रद्धेय मोतीहारी वाले मिसिर जी का तो मानना है कि कानून उन लोगों के लिए होता है जो शासित होते हैं, जो शासित होते हैं वे निर्बल और बेचारे होते हैं । कानून वे बनाते हैं जो शासक होते हैं, जो शासक होते हैं वे बलशाली होते हैं । अर्थात शक्ति ही कानून है और निर्बलता ही अपराध है, अर्थात कानून वह वितण्डा है जिसकी मनमानी व्याख्या की जा सकती है । यह मनमानापन लोकतंत्र का वह लचीलापन है जो हर किसी को समान अवसर उपलब्ध करवाता है । जय हो! राधे! राधे!        

    

बिना प्रतिरोध

            मोहम्मद-बिन-कासिम का प्रतिरोध करने के लिए राजा दाहिर थे । मोहम्मद गोरी का प्रतिरोध करने के लिए पृथ्वीराज चौहान थे । अकबर का प्रतिरोध करने के लिए महाराणाप्रताप थे । रोहिंग्याओं और बंग्लादेशियों का प्रतिरोध करने के लिए कौन है?

रोहिंग्याओं और बंग्लादेशियों के भारत में अवैधरूप से घुसपैठ करने पर किसी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया, न सत्ता ने न आम नागरिक ने । उनका प्रतिरोध करना तो छोड़िये, उन्हें आक्रामक बनाने के लिये भारत में बहुत अनुकूलता निर्मित की जाती रही है । चंगेज़ ख़ान, ख़िलज़ी और औरंगज़ेब आदि ने तुम्हारी माओं-बहनों- बेटियों- गुरुओं और वीरों के साथ क्या किया इसे तुम भूल चुके हो और इन क्रूर आक्रामकों की दुष्टताओं पर गर्व करने लगे हो । जो अपने पूर्वजों के साथ हुए अत्याचारों और अपमानों से दुःखी नहीं होता बल्कि प्रसन्न होता है उनकी रक्षा ईश्वर भी नहीं किया करते ।

 

मंदिर-मस्ज़िद

सरकार से सब कुछ फ़्री में लेकर जीवन जीने वालो! भूख और महँगाई यदि तुम्हारे लिए इतनी बड़ी समस्या है तो तुम उसके लिए क्या कर रहे हो? तुम इस समस्या को छोड़कर ज्ञानवापी और अन्य सनातनी मंदिरों के पीछे क्यों पड़े हो जिनके ऊपर तुमने अपनी मस्ज़िदों के ढाँचे खड़े कर लिए हैं? यदि भारत के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थानों और मंदिरों पर तुम्हारी इमारतों और मस्ज़िदों के साइन बोर्ड्स का दावा है तो फिर आखिर भारत के वे सब प्राचीन भवन, और मंदिर कहाँ हैं जिनसे भारत के इतिहास और संस्कृति की पहचान होती है?

यदि तुम भाईचारे की और सौहार्द्य की बात करते हो तो तुम्हें भारत का इतिहास बिना किसी विवाद और धमकी के भारत को वापस कर देना चाहिये, अन्यथा यह माना जायेगा कि तुम लुटेरे थे और आज भी लुटेरे हो । तुम्हारी सभ्यता और धर्म ने तुम्हें केवल क्रूरता और लूटमार करना ही सिखाया है ।

बंग्लादेशियों ने हिन्दुओं के साथ अत्याचार करना आज तक बंद नहीं किया है । बग्लादेश में हिन्दू उत्पीड़न अब आम हो चला है । बंग्लादेशियों का अपना देश है फिर भी वे वहाँ रहना क्यों नहीं चाहते? भारत में अवैध घुसपैठ करने के पीछे उनके लिए कौन सा आकर्षण छिपा हुआ है? यह सब भारत के लोगों को अपने आप से पूछना होगा ।   

हम अत्याचार और अतिक्रमण का प्रतिरोध करना सीख रहे हैं, और तुम्हारी लूटमार को अब और आगे नहीं होने देंगे ।

रविवार, 8 मई 2022

प्रॉग्नोसिस ऑफ़ द सो काल्ड इण्डिया

इस लेख की विषयवस्तु पर चिंतन करते समय मेरे सामने भारत के भविष्य की चिंता थी । लेख पूर्ण होने पर शीर्षक लिखा गया “भारत का भविष्य”। फिर याद आया कि चिंता तो अपने आप में एक विकृतावस्था है इसलिए शीर्षक बदलकर “प्रॉग्नोसिस ऑफ़ द सो काल्ड सेक्युलर इण्डिया” लिखना अधिक उपयुक्त लगा । 

“जिस दिन कोई लोकतंत्र अपनी भीड़ के अतिवादी चरित्र के कारण अलोकतांत्रिक हो जायेगा, उस दिन फिर एक क्रांति होगी जो अलोकतांत्रिक प्रणाली को राजतंत्र या अधिनायकतंत्र में परिवर्तित कर देगी । यह इस बात पर निर्भर करेगा कि भीड़ का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति की मानसिक प्रकृति कैसी है? यदि उसकी प्रकृति तामसी हुयी तो नये तंत्र का संचालक अधिनायक होगा, किंतु यदि उसकी प्रकृति राजसिक हुयी तो नये तंत्र का संचालक राजा होगा यह मत है मोतीहारी वाले मिसिर जी का जो बताते हैं कि कोई भी शासन प्रणाली कभी स्थायी नहीं हो सकती । समाज का स्वभाव गतिशील और विकारोन्मुखी होता है । भीड़ की शक्ति में ही समाज को अपनी सुरक्षा दिखायी देती है । समाज का विकासोन्मुखी स्वरूप मनुष्य की एक ऐसी गढ़ी हुयी कामना है जिसका अंत विकारोन्मुखी होता है । विनाशकारी युद्ध कभी अविकसित देशों में नहीं होते ।  

इज़्राइल के पथ पर  

पिछले एक लेख पर एक राज्य के पूर्व विधानसभा सचिव की टिप्पणी प्राप्त हुयी थी– “हमारा देश पश्चिमी पूँजीवाद, चीनी विस्तारवाद, और इस्लामिक आतंकवाद के तिहरे संकट में फँसा हुआ है । विकास की भूख पहले से भीतर धधक रही है । चाहे-अनचाहे हमारा आदर्श इज़राइल बनना है, जिसे गृहमंत्री अमित शाह ने सार्वजनिकरूप से स्वीकारा भी है । हनुमान चालीसापाठ, बुलडोजर चलवाना या नेताओं के विषबुझे बयान – ये सब भी एग्रेसिवनेस के लक्षण हैं । (यह भारतीय समाज को खोजना है कि) इस अपरिहार्य आक्रामकता को रचनात्मक और अनुशासित दिशा कैसे मिले?”

हाँ! यह भारतीय समाज को खोजना है । इस खोज का विषय गम्भीर है, और इसे खोजने का दायित्व भारत में रहने वाले सभी लोगों पर है ।

...किंतु तब क्या हो जब भारत में रहने वाला एक समुदाय भारतीय मूल्यों और आदर्शों को स्वीकार करने से न केवल इंकार कर दे बल्कि उनके विरुद्ध जाकर संघर्ष और हिंसा पर उतारू हो जाय?

...किंतु तब क्या हो जब भारत में रहने वाला एक समुदाय विदेशी आक्रामणकारियों के मूल्यों और आदर्शों को भारत में स्थापित करने के हठ पर अड़ जाय?   

...किंतु तब क्या हो जब भारत मे रहने वाला एक समाज संविधान और न्यायालय के मामले में चयनात्मक हो जाय?

...किंतु तब क्या हो जब भारत में रहने वाला एक समाज दूसरे समाज के अस्तित्व के लिए ही संकट बन जाय?

...किंतु तब क्या हो जब देश के बँटवारे के लिये लड़ने वाले समुदाय का एक बड़ा हिस्सा बँटवारे के बाद भी अपने हिस्से में न जाकर दूसरे के हिस्से में ही बना रहे और अपने लिए नए सिरे से अधिकारों की माँग करने लगे?

...किंतु तब क्या हो जब पालघर में दो संतों और उनके वाहनचालक की पुलिस के सामने ही पीट-पीट कर नृशंस हत्या कर दी जाय?

...किंतु तब क्या हो जब वासुदेव कृष्ण के समझाने के बाद भी दुर्योधन अपनी हठ पर अड़ा रहे?

...किंतु तब क्या हो जब रूस से युद्ध करने के लिये यूक्रेन को उकसाने वाला अमेरिका, युद्ध रुकवाने की दिशा के विरुद्ध यूक्रेन को निरंतर आयुध भेजने की हठ पर अड़ा रहे?

...किंतु तब क्या हो जब एक पक्ष अपने सुरक्षात्मक बचाव में हो जबकि दूसरा पक्ष निरंतर आक्रमण के लिये रणनीतियाँ तैयार करने में लगा रहे?  

 

भारत के सामने बहुत सी चुनौतियाँ हैं जिनका सामना भारत के उस समाज को करना है जो कई शताब्दियों तक पराधीनता का विषपान करने के लिये विवश होता रहा है और जो आज भी विदेशी आक्रांताओं की परम्पराओं के बीच स्वयं को घिरा पाता है ।    

पिछले लगभग चौदह सौ सालों से भारत का सनातनी समाज अपनी सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान पर होने वाले कुठाराघातों, अपने पारम्परिक मूल्यों के क्षरण और अपने अस्तित्व के संकट से भयभीत रहा है । इस भय के मूल में श्रृंखलाबद्ध घटनाओं के एक समान कारण हैं जिन्होंने भारतीय सनातनियों को ही नहीं विश्व भर के अन्य धर्मावलम्बियों को भी भयभीत कर रखा है ।

असह्य पीड़ा के बाद भी भारत का मध्यकालीन इतिहास हमें कॉमा में जाने से रोकता है । हम वैसी ही परिस्थितियों को आज फिर अपने सामने देखकर भयभीत हैं । 

फ़िलिस्तीन में यहूदियों पर आये संकट, ईरान में पारसियों पर आये संकट, ईराक में कुर्दों और यज़ीदियों पर आये संकट, बलूचिस्तान में बलूचों पर आये संकट, और कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर आये संकटों के इतिहास के बाद भारत में बढ़ती हिंसक घटनाओं ने एक बार फिर सनातनी समाज को भयभीत कर दिया है ।

काशी में “श्रृंगार गौरी मंदिर” बनाम “ज्ञानवापी मस्ज़िद” की जाँच का काम, न्यायालय के आदेश के बाद आज दिनांक 07 मई 2022 को दूसरे दिन भी नहीं हो सका । विवादित स्थल पर बहुत बड़ी संख्या में आये मुसलमानों की भीड़ में से कुछ लोगों ने स्पष्ट कहा कि वे “अदालत के निर्णय के बाद भी मस्ज़िद में जाँच दल को प्रवेश नहीं करने देंगे”। अदालतें तो ऐसा कहती ही रहती हैं, उनके कहने से क्या होता है! हम अल्लाह के घर में किसी को क्यों घुसने देंगे?” इस भीड़ के हठी व्यवहार, अपने साम्प्रदायिक मूल्यों और सामाजिक सामंजस्य के लिए आवश्यक लचीलेपन की शून्यता से हम सब भलीभाँति परिचित हैं । 

जब संविधान इस भीड़ के हठों के पक्ष में नहीं होता है तो यह भीड़ भारत के संविधान को नहीं मानती, यदि कोई न्यायालयीन निर्णय इस भीड़ के हठों के पक्ष में नहीं होता है तो यह भीड़ न्यायालय को नहीं मानती । इस भीड़ को नियंत्रित करने वाले कुछ लोग हैं जिन्हें एक अलग देश नहीं बल्कि पूरा भारत ही चाहिये । इस भीड़ की शताब्दियों पुरानी असहिष्णुता और आक्रामकता हर किसी के लिए चुनौती है । भारत के सनातनी इज़्राइली यहूदियों की तरह इस असहिष्णुता और आक्रामकता का सामना करने के लिये विवश हैं ।

नेतृत्वविहीन सनातनीसमाज विचलित करने वाली पीड़ाओं और शोषण की निरंतरता के बाद भी राज्याश्रय के अभाव में दीर्घकाल तक प्रतिक्रियाविहीन बना रहा । आज इस समाज को भी नेता मिलने प्रारम्भ हो गये हैं, किंतु दोनों समाजों की भीड़ का एक भी नेता ऐसा नहीं है जो अपनी-अपनी भीड़ को रचनात्मक और अनुशासित दिशा दे सकने में सक्षम हो । वास्तव में कोई भी नेता भीड़ को कोई दिशा देना ही नहीं चाहता बल्कि भीड़ का उपभोग अपने हितों के लिये करना चाहता है । उनके लिए भीड़ भी एक उपभोग की वस्तु है । नेतृत्व करने वाले नेताओं का लक्ष्य अपने प्रतिद्वंदी को मैदान से खदेड़कर किसी भी तरह सत्ता हथियाना है, भीड़ की समस्या से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता, इसीलिए भीड़ को मिलने वाला नेतृत्व दिशाविहीन है ।  

सनातनी समाज की प्रतिक्रियाओं को आज मिलने वाले थोड़े-बहुत राजनीतिक समर्थन के बाद भी उनमें आक्रामकता की अपेक्षा सुरक्षा और बचाव की चेतना ही अधिक दिखायी देती है । हमें, विभाजन के समय लाहौर और कराची में हुयी धार्मिक हिंसाओं के परिप्रेक्ष्य में ही नोआखाली हिंसा का भी विश्लेषण करना होगा । तत्कालीन नेताओं की मानसिकता और आचरण में भी हमें हिंसा और अहिंसा के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार देखने को मिलता रहा है ।

धार्मिक प्रदर्शनों की प्रतियोगिता

भारत की सनातनी मान्यताओं में धार्मिक अनुष्ठानों का प्रदर्शन करना अनुष्ठानों की परम्पराओं, मर्यादाओं और अध्यात्मिक दृष्टि से वर्ज्य है । भारत पर विदेशी धर्मावलम्बियों के आक्रमण, बलात् धर्मांतरण और धर्मस्थलों को तोड़े जाने के बाद से सनातनी धार्मिक पहचान को बचाये रखना एक चुनौती बन गयी । जो वर्ज्य था वह व्यवहार का एक हिस्सा बनने लगा । धार्मिक अनुष्ठान, जो व्यक्तिगत आचरण है, सामाजिक शक्ति-प्रदर्शन का माध्यम बन गया । शक्ति-प्रदर्शन में होड़ होने लगी तो वाद-प्रतिवाद भी प्रारम्भ होने लगे । अधर्मपूर्वक “धर्मांतरण” और “नरसंहार” को अपने वर्चस्व के लिए और सत्ता तक पहुँचने के एक सहज मार्ग के रूप में अपनाया जाने लगा तो धर्म समाप्त हो गया, और अधर्म अफीम बन कर स्थापित होने लगा ।

धर्म के आयुध से सत्ता के लक्ष्य तक

किसी को मंदिर की घंटी और शंख की ध्वनि से आपत्ति है, तो किसी को मस्ज़िद में लगे लाउडस्पीकर से होने वाली अजान से आपत्ति है । अस्सी डेसीबल से अधिक तीव्रता की ध्वनि मनुष्य के लिये हानिकारक हो सकती है । विज्ञान के इस तथ्य की उपेक्षा करते हुये हर समाज के लोग वर्षों से ध्वनिविस्तारकों का दुरुपयोग करते रहे हैं, जबकि शासन-प्रशासन इस दुरुपयोग के प्रति निर्विकार बना रहा । देश भर में कहीं भी अतिक्रमण कर रातोंरात मजार या दरगाह के निर्माण की निरंकुशता को संरक्षण देने की प्रवृत्ति, प्राचीन मंदिरों को मस्ज़िदों में रूपांतरित करने के पुराने प्रकरणों पर सरकारों के अनिर्णय और न्यायालयों की उपेक्षापूर्ण स्थितियों से समाधान की अपेक्षा समस्याओं को ही और बढ़ावा मिलता रहा है । लोलुप जनप्रतिनिधि भी इन विवादों को सुलझाने की अपेक्षा उलझाने में ही अधिक रुचि लेते रहे हैं । महाराष्ट्र सरकार ने ध्वनिविस्तारकों के प्रयोग पर समझदारी और न्यायपूर्ण तरीके से काम किया होता तो राज ठाकरे और राणा दम्पति को प्रतिक्रिया का अवसर नहीं मिलता ।

धार्मिक कर्मकांडों का प्रदर्शन बहुधार्मिक समाज में होड़ की ओर अग्रसर होने लगे तो असहिष्णु समाज में उग्रता और हिंसा की स्थितियों को निर्मित होने से रोका नहीं जा सकता । ऐसे प्रदर्शनों को हर स्थिति में रोका जाना चाहिए । यदि किसी समाज को किन्हीं परिस्थितियों के कारण शक्ति-प्रदर्शन और धार्मिक पहचान की आवश्यकता का अनुभव होता है तो यह सत्ताधीशों का दायित्व है कि वे असुरक्षा के उन कारणों का कठोरतापूर्वक अंत करें । आदर्शों के ढोल बजाने के बाद भी इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि अनुशासन बनाये रखने के लिए प्रशासनिक कठोरता का प्रयोग शासन की अपरिहार्य आवश्यकता है । 

शुक्रवार, 6 मई 2022

“चरक शपथ” एक गम्भीर अपराध?

            क्या होता है जब इण्डिया में “भारत” की किसी उत्कृष्ट परम्परा का पालन किया जाता है? आप कहेंगे कि भारतीय हर्षित होते हैं और उन्हें अपने देश की महान उपलब्धियों पर गर्व की अनुभूति होती है । किंतु वास्तविकता यह है कि भारत के बहुत से प्रभावशाली लोग अत्यंत दुःखी हो जाते हैं । वे आत्मग्लानि, मनःक्षोभ और हीनभावना के सागर में इतने अधिक डूब जाते हैं कि भारत की प्रजा को ऐसा लगने लगता है मानो कोई बहुत बड़ी समस्या आन खड़ी हुयी है जिसका तुरंत समाधान न किया गया तो भारत पर घोर संकट छा जाएगा । चिकित्सा छात्रों द्वारा “चरक शपथ” लेने के आरोप पर डीन को उनके पद से हटाने और “हनुमान चालीसा पाठ” करने की घोषणा पर सांसद और उनके विधायक पति पर देशद्रोह की धाराएँ लगा कर कारागार में ठूँस देने और उन्हें न्याय मिलने के मार्ग में अधिकतम विलम्ब एवं बाधायें उत्पन्न करने की निर्लज्जता को पूरे देश ने बड़ी लज्जापूर्वक देखा और सुना है ।

तमिलनाडु के मदुरै स्थित राजकीय चिकित्सा महाविद्यालय में “चिकित्सादीक्षा सत्रारम्भ” पर प्रथमवर्ष के छात्रों द्वारा ब्रिटिश-इण्डिया यानी पराधीन भारत की परम्परागत “हिप्पोक्रेटिक ओथ” के स्थान पर “चरक शपथ” लेने पर तमिलनाडु सरकार इतनी कुपित और विचलित हो गयी कि उसने तत्काल प्रभाव से डीन को उनके पद से हटा दिया । भयभीत हुये डीन डॉक्टर रथिनवेल को आत्मग्लानि हुयी और उन्होंने ग्रीक-सभ्यता की उपासक तमिलनाडु सरकार को दयनीय भाव से स्पष्टीकरण दिया कि यह सब छात्रों की असावधानी के कारण हुआ था, इसमें स्वयं उनकी कोई भूमिका नहीं है, वे निर्दोष हैं ।

मदुरै मेडिकल कॉलेज में चरक संहिता, विमान स्थान, अध्याय 8, अनुच्छेद 13 में वर्णित चिकित्सा शपथ के सारांश का उपयोग किया गया जिसका वाचन किए जाने के कारण माननीय और प्रभावशाली लोग आत्मग्लानि और गम्भीर अपराधबोध से भर उठे हैं । यह है वह आयुर्वेदोक्त चरक शपथ“मैं पूर्वाभिमुख होकर पवित्र अग्नि, विद्वजन एवं ग्रंथों को साक्षी मानते हुये यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि एक चिकित्सक होने के नाते मैं संयत, सात्विक और अनुशासित जीवन व्यतीत करूँगा; अपने जीवन में शांति, समाधान एवं विनम्रता को स्वीकार करूँगा; अपने वैद्यकीय ज्ञान का उपयोग केवल सफलता और सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए नहीं अपितु सभी प्राणिमात्र के कल्याण के लिए करूँगा; वैयक्तिक कार्यभार एवं विश्रांति की अपेक्षा रोगी की सेवा को अधिक महत्व दूँगा; स्वार्थ और अर्थ प्राप्ति के लिए रुग्ण का अहित नहीं होने दूँगा; अनैतिक विचारों से सदैव दूर रहूँगा; मेरा रहन सहन सीधा-सादा किंतु प्रभावशाली रहे और मेरा व्यक्तित्व विश्वासदायक रहे इस बात के प्रति सदैव जागरूक रहूँगा; मेरी भाषा सदैव विनम्र, मधुर, पवित्र, उचित, आनंदवर्द्धक एवं हितकर हो इसके लिए प्रयत्नशील रहूँगा; रोगी के परीक्षण के समय मैं अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियों एवं मन के साथ व्याधि निदान पर ध्यान दूँगा; स्त्री रुग्णा का परीक्षण एवं चिकित्सा उसके पति, आप्त या स्त्री परिचारक की उपस्थिति में रहते हुये ही करूँगा; रुग्ण अथवा उसके सभी संबंधियों की जानकारी गोपनीय रखूँगा । मैं नित्य नये तंत्र ज्ञान एवं नये अनुसंधान के लिए सतत प्रयत्नशील रहूँगा; विपरीत आचरण करने पर मेरे लिए अशुभकारक हो

तमिलनाडु के वित्त मंत्री पी.टी.आर.पलानीवेल थियागा राजन के लिए यह एक गहरा आघात था, उन्हें इतनी ग्लानि हयी कि उन्होंने कार्यक्रम के बाद मीडिया को बताया कि वे “भौंचक रह गये” जब उन्होंने भारतीय छात्रों को ग्रीस देश के “हिप्पोक्रेटस की शपथ के स्थान” पर भारत देश की “चरक शपथ” लेते हुये (वह भी संस्कृत में) छात्रों को सुना । वित्तमंत्री ने अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुये बताया कि वे तो चाहते हैं कि “राजनेताओं को भी हिप्प्क्रेटिक ओथ ज़रूर लेनी चाहिये”।

कदाचित तमिलनाडु सरकार का अब अगला प्रहार “राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग” पर होगा जिसने हिप्पोक्रेटिक ओथ को “चरक शपथ” से बदलने की अनुशंसा की थी । राष्ट्रवादी “भाजपा” के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने कुछ समय पूर्व ही संसद में बड़े अपराध बोध के साथ एक सुरक्षात्मक वक्तव्य दिया था कि भारत की “चरक शपथ” भारतीय “छात्रों पर थोपी नहीं जायेगी बल्कि वैकल्पिक होगी”, गोया “सत्य किसी पर थोपा नहीं जायेगा बल्कि वैकल्पिक होगा” अथवा “सूर्य का प्रकाश किसी पर थोपा नहीं जाएगा बल्कि वैकल्पिक होगा”। भारत के बड़े-बड़े और प्रभावशाली लोग अपने देश में विदेशी परम्पराओं के स्थान पर भारतीय परम्पराओं के पालन किये जाने से कितने दुःख और ग्लानि से भर जाते हैं, यह इसका ताजा उदाहरण है जो 11 मार्च 2022 को मदुरै में देखने को मिला ।

भारत में आयुर्वेद के विद्यार्थी, ईसा पूर्व पंद्रहवीं शताब्दी से ही महर्षि पुनर्वसु आत्रेय के शिष्य और प्रख्यात आयुर्वेदज्ञ महर्षि अग्निवेश के चिकित्साग्रंथ “अग्निवेशतंत्र” में उल्लेखित आयुर्वेदोक्त शपथ ग्रहण करते रहे हैं । बाद में तक्षशिला के छात्र रहे महर्षि चरक ने इसी अग्निवेशतंत्र का प्रतिसंस्कार किया जिसके बाद से अग्निवेश तंत्र “चरकसंहिता” के नाम से विख्यात हुआ । प्रसंगवश यह बताना आवश्यक है कि आठवीं शताब्दी में सर्जरी के आदिग्रंथ “सुश्रुत संहिता” का अरबी में अनुवाद ख़लीफ़ा मंसूर ने किया और सर्जरी को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।

ईसवी सन् से 460 वर्ष पूर्व जन्म लेने वाले हिप्पोक्रेट्स (जो फ़िज़िशियन थे, आज की तरह फ़िज़िशियन एण्ड सर्जन नहीं) के समय तक पश्चिमी देशों में सर्जरी अपने विकास के प्रारम्भिक चरण में हुआ करती थी इसीलिए हिप्पोक्रेट्स की ओथ में सर्जरी को सम्मिलित नहीं किया गया है । भारतीय छात्र उसी अधूरी ओथ को ग्रहण करके गर्वान्वित होते हैं जबकि वे “बैचलर ऑफ़ मेडीसिन एण्ड बैचलर ऑफ़ सर्जरी” की शिक्षा ग्रहण करते हैं ।

यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक है कि कुछ विदेशी आक्रामक भारत से अपने देश वापस जाते समय भारतीय विद्वानों और आयुर्वेदिक ग्रंथों को साथ ले जाना नहीं भूले । उन्होंने इन ग्रंथों का विदेशी भाषाओं में अनुवाद कराया और पश्चिमी देशों को भारतीय चिकित्सा विज्ञान से परिचित कराया । इन लोगों में सिकंदर का भी नाम है जो अपने साथ आयुर्वेदिक टॉक्ज़िकोलॉज़ी के विशेषज्ञों को लेकर मक्दूनिया गया था ।   

आयुर्वेदोक्त चिकित्सा शपथ का वर्णन चरक संहिता के विमान स्थान के अध्याय आठ के अनुच्छेद तेरह में विस्तार से किया गया है जिसे किंचित परिवर्तन के साथ हिप्पोक्रेट्स ने और फिर पश्चिमी देशों ने भी अपनाया । यद्यपि दोनों शपथों में बहुत कुछ साम्यता है तथापि कुछ “वैचारिक और सांस्कारिक” अंतर हैं जो आयुर्वेदोक्त शपथ की श्रेष्ठता को प्रमाणित करते हैं ।

 

यहाँ प्रस्तुत है ईसापूर्व 460 में रचित “हिप्पोक्रेटिक ओथ” के नाम से पूरे विश्व में प्रचलित चिकित्सा संकल्प –    

“मैं अपोलो वैद्य, अस्क्लीपियस, इयईया, पानाकीया और सारे देवी देवताओं की कसम खाता हूँ और उन्हें हाज़िर-नाज़िर मानकर कहता हूँ कि मैं अपनी योग्यता और परखशक्ति के अनुसार इस शपथ को पूरा करूँगा । जिस इंसान ने मुझे यह पेशा सिखाया है, मैं उसका उतना ही गहरा सम्मान करूँगा जितना मैं अपने माता-पिता का करता हूँ । मैं जीवन भर उसके साथ मिलकर काम करूँगा और यदि उसे कभी धन की आवश्यकता हुयी तो उसकी सहायता करूँगा, उसके बेटों को अपना भाई समझूँगा और अगर वे चाहें तो बिना किसी शुल्क या शर्त के उन्हें सिखाऊँगा । मैं सिर्फ़ अपने बेटों, अपने गुरु के बेटों और उन सभी विद्यार्थियों को शिक्षा दूँगा जिन्होंने चिकित्सा के नियम के अनुसार शपथ खायी और समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं । मैं उन्हें चिकित्सा के सिद्धांत सिखाऊँगा, ज़ुबानी हिदायतें दूँगा, और जितनी बातें मैंने सीखी हैं वे सब सिखाऊँगा । रोगी की सेहत के लिए यदि मुझे खान-पान में परहेज़ करना पड़े तो मैं अपनी योग्यता और परखशक्ति के अनुसार ऐसा अवश्य करूँगा, और किसी भी क्षति या अन्याय से उनकी रक्षा करूँगा । मैं किसी के माँगने पर भी उसे विषैली दवा नहीं दूँगा और न ही ऐसी दवा लेने के लिए परामर्श दूँगा । उसी तरह, मैं किसी भी स्त्री को गर्भ गिराने की दवा नहीं दूँगा, मैं पूरी शुद्धता और पवित्रता के साथ अपनी ज़िंदगी और अपनी कला की रक्षा करूँगा । मैं किसी की सर्जरी नहीं करूँगा, उसकी भी नहीं जिसके अंग में पथरी हो गयी हो, बल्कि यह काम उनके लिए छोड़ दूँगा जिनका यह पेशा है । मैं जिस किसी रोगी के घर जाऊँगा उसके लाभ के लिए ही काम करूँगा किसी के साथ जानबूझकर अन्याय नहीं करूँगा, हर तरह के बुरे काम से खासकर स्त्रियों और पुरुषों के साथ लैंगिक संबंध रखने से दूर रहूँगा फिर चाहे वे गुलाम हों या नहीं । चिकित्सा के समय या दूसरे समय, अगर मैंने रोगी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कोई ऐसी बात देखा या सुनी जिसे दूसरों को बताना बिल्कुल गलत होगा तो मैं उस बात को अपने तक ही रखूँगा ताकि रोगी की बदनामी न हो ।

अगर मैं इस शपथ को पूरा करूँ और कभी इसके विरुद्ध न जाऊँ तो मेरी दुआ है कि मैं अपने जीवन और कला का आनंद उठाता रहूँ, और लोगों में सदा के लिए मेरा नाम ऊँचा रहे लेकिन अगर मैंने कभी यह शपथ तोड़ी और झूठा साबित हुआ तो इस दुआ का बिल्कुल उलटा असर मुझ पर हो”।

आयुर्वेदोक्त “चरक शपथ”

अब प्रस्तुत है 1500 वर्ष ईसापूर्व से प्रचलित आयुर्वेदोक्त शपथ का कुछ अंश जिसका विस्तृत वर्णन अग्निवेशतंत्र में किया गया है और जिसे बहुत बाद में चरक संहिता के नाम से प्रतिसंस्कारित किया गया –

   “मैं जीवनभर ब्रह्मचारी रहूँगा, सत्यवादी रहूँगा, मांसादि का सेवन नहीं करूँगा, सात्विक आहार का सेवन करूँगा, ईर्ष्या नहीं करूँगा, (हिंसक कार्यों के लिए) अस्त्र-शस्त्र धारण नहीं करूँगा, अधार्मिक कृत्य नहीं करूँगा, किसी से द्वेष नहीं करूँगा, हिंसा नहीं करूँगा, रोगियों की उपेक्षा नहीं करूँगा और उनकी सेवा को अपना धर्म समझूँगा; जिसके परिवार में चिकित्सा के लिए जाऊँगा उसकी गोपनीयता की रक्षा करूँगा, अपने ज्ञान पर अहंकार नहीं करूँगा, गुरु को सदा गुरु मानूँगा । मैं गऊ एवं ब्राह्मण से लेकर सभी प्राणियों के कल्याण हेतु प्रार्थना करूँगा; अपनी आजीविका की चिंता किए बिना रोगी के कल्याणार्थ हर सम्भव उपाय करूँगा; विचारों में भी परगमन (मनसाऽपि च परस्त्रियो न अभिगमनीयास्तथा...) नहीं करूँगा; दूसरों की वस्तुओं के प्रति लोभ नहीं करूँगा, पाप नहीं करूँगा, न किसी पापी की सहायता करूँगा; पति एवं संरक्षक की आज्ञा के बिना किसी स्त्री द्वारा दी गयी भेंट को भी स्वीकार नहीं करूँगा; रोगी के घर में प्रवेश करने के पश्चात मेरी वाणी, मस्तिष्क, बुद्धि तथा ज्ञानेंद्रियाँ पूर्णरूप से केवल रोगी के हितार्थ तथा उसी से सम्बंधित विषयों के अतिरिक्त अन्य किसी विचार में रत नहीं होंगी”।

इस शपथ में गौ और ब्राह्मण का उल्लेख किया गया है जिन्हें स्वतंत्र भारत के सेक्युलर्स तनिक भी पसंद नहीं करते और जिनके प्रति सदैव विद्वेषभाव से परिपूर्ण रहते हैं । ध्यान से देखा जाय तो हिप्पोक्रेटिक ओथ आयुर्वेदोक्त शपथ पर ही आधारित है जिसे ग्रीक सभ्यता के अनुरूप किंचित परिवर्तित किया गया है । हिप्पोक्रेटिक ओथ में चिकित्सा को “पेशा” माना गया है जबकि आयुर्वेदोक्त शपथ में चिकिसा को नैतिक, धार्मिक और सामाजिक सेवा माना गया है । आयुर्वेदिक शपथ का केंद्रीय भाव मानवता, “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय”, नैतिक चरित्र, सात्विक आचरण और रोगी कल्याण है ।

हिप्पोक्रेटिक ओथ में सर्जरी से दूर रहने की शपथ ली जाती है जबकि भारतीय चिकित्सा पाठ्यक्रमों में इसका समावेश स्नातक स्तर पर भी किया गया है । यह एक गम्भीर विरोधाभास है जो ग्रीक परम्परा होने के कारण भारत के परम्पराविरोधियों के लिए शिरोधार्य है ।   

हिप्पोक्रेटिक ओथ में एक अंश ध्यान देने योग्य है – “....हर तरह के बुरे काम से, विशेषकर स्त्रियों और पुरुषों के साथ लैंगिक संबंध रखने से दूर रहूँगा फिर चाहे वे गुलाम हों या नहीं। ग्रीक समाज में प्राचीन काल से समलैंगिकता का प्रचलन रहा है जिसकी छाप हिप्पोक्रेटिक ओथ पर भी निषेधात्मकरूप में दिखायी देती है । नैतिकमूल्य आधारित इस तरह का निषेध ग्रीक समाज के लिए तो प्रशंसनीय है किंतु भारतीय परिवेश में इस तरह की शपथ के औचित्य पर प्रश्न उठाना भी ईशनिंदा या देशद्रोह जैसा गम्भीर अपराध माना जा सकता है । यह लगभग उसी तरह है जैसे शराब न पीने वाला कोई सात्विक व्यक्ति शराब न पीने की शपथ ले ।

इस ओथ में “ग़ुलाम स्त्री-पुरुष के साथ लैंगिक सम्बंध रखने के अधिकारों जैसी ग्रीक परम्परा का उल्लेख है जिसका प्रचलन भारतीय सभ्यता में कभी रहा ही नहीं । भारत में न तो ग़ुलाम हैं और न ग़ुलामों के साथ लैंगिक सम्बंध रखने के किसी को अधिकार दिए गये हैं तथापि हिप्पोक्रेटिक ओथ होने के कारण भारतीय छात्रों को भी ओथ के इस अंश का वाचन करना अनिवार्य है अन्यथा ग्रीक लोग बुरा मान जायेंगे या उनकी भावनायें गम्भीररूप से आहत हो जायेंगी जिसके परिणामस्वरूप दंगे होने की आशंका हो सकती है । इस तरह के अतिवादी बुद्धिमत्तापूर्ण प्रीज़म्प्शन्स की गरम आँधियों से यह देश निरंतर झुलसता रहे इस बात का भारत में विशेष ध्यान रखा जाता है ।   

ताल का पानी तालय जाय घूम-घूम पातालय जाय । आयुर्वेदोक्त शपथ भारत से पश्चिम गयी और फिर वहाँ से पश्चिमी परिधान पहनकर भारत वापस आते ही पूज्यनीय हो गयी । अब आयुर्वेदोक्त शपथ एक गम्भीर अपराध और राष्ट्रद्रोह मानी जाने लगी है ।