प्रसंग है जगत् गुरु शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के वक्तव्यों और चुनौतियों के संदर्भ में सन्यास परम्पराओं का।
बार-बार ऐसे अवसर आते रहे हैं जब मैं
यह सोचने के लिए विवश होता रहा हूँ कि मंत्रियों और आधुनिक काल के ऐश्वर्यभोगी संतों
में क्या अंतर है! बड़े-बड़े संत आमजनता के लिए दुर्लभ हैं। जितना बड़ा बाबा जनता से
उतनी ही अधिक दूरी, वर्तमान
साधुओं का ऐसा आचरण क्या आपको आश्चर्यचकित नहीं करता! ।
सनातनियों के चार आश्रम हैं –
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। मैंने अपने जीवन में साधुओं-बाबाओं
को राजनेताओं से भी अधिक ऐश्वर्यभोगी और विशिष्ट पाया है, जो गृहस्थाश्रम के अतिरिक्त अन्य किसी भी
आश्रम के लिए शास्त्रसम्मत नहीं है। हमारे देश में राजर्षियों की परम्परा तो रही
है पर राजसन्यासियों की कभी कोई परम्परा नहीं रही। “साधू ऐसा चाहिये जाको सरल सुभाउ”
किंतु इसके विपरीत आज तो ऐसे राजसन्यासियों की कमी नहीं है जिनके दर्शन मात्र के
लिये सीधी और तत्काल पहँच की सुविधा केवल राजनेताओं और उद्योगपतियों को ही उपलब्ध
हो पाती है। इन संतों ने आमजनता से इतनी दूरी क्यों बना ली है? यदि वे वीतरागी हैं तो राजनेताओं और
उद्योगपतियों के प्रति भी वही भाव क्यों नहीं रखते जो आम जनता के लिए रखते हैं?
बाबाओं की ऐश्वर्य और विलासितापूर्ण
जीवनशैली आम जनता को प्रभावित करती है, कदाचित् यही वह कारण है कि आज के टीवी पत्रकार
उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार नहीं करते। अपने सहज गुणों-दुर्गुणों के साथ
गृहस्थाश्रम में जीने वाले एंकर सन्यासी माने जाने वाले साधुओं को उनके आचरण और
सत्य की परीक्षा देने के लिए
चुनौतियाँ देने लगे हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार ऐसी प्रवृत्तियाँ मानसिक
क्लेशकारक और सामाजिक पतन की द्योतक हैं।
मैं दुःखी मन से सोचता हूँ – क्या
सन्यासियों के प्रति पत्रकारों का ऐसा आचरण स्वीकार्य है? यह भी विचार करता हूँ कि क्या सन्यासियों को पक्षपातपूर्ण
राजनीतिक टिप्पणियाँ करनी चाहिए?
वास्तव में सन्यास तो जड़ भरत वाली
स्थिति होती है। उनका जीवन राग-विराग, हर्ष-विषाद, अच्छे-बुरे, लोभ-मोह, क्रोध ...आदि सभी मानसिक वृत्तियों से परे
होता है। फिर क्यों करते हैं शंकराचार्य राजनीतिक टिप्पणियाँ? प्रश्न यह भी उठता है कि सामाजिक-राजनीतिक पतन
की स्थिति में, फिर कौन
है ऐसा जो न्यायपूर्वक टिप्पणियाँ कर सके, समाज को दिग्दर्शन के लिए प्रेरित कर सके?
भारतीय परम्परा में यह दायित्व
ऋषियों-महर्षियों का होता है, सन्यासियों
का नहीं। जगत्गुरु शंकराचार्य के पद पर आसीन रहे स्वामी स्वरूपानंद जी पत्रकार को
थप्पड़ मार देने और अपने कांग्रेसप्रेम के कारण चर्चा के विषय बनते रहे, उन्हीं के उत्तराधिकारी हैं जगत्गुरु
शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद जो खुल कर राजनीतिक दलों के समर्थन या विरोध में
वक्तव्य देते रहे हैं। पंडित धीरेंद्रकृष्ण शास्त्री के इस प्रकरण से पूर्व स्वामी
अविमुक्तेश्वरानंद का तो मैंने नाम भी नहीं सुना था। कदाचित ही कोई प्रबुद्ध
नागरिक जानता हो कि आज के इन शंकाराचार्यों का अध्यात्म, दर्शन, राजनीति या समाज के लिए क्या योगदान रहा है? समाज और राष्ट्र खण्डित हो रहा है, लवजिहाद की घटनायें हो रही हैं, सर तन से जुदा के नारे लगाये जा रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा
है, अपराधी
और अत्याचारी लोग मंत्री बन रहे हैं, छात्र राष्ट्रविरोध को अपना अधिकार मानने लगे
हैं, विश्वविद्यालयों
के छात्र जिस थाली में खाते हैं उसी को बम से उड़ाने की योजनायें बनाने लगे हैं… देश रसातल की ओर जा रहा है। यदि ये शंकराचार्य
वीतरागी हैं तो हमें इनसे कोई परिवाद नहीं किंतु यदि इनमें राजनीतिक टिप्पणियाँ
करने और उचित-अनुचित का विवेक है तो अभी तक राष्ट्र और समाज के प्रति इनकी क्या
भूमिका रही है? भारत को
जगत्गुरु रामभद्राचार्य, पंडित
धीरेंद्रकृष्ण शास्त्री, डॉक्टर
सुधांशु त्रिवेदी, अश्विनी
उपाध्याय, पुष्पेंद्र
कुलश्रेष्ठ, विष्णुशंकर
जैन और
अम्बर जैदी श्रंखला के ऋषियों-महर्षियों की आवश्यकता है जो सत्य, राष्ट्रधर्म और मानवधर्म के पक्ष में स्वस्फूर्त
चेतना से प्रेरित खड़े दिखायी देते हैं।
एक बार वज्जीसंघ के शत्रुराजा ने गौतम
बुद्ध से पूछा – कृपया वे उपाय बतायें जिनसे वज्जीसंध को पराभूत किया जा सके? बुद्ध ने बड़ी चतुराई से रहस्य बताया – जब तक
वज्जीसंघ के अट्टकुलों में एकता बनी रहेगी, मंत्रणाओं में सभी लोग उपस्थित होते रहेंगे, मंत्रीगणों और राजाओं के बीच अच्छा तालमेल
रहेगा, प्रजा
चरित्रवान बनी रहेगी, विद्वानों
को सम्मान मिलता रहेगा ...तब तक वज्जीसंघ अपराजित बना रहेगा। राजा ने बुद्ध के
उपदेश को ठीक उलट कर रणनीति बनायी और वज्जीसंघ को सदा के लिए समाप्त कर दिया। भारत
में आज भी यही हो रहा है।
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