विषय है श्रद्धा-अंधश्रद्धा, विश्वास-अंधविश्वास और आस्था-अनास्था का। संदर्भ है बागेश्वर धाम वाले धीरेंद्र शास्त्री, मदर टेरेसा, पी.सी. सरकार, श्रीराम मंदिर, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और जामा मस्ज़िदों का।
दृष्टिकोण
वे मानते हैं कि ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, मूर्तिपूजा, मंत्र, भूत, प्रेत, जादू-टोना, ज्योतिष, जन्मकुण्डली, हस्तरेखाशास्त्र, चमत्कार, पाखण्ड और आयुर्वेद आदि विषयों का कोई
वैज्ञानिक आधार नहीं होता इसलिये समाज में इनका व्यवहार प्रतिबंधित हो जाना
चाहिये। ।
वे मानते हैं कि दुनिया में दो विषय हैं –
विज्ञान और अविज्ञान।
कुछ लोग हमें बताते रहे हैं कि जिसे
भौतिक प्रयोगों एवं प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया जा सके वही विज्ञानसम्मत है, शेष सब अविज्ञानसम्मत है। अर्थात आदिकाल में, जब मनुष्य को वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी
नहीं थी, प्रयोगशालायें
नहीं थीं, चिकित्सक
नहीं थे, भौतिकशास्त्री
नहीं थे... तब कुछ भी विज्ञानसम्मत नहीं था। नदियों का बहना, सूर्य से प्रकाश और ऊर्जा का धरती तक पहुँचना, बीज का उगना, पुष्प की सुगंध का हवा से होते हुये हमारी
नासिका तक आना... कुछ भी विज्ञानसम्मत नहीं था। ...तो क्या इनका अस्तित्व नहीं था, या ये सब क्रियायें विज्ञानसम्मत नहीं थीं!
ब्रह्माण्ड और एलोपैथिक चिकित्सा के कई रहस्य अभी तक अनसुलझे हैं, इन विषयों के प्रतिपादित सिद्धान्तों में “probable…”
“it is thought…” और “expected
to be…” जैसे शब्दों का व्यवहार भूरिशः किया
जाता है। ये शब्द किसी सत्य निष्कर्ष की ओर नहीं ले जाते बल्कि संभावनाओं को
व्यक्त करते हैं। ...तो क्या आज का विज्ञान सम्भावनाओं के स्तम्भों पर ठहरा हुआ
है!
अभी कोरोना विषाणु और उसके जेनेटिक
वैरिएण्ट्स ने चिकित्सा के मूर्धन्य विद्वानों को खूब नचाया। विश्वस्वास्थ्य संगठन
के विद्वानों ने कोरोना वायरस सिण्ड्रोम को कोरोना वायरस डिसीस माना और विद्वान
चिकित्सकों ने स्पेसिफ़िक ट्रीटमेंट न होते हुये भी कोरोना संक्रमितों की चिकित्सा
की, किन
उपायों से चिकित्सा की? जब
कोरोना वायरस की कोई औषधि ही नहीं है तो चिकित्सा में जिन औषधियों का व्यवहार किया
जाता रहा उनका वैज्ञानिक आधार क्या था? क्या वे उपाय विज्ञानसम्मत थे? क्या आज दिनांक तक कोरोना वायरस, उसके वैक्सीन, उसकी चिकित्सा आदि विषयों पर बारम्बार
सिद्धांतों में परिवर्तन नहीं किये जाते रहे हैं? सत्य सार्वकालिक होता है, क्षण-क्षण परिवर्तनकारी नहीं होता... तो क्या
चिकित्साविज्ञान सत्य से अभी बहुत दूर है? फिर तो जो सत्य के समीप नहीं है उसका व्यवहार ही
क्यों होना चाहिये, उसके
व्यवहार को विज्ञानसम्मत कैसे माना जा सकता है?
धीरेंद्र शास्त्री, संत शक्तियों से सम्पन्न मदर टेरेसा, न जाने कितने पादरी-मौलवी, मनोरोगचिकित्सकों द्वारा की जाने वाली
काउंसलिंग एवं प्लेसीबो चिकित्सा, ताबीज, कलावा, रक्षासूत्र, कोरोना संक्रमितों की अनुमान और लक्षणों के
आधार पर की जाने वाली चिकित्सा, और
क्लीनिकल ट्रायल्स में दिये जाने वाले प्लेसीबो के बीच एक बहुत पतली सीमा रेखा है
जिसे पहचानना बहुत आवश्यक है... सभी के लिए नहीं, केवल उन लोगों के लिए जो शास्त्रार्थरसिक हैं।
हमें सेंटाक्लॉज़ के उपहारों से बँधी
उन कहानियों पर भी विचार करना होगा जो बालमन पर दीर्घकाल तक छायी रहती हैं। हमें
“आशा”, “धैर्य” और “वाच एण्ड वेट” जैसे शब्दों की वैज्ञानिकता और
उनके व्यवहार पर भी चिंतन करना होगा।
हम मानते हैं कि अंध-विश्वास, पाखण्ड और अंधश्रद्धा जैसे विषय हमें सत्य की
ओर नहीं ले जाते, सत्य से
दूर ले जाते हैं किंतु माँ की लोरी और दादी की कहानियों का क्या किया जाय जो
बच्चों को बहुत प्रिय हैं!
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