1- लोकतंत्र में प्रजा को राजद्रोह का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त है । राज्य के प्रधान, राज्य की नीतियों और राज्य के द्वारा बनाये कानूनों के विरुद्ध द्रोह करना, उनकी आलोचना करना, उन्हें मानने से इंकार करना और उन्हें अपने अनुकूल बदलने के लिये आंदोलन करना लोकतंत्र की शुचिता के लिए आवश्यक है । अतः चोरी और भ्रष्टाचार आदि अपराधों के विरुद्ध राज्य द्वारा बनाये गये कानूनों के विरुद्ध द्रोह करना लोकतंत्र की मर्यादाओं के अनुकूल है । आई.ए.एस. पूजा जी ज़िंदाबाद!
2-
लोकतंत्र में देश की एकता, अखण्डता
और सम्प्रभुता के विरुद्ध की गयी कोई भी गतिविधि राष्ट्रद्रोह के अंतर्गत दण्डनीय
अपराध है, ...किंतु लोकतंत्र में आम नागरिक की तरह किसी
अपराधी को भी सत्ता का सहभागी या प्रधान बनने का अधिकार संविधान प्रदत्त है । जिस
तरह राजतंत्र में शक्तिशाली योद्धा को राजा बनने का अधिकार हुआ करता था इसी तरह
लोकतंत्र में भी हर व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनने का अधिकार है । जिस तरह 1947 में
दो व्यक्ति भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते थे इसलिए उन्होंने दो देश बना लिए और
प्रधानमंत्री बन गये उसी तरह आज के भारत में यदि चालीस लोग प्रधानमंत्री बनना
चाहते हैं तो वे एक देश में से चालीस और नये देश बनाकर, एक-एक
देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं । इसे राष्ट्रद्रोह नहीं कहा जा सकता । रही बात
एकता, अखण्डता और सम्प्रभुता की तो ये शब्द यूटोपियन हैं,
इनका वास्तविक स्वरूप तो केवल कम्युनिस्ट देशों में ही देखने को मिल
सकता है । बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब,
राजस्थान और तमिलनाडु आदि प्रांतों का केंद्र के साथ शत्रुवत टकराव
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि एकता-अखण्डता-सम्प्रभुता केवल मंच पर बोले जाने
वाले शब्द हैं, परिवार में इन मौलिक शब्दों के अर्थों का
हमें लगभग अभाव हे देखने को मिलता है, हम इतने बड़े देश के
लिए इनकी कल्पना कैसे कर सकते हैं! उमर ख़ालिद ज़िंदाबाद!
3-
लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति, रीति,
नीति, क्रिया, प्रतिक्रिया
आदि का विरोध करना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त
मौलिक अधिकार हैं इसलिए कोई भी व्यक्ति या भीड़ सेना पर पथराव ही नहीं गोली भी चला
सकती है । किसी आपराधिक प्रकरण में जाँच के लिए आने वाली पुलिस या अन्य किसी विधिक
दल पर हिंसक आक्रमण कर देना लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप है, ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह की कोई धारा लगा कर कार्यवाही
करना लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या है । कश्मीरी आतंकवादी अमर रहे! आतंकवादियों के
हिमायती अब्दुल्ला और महबूबा ज़िंदाबाद!
4-
लोकतांत्रिक देश में न्यायालय या सरकार या
जाँच समितियों के क्रिया-कलापों और निर्णयों को मानने या न मानने के लिये उन
नागरिकों को पूरा अधिकार है जिनके पास पर्याप्त हिंसक बल उपलब्ध है । ऐसे लोगों के
विरुद्ध लोकतांत्रिक देश भारत के पास कोई भी कानून या दण्ड संहिता उपलब्ध नहीं है
। अमानतुल्ला ख़ान ज़िंदाबाद! शाहीनबाग अमर रहे!
5-
प्रांतीय सरकार के समानांतर अपनी स्थानीय
सरकार चलाना शक्तिशाली संगठनों का अधिकार है, यह न राजद्रोह है और न
राष्ट्रद्रोह्। यही कारण है कि भारत के कई प्रांतों के कुछ क्षेत्रों में कुछ
संगठनों की समानांतर सरकारें चल रही हैं और ऐसे संगठनों से सरकारें भी थर्राती हैं
। इसके पीछे की पुण्य भावना यह है कि विश्व के किसी भी व्यक्ति को किसी समुदाय या
भौगोलिक क्षेत्र का नेतृत्व करने, उस पर शासन करने, उससे टैक्स या चौथ या जजिया वसूलने का अधिकार है । आख़िर क्यों राम ही राजा
बनेंगे गंगू क्यों नहीं बनेगा? लाल सलाम ज़िंदाबाद! नक्सलवाद अमर
रहे!
6- पत्नी से यौन सम्बंध स्थापित करना न्यायोचित भी है और अपराध भी । यह इस बात पर निर्भर करता है कि अदालत में वकील किस तरह का क्रिएशन प्रस्तुत करता है । अर्थात एक ही कृत्य उचित भी है और अनुचित भी । किसी कृत्य को कब उचित कहा जायेगा और कब अनुचित यह परिस्थितियों और भाग्य पर निर्भर करता है । भूषण-सिब्बल ज़िंदाबाद! सुप्रीम कोर्ट अमर रहे!
इस वितण्डा और गाल बजाऊ छीछालेदर के बाद
प्रातः स्मरणीय श्रद्धेय मोतीहारी वाले मिसिर जी का तो मानना है कि कानून उन लोगों
के लिए होता है जो शासित होते हैं, जो शासित होते हैं वे निर्बल
और बेचारे होते हैं । कानून वे बनाते हैं जो शासक होते हैं, जो
शासक होते हैं वे बलशाली होते हैं । अर्थात शक्ति ही कानून है और निर्बलता ही
अपराध है, अर्थात कानून वह वितण्डा है जिसकी मनमानी व्याख्या
की जा सकती है । यह मनमानापन लोकतंत्र का वह लचीलापन है जो हर किसी को समान अवसर
उपलब्ध करवाता है । जय हो! राधे! राधे!
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