बुधवार, 18 मई 2022

लिङ्ग

             कल एक टीवी चैनल पर वकील साहब ने हिन्दू पक्ष से पूछा कि क्या किसी व्यक्ति के लिङ्ग का अग्रभाग ऐसा हो सकता है जैसा कि ज्ञानवापी में मिले फव्वारे का है?

चर्चा में सम्मिलित एक महिला सहित एंकर ने भी इस प्रश्न पर आपत्ति की । वकील साहब को “लिङ्ग” का केवल एक ही अर्थ, “पुरुष-जननेंद्रिय” या “Phallus” मालुम था और वे शिवलिङ्ग में उसी छवि को देखने के हठ पर अड़े हुये थे । सोशल मीडिया पर भी अ-सनातनी विद्वान शिवलिङ्ग को प्रायः “Phallus” के अर्थ में अश्लील टिप्पणियाँ करते हुये पाये जाते हैं ।   

अपेक्सा की जाती है कि जब सम्भाषा के किसी प्रतिभागी को किसी देश की संस्कृति, दर्शन, भाषा और अध्यात्मिक चिंतन के बारे में लेश भी जानकारी न हो तो ऐसे गम्भीर विषयों पर न तो कुतर्क करना चाहिये और न अपनी आइडियोलॉजी की सत्यता पर हठ करना चाहिये । मुश्किल यह है कि टीवी चैनल्स पर आने वाले विद्वान इस्लाम और सनातन दोनों आइडियोलॉजी के सम्बंध में अपने विचारों और जानकारी को ही सर्वोपरि मानने लगे हैं ।   

“संस्कृत-शब्दार्थ-कौस्तुभ” नामक शब्द-कोष में लिङ्ग के कई अर्थ दिए गए हैं । स्पष्ट है कि प्रसंग के अनुसार इनके अर्थों का ग्रहण किया जाना चाहिए । संस्कृत शब्द “लिङ्ग” के अर्थ हैं – प्रतीक, पहचान, आकृति, प्रमाण, सूचक, संबंध (यथा संयोग, वियोग्, साहचर्य). चित्रण, रोग के लक्षण, नेत्र का एक रोग, अंधकार, वह सूक्ष्म-शरीर जो स्थूल-शरीर के पंचतत्व में मिलने के पश्चात् कर्मफल भोगने के लिए प्राप्त होता है ।

लिङ्ग में कुछ और शब्द जोड़कर कई युगल-शब्दों की रचना की गयी है, यथा- लिङ्गानुशासन (व्याकरण में शब्दों के लिङ्ग-ज्ञान से सम्बंधित नियम), शिव-लिङ्ग, देव-लिङ्ग, लिङ्ग-पीठ, लिङ्गार्चन, लिङ्ग-शरीर, लिङ्गधारिन्, लिङ्ग-नाश, लिङ्ग-पुराण, लिङ्ग-प्रतिष्ठा, लिङ्ग-विपर्यय, लिङ्ग-वृत्ति (आडम्बरी), लिङ्ग-वेदी, लिङ्गक (कैथे का पेड़), लिङ्गिन (लक्षणयुक्त) और लिङ्गायत (दक्षिण भारत में प्रचलित शैव विचारधारा) ।

सनातन दर्शन में ईश्वर को “निराकार”, “अनादि”, “अनंत”, “अखण्ड”, “अभेद्य” आदि शब्दों से समझने और समझाने का प्रयास किया गया है । शिव आदि त्रिदेव भी निराकार हैं । शिव का जो मनुष्यरूप हम मूर्तियों और चित्रों में देखते हैं वह मात्र एक हाइपोथेटिकल प्रतीक है जिसमें नीला रंग, जटा, सर्प, चंद्र, कैलाश, नृत्यमुद्रा (ताण्डव) आदि का उपयोग कर निराकार “शिव” के ब्रह्माण्डीय स्वरूप की व्याख्या का प्रयास किया गया है ।

अब बात आती है मंदिरों में प्रतिष्ठित शिवलिङ्ग की । सनातन दर्शन में मंदिर आराधना और चिंतन के स्थल हैं जहाँ कोई चिंतक या आराधक ईश्वर और ब्रह्माण्ड के बारे में समझने का प्रयास करता है । सनातन संस्कृति और दर्शन में शिवलिङ्ग को ब्रह्माण्ड के स्थूल स्वरूप का एक प्रतीक चिन्ह माना गया है, जिसका किसी मनुष्य के “Phallus” से कोई सम्बंध नहीं है ।

जो सनातन दर्शन से विमुख हैं उन्हें शिव के नृत्य पर भी आपत्ति है, वे नृत्य को किसी प्राणी की विभिन्न मुद्राओं तक ही सीमित करके देख पाते हैं । सृष्टि की रचना, स्थिति एवं विलय, इन तीनों ही स्थितियों के लिए गति, संयोजन और वियोजन अपरिहार्य ब्रह्माण्डीय क्रियाएँ हैं । Dr. Fritjof Capra को साधुवाद जिन्होंने शक्ति के “लास्य-नृत्य” और शिव के “ताण्डव-नृत्य” को इसी रूप में समझा है । ये वे मौलिक नृत्य (movements, actions, reactions and positions) हैं जिनके बिना ब्रह्माण्ड की रचना, स्थिति और विलय की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।

भाईजान और मार्क्सवादी मित्र पूछते हैं कि – “ब्रह्माण्ड का शब्दार्थ है ब्रह्मा जी का अण्डा । अरे, गोबर खाने और मूत्र पीने वाले काफ़िरो! क्या दुनिया का कोई भी पुरुष अण्डा दे सकता है?”

हम ऐसे परम विद्वानों को बताना चाहते हैं कि अंग्रेज़ी को छोड़ दिया जाय तो अरबी और फ़ारसी बड़ी समृद्ध भाषाएँ हैं किंतु केवल उन्हें जानकर ही संस्कृत के “ब्रह्माण्ड” को तब तक समझना सम्भव नहीं है जब तक आप संस्कृतभाषा और भारतीय दर्शन को समझ नहीं लेते ।         

चलते-चलते यह बताना भी प्रासंगिक है कि भारतीय दर्शन में त्रिदेव का बड़ा महत्व है । भारतीय दर्शन का Cosmology की गुत्थियाँ सुलझाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इसीलिए विश्व के महान भौतिकविद् Dr. Fritjof Capra इसकी ओर आकर्षित हुए । वे मानते हैं कि ब्रह्म (Potential energy having capacity of transformations of something from nothing), विष्णु (energy required for Sustaining the cosmos) और शिव (energy required for initiation, evolution and involution ) ईश्वर की वे आदि शक्तियाँ हैं जिनके अभाव में सृष्टि और विलय की ब्रह्माण्डीय घटनाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती ।  

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