इस लेख
की विषयवस्तु पर चिंतन करते समय मेरे सामने भारत के भविष्य की चिंता थी । लेख
पूर्ण होने पर शीर्षक लिखा गया “भारत का भविष्य”। फिर याद आया कि चिंता तो अपने आप
में एक विकृतावस्था है इसलिए शीर्षक बदलकर “प्रॉग्नोसिस ऑफ़ द सो काल्ड सेक्युलर
इण्डिया” लिखना अधिक उपयुक्त लगा ।
“जिस
दिन कोई लोकतंत्र अपनी भीड़ के अतिवादी चरित्र के कारण अलोकतांत्रिक हो जायेगा, उस
दिन फिर एक क्रांति होगी जो अलोकतांत्रिक प्रणाली को राजतंत्र या अधिनायकतंत्र में
परिवर्तित कर देगी । यह इस बात पर निर्भर करेगा कि भीड़ का नेतृत्व करने वाले
व्यक्ति की मानसिक प्रकृति कैसी है? यदि उसकी प्रकृति तामसी
हुयी तो नये तंत्र का संचालक अधिनायक होगा, किंतु यदि उसकी
प्रकृति राजसिक हुयी तो नये तंत्र का संचालक राजा होगा” – यह मत है मोतीहारी वाले मिसिर
जी का जो बताते हैं कि कोई भी शासन
प्रणाली कभी स्थायी नहीं हो सकती । समाज का स्वभाव गतिशील और विकारोन्मुखी होता है
। भीड़ की शक्ति में ही समाज को अपनी सुरक्षा दिखायी देती है । समाज का
विकासोन्मुखी स्वरूप मनुष्य की एक ऐसी गढ़ी हुयी कामना है जिसका अंत विकारोन्मुखी
होता है । विनाशकारी युद्ध कभी अविकसित देशों में नहीं होते ।
इज़्राइल
के पथ पर
पिछले
एक लेख पर एक राज्य के पूर्व विधानसभा सचिव की टिप्पणी प्राप्त हुयी थी– “हमारा
देश पश्चिमी पूँजीवाद, चीनी विस्तारवाद, और इस्लामिक आतंकवाद के तिहरे संकट
में फँसा हुआ है । विकास की भूख पहले से भीतर धधक रही है । चाहे-अनचाहे हमारा
आदर्श इज़राइल बनना है, जिसे गृहमंत्री अमित शाह ने
सार्वजनिकरूप से स्वीकारा भी है । हनुमान चालीसापाठ, बुलडोजर
चलवाना या नेताओं के विषबुझे बयान – ये सब भी एग्रेसिवनेस के लक्षण हैं । (यह
भारतीय समाज को खोजना है कि) इस अपरिहार्य आक्रामकता को रचनात्मक और अनुशासित दिशा
कैसे मिले?”
हाँ! यह
भारतीय समाज को खोजना है । इस खोज का विषय गम्भीर है, और
इसे खोजने का दायित्व भारत में रहने वाले सभी लोगों पर है ।
...किंतु
तब क्या हो जब भारत में रहने वाला एक समुदाय भारतीय मूल्यों और आदर्शों को स्वीकार
करने से न केवल इंकार कर दे बल्कि उनके विरुद्ध जाकर संघर्ष और हिंसा पर उतारू हो
जाय?
...किंतु
तब क्या हो जब भारत में रहने वाला एक समुदाय विदेशी आक्रामणकारियों के मूल्यों और
आदर्शों को भारत में स्थापित करने के हठ पर अड़ जाय?
...किंतु
तब क्या हो जब भारत मे रहने वाला एक समाज संविधान और न्यायालय के मामले में
चयनात्मक हो जाय?
...किंतु
तब क्या हो जब भारत में रहने वाला एक समाज दूसरे समाज के अस्तित्व के लिए ही संकट
बन जाय?
...किंतु
तब क्या हो जब देश के बँटवारे के लिये लड़ने वाले समुदाय का एक बड़ा हिस्सा बँटवारे
के बाद भी अपने हिस्से में न जाकर दूसरे के हिस्से में ही बना रहे और अपने लिए नए
सिरे से अधिकारों की माँग करने लगे?
...किंतु
तब क्या हो जब पालघर में दो संतों और उनके वाहनचालक की पुलिस के सामने ही पीट-पीट
कर नृशंस हत्या कर दी जाय?
...किंतु
तब क्या हो जब वासुदेव कृष्ण के समझाने के बाद भी दुर्योधन अपनी हठ पर अड़ा रहे?
...किंतु
तब क्या हो जब रूस से युद्ध करने के लिये यूक्रेन को उकसाने वाला अमेरिका, युद्ध
रुकवाने की दिशा के विरुद्ध यूक्रेन को निरंतर आयुध भेजने की हठ पर अड़ा रहे?
...किंतु
तब क्या हो जब एक पक्ष अपने सुरक्षात्मक बचाव में हो जबकि दूसरा पक्ष निरंतर
आक्रमण के लिये रणनीतियाँ तैयार करने में लगा रहे?
भारत के
सामने बहुत सी चुनौतियाँ हैं जिनका सामना भारत के उस समाज को करना है जो कई
शताब्दियों तक पराधीनता का विषपान करने के लिये विवश होता रहा है और जो आज भी
विदेशी आक्रांताओं की परम्पराओं के बीच स्वयं को घिरा पाता है ।
पिछले लगभग
चौदह सौ सालों से भारत का सनातनी समाज अपनी सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान पर होने वाले
कुठाराघातों, अपने पारम्परिक मूल्यों के क्षरण और अपने अस्तित्व के संकट से भयभीत रहा है
। इस भय के मूल में श्रृंखलाबद्ध घटनाओं के एक समान कारण हैं जिन्होंने भारतीय
सनातनियों को ही नहीं विश्व भर के अन्य धर्मावलम्बियों को भी भयभीत कर रखा है ।
असह्य
पीड़ा के बाद भी भारत का मध्यकालीन इतिहास हमें कॉमा में जाने से रोकता है । हम
वैसी ही परिस्थितियों को आज फिर अपने सामने देखकर भयभीत हैं ।
फ़िलिस्तीन
में यहूदियों पर आये संकट, ईरान में पारसियों पर आये संकट, ईराक में कुर्दों और
यज़ीदियों पर आये संकट, बलूचिस्तान में बलूचों पर आये संकट,
और कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर आये संकटों के इतिहास के बाद भारत
में बढ़ती हिंसक घटनाओं ने एक बार फिर सनातनी समाज को भयभीत कर दिया है ।
काशी
में “श्रृंगार गौरी मंदिर” बनाम “ज्ञानवापी मस्ज़िद” की जाँच का काम,
न्यायालय के आदेश के बाद आज दिनांक 07 मई 2022 को दूसरे दिन भी नहीं हो सका ।
विवादित स्थल पर बहुत बड़ी संख्या में आये मुसलमानों की भीड़ में से कुछ लोगों ने
स्पष्ट कहा कि वे “अदालत के निर्णय के बाद भी मस्ज़िद में जाँच दल को प्रवेश नहीं
करने देंगे”। “अदालतें तो ऐसा कहती ही रहती हैं, उनके कहने से क्या होता है! हम अल्लाह के घर में किसी को क्यों घुसने
देंगे?” इस भीड़ के हठी व्यवहार, अपने
साम्प्रदायिक मूल्यों और सामाजिक सामंजस्य के लिए आवश्यक लचीलेपन की शून्यता से हम
सब भलीभाँति परिचित हैं ।
जब संविधान
इस भीड़ के हठों के पक्ष में नहीं होता है तो यह भीड़ भारत के संविधान को नहीं मानती, यदि कोई
न्यायालयीन निर्णय इस भीड़ के हठों के पक्ष में नहीं होता है तो यह भीड़ न्यायालय को
नहीं मानती । इस भीड़ को नियंत्रित करने वाले कुछ लोग हैं जिन्हें एक अलग देश नहीं
बल्कि पूरा भारत ही चाहिये । इस भीड़ की शताब्दियों पुरानी असहिष्णुता और आक्रामकता
हर किसी के लिए चुनौती है । भारत के सनातनी इज़्राइली यहूदियों की तरह इस
असहिष्णुता और आक्रामकता का सामना करने के लिये विवश हैं ।
नेतृत्वविहीन
सनातनीसमाज विचलित करने वाली पीड़ाओं और शोषण की निरंतरता के बाद भी राज्याश्रय के
अभाव में दीर्घकाल तक प्रतिक्रियाविहीन बना रहा । आज इस समाज को भी नेता मिलने
प्रारम्भ हो गये हैं, किंतु दोनों समाजों की भीड़ का एक भी नेता ऐसा नहीं है जो अपनी-अपनी भीड़ को
रचनात्मक और अनुशासित दिशा दे सकने में सक्षम हो । वास्तव में कोई भी नेता भीड़ को
कोई दिशा देना ही नहीं चाहता बल्कि भीड़ का उपभोग अपने हितों के लिये करना चाहता है
। उनके लिए भीड़ भी एक उपभोग की वस्तु है । नेतृत्व करने वाले नेताओं का लक्ष्य
अपने प्रतिद्वंदी को मैदान से खदेड़कर किसी भी तरह सत्ता हथियाना है, भीड़ की समस्या से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता, इसीलिए
भीड़ को मिलने वाला नेतृत्व दिशाविहीन है ।
सनातनी
समाज की प्रतिक्रियाओं को आज मिलने वाले थोड़े-बहुत राजनीतिक समर्थन के बाद भी
उनमें आक्रामकता की अपेक्षा सुरक्षा और बचाव की चेतना ही अधिक दिखायी देती है । हमें, विभाजन
के समय लाहौर और कराची में हुयी धार्मिक हिंसाओं के परिप्रेक्ष्य में ही नोआखाली
हिंसा का भी विश्लेषण करना होगा । तत्कालीन नेताओं की मानसिकता और आचरण में भी
हमें हिंसा और अहिंसा के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार देखने को मिलता रहा है ।
धार्मिक
प्रदर्शनों की प्रतियोगिता
भारत की
सनातनी मान्यताओं में धार्मिक अनुष्ठानों का प्रदर्शन करना अनुष्ठानों की
परम्पराओं, मर्यादाओं और अध्यात्मिक दृष्टि से वर्ज्य है । भारत पर विदेशी
धर्मावलम्बियों के आक्रमण, बलात् धर्मांतरण और धर्मस्थलों को
तोड़े जाने के बाद से सनातनी धार्मिक पहचान को बचाये रखना एक चुनौती बन गयी । जो
वर्ज्य था वह व्यवहार का एक हिस्सा बनने लगा । धार्मिक अनुष्ठान, जो व्यक्तिगत आचरण है, सामाजिक शक्ति-प्रदर्शन का
माध्यम बन गया । शक्ति-प्रदर्शन में होड़ होने लगी तो वाद-प्रतिवाद भी प्रारम्भ
होने लगे । अधर्मपूर्वक “धर्मांतरण” और “नरसंहार” को अपने वर्चस्व के लिए और सत्ता
तक पहुँचने के एक सहज मार्ग के रूप में अपनाया जाने लगा तो धर्म समाप्त हो गया,
और अधर्म अफीम बन कर स्थापित होने लगा ।
धर्म के
आयुध से सत्ता के लक्ष्य तक
किसी को
मंदिर की घंटी और शंख की ध्वनि से आपत्ति है, तो किसी को मस्ज़िद में लगे
लाउडस्पीकर से होने वाली अजान से आपत्ति है । अस्सी डेसीबल से अधिक तीव्रता की
ध्वनि मनुष्य के लिये हानिकारक हो सकती है । विज्ञान के इस तथ्य की उपेक्षा करते
हुये हर समाज के लोग वर्षों से ध्वनिविस्तारकों का दुरुपयोग करते रहे हैं, जबकि शासन-प्रशासन इस दुरुपयोग के प्रति निर्विकार बना रहा । देश भर में
कहीं भी अतिक्रमण कर रातोंरात मजार या दरगाह के निर्माण की निरंकुशता को संरक्षण
देने की प्रवृत्ति, प्राचीन मंदिरों को मस्ज़िदों में रूपांतरित
करने के पुराने प्रकरणों पर सरकारों के अनिर्णय और न्यायालयों की उपेक्षापूर्ण स्थितियों
से समाधान की अपेक्षा समस्याओं को ही और बढ़ावा मिलता रहा है । लोलुप जनप्रतिनिधि भी
इन विवादों को सुलझाने की अपेक्षा उलझाने में ही अधिक रुचि लेते रहे हैं ।
महाराष्ट्र सरकार ने ध्वनिविस्तारकों के प्रयोग पर समझदारी और न्यायपूर्ण तरीके से
काम किया होता तो राज ठाकरे और राणा दम्पति को प्रतिक्रिया का अवसर नहीं मिलता ।
धार्मिक कर्मकांडों का प्रदर्शन बहुधार्मिक समाज में होड़ की ओर अग्रसर होने लगे तो असहिष्णु समाज में उग्रता और हिंसा की स्थितियों को निर्मित होने से रोका नहीं जा सकता । ऐसे प्रदर्शनों को हर स्थिति में रोका जाना चाहिए । यदि किसी समाज को किन्हीं परिस्थितियों के कारण शक्ति-प्रदर्शन और धार्मिक पहचान की आवश्यकता का अनुभव होता है तो यह सत्ताधीशों का दायित्व है कि वे असुरक्षा के उन कारणों का कठोरतापूर्वक अंत करें । आदर्शों के ढोल बजाने के बाद भी इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि अनुशासन बनाये रखने के लिए प्रशासनिक कठोरता का प्रयोग शासन की अपरिहार्य आवश्यकता है ।
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