निजी और सामुदायिक सम्पत्ति
क्या सामुदायिक हितों के लिए
व्यक्तिगत सम्पत्ति से आर्थिक संसाधन जुटाया जाना न्यायसंगत होगा?
कांग्रेस के सैम पित्रोदा
सामुदायिक हितों के लिये विरासत में प्राप्त सम्पत्ति पर चालीस प्रतिशत तक टैक्स लिये
जाने के पक्ष में हैं ।
निजी और सामुदायिक सम्पत्ति को
लेकर सैम पित्रोदा के वक्तव्य और सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे सत्ताइस साल पुराने
एक प्रकरण में चल रही सुनवायी के साथ ही देश में एक सैद्धांतिक विमर्श प्रारम्भ हो
गया है जो वामपंथी और दक्षिणपंथी सिद्धांतों के एक महत्वपूर्ण विषय को पुनः
रेखांकित करने वाला सिद्ध हो सकता है ।
उत्तर प्रदेश के बिलासपुर
निवासी डॉक्टर वीरेंद्र कुमार शर्मा इस विमर्श को आगे बढ़ाते हुये प्रश्न करते हैं –
“क्या निजी सम्पत्तियों को सामुदायिक सम्पत्ति माना जा सकता है?”
विज्ञान के छात्र रहे एक अन्य मित्र
जल से भाप और भाप से जल में होने वाले रूपांतरणों का स्मरण दिलाते हुये एक और
प्रश्न करते हैं – “क्या सामुदायिक सम्पत्तियों को निजी सम्पत्ति माना जा सकता है? कम से कम रेलवे के इस सरकारी विज्ञापन – “रेल आपकी सम्पत्ति है”, से तो यही ध्वनि निकलती है।“
सम्पत्ति के अधिकार को लेकर
आदिकाल से दुनिया भर में साम्यवाद, समाजवाद, पूँजीवाद और जिसकी लाठी उसकी
भैंस वाले लाठीवाद जैसे कई “वाद” व्यावहारिक रूप में प्रचलित रहे हैं जिनके कारण
रक्तसंघर्ष और बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ भी होती रही हैं । बोल्शेविक क्रांति के बाद
सोवियत रूस की साम्यवादी सरकार ने निजी सम्पत्तियों को लगभग समाप्त ही कर दिया
जिसका तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि एक वर्ष के भीतर ही सोवियत रूस के उत्पादन में
भयानक गिरावट आयी और आधुनिक उन्नत संसाधनों के
बाद भी रूस आर्थिक दृष्टि से जर्जर होने लगा । दूसरा दूरगामी परिणाम 26 दिसम्बर
1991 में सोवियत रूस के विघटन के रूप में सामने आया और पंद्रह पूर्व गणतंत्रों को
स्वतंत्र देश मान लिया गया । इसका एक अन्य वर्तमान परिणाम यूक्रेन-रूस युद्ध के
रूप में पूरी दुनिया आज भी देख रही है ।
निजी और सामुदायिक सम्पत्तियों
के अधिकार को लेकर हमें सामाजिक और राजनैतिक पृष्ठभूमियों के भी कई बिंदुओं को
ध्यान में रखना होगा –
1-
पश्चिमी देशों सहित दुनिया भर में राजाओं के सैद्धांतिक और
नैतिक मूल्यों में हुये निरंतर पतन से वर्गसंघर्ष और फिर क्रांतियाँ फलीभूत होती रही
हैं।
2-
एक-दूसरे का शोषण करना एक मानवीय दुर्बलता रही है। शोषक और
शोषित व्यक्तियों की स्थितियों और सोच में समयानुसार उलट-फेर होता रहा है जिसके
परिणामस्वरूप शोषक और शोषित व्यक्ति कभी स्थायी नहीं होते। एक ही व्यक्ति अपने
जीवन में कभी शोषक तो कभी शोषित भी हो सकता है।
3-
भारतीय संविधान, भारत में रहने वाले हर देशी-विदेशी व्यक्ति को निजी सम्पत्ति
रखने का अधिकार देता है किंतु उसी स्वतंत्र भारत में राजतंत्रात्मक जमींदारी प्रथा
को समाप्त करने के लिये ज़मींदारी उन्मूलन एक्ट भी बनाया गया।
4-
प्राकृतिक और निजी संसाधनों एवं उनपर स्वामित्व के अधिकार को
लेकर दुनिया भर में व्याख्यायें की जाती रही हैं।
5-
स्वामित्व और उपभोग के अधिकारों को पृथक-पृथक समझा जाना चाहिये।
उपभोग के अधिकार को स्वामित्व के अधिकार में नहीं बदला जाना चाहिये जबकि 12 वर्ष
तक कब्जे वाली सम्पत्ति के स्वामित्व का न्यायिक अधिकार उपभोक्ता को दे दिया गया
है।
6-
सामुदायिक और स्व-उपार्जित सम्पत्तियों के बीच की सूक्ष्म
विभाजन रेखा को स्पष्ट करते समय शब्दजाल की कूटता से बचना होगा।
7-
कोई व्यक्ति स्व-उपार्जन के माध्यम से ही प्राकृतिक संसाधन को
निजी संसाधन बना सकता है किंतु पैतृक सम्पत्ति के निजी अधिकार को समाप्त करना
व्यवहारविरुद्ध एवं प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध होगा।
8-
लोकहित के उद्देश्य से पर्सनल और कम्यूनल प्रॉपर्टी के बीच
संतुलन बनाये रखना राजसत्ताओं का नैतिक दायित्व है किंतु सारे प्रकरणों में भू-अधिग्रहण
कानून (लैंड एक्वेजीशन एक्ट) की मनमानी व्याख्या या क्रियान्वयन नहीं किया जा सकता।
9-
किसी आदर्श न्यायाधीश को राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक पूर्वाग्रह जैसी मानवीय दुर्बलताओं से पूरी
तरह मुक्त होना चाहिये किंतु सामान्यतः ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है जिसके कारण
उनके निर्णयों में शुचिता का पालन नहीं हो पाता ।
केस संख्या 1012/2002 की
पृष्ठभूमि को भी समझना आवश्यक है । सर्वोच्च न्यायालय में 27 साल पुराने जिस
प्रकरण पर नौ जजों की पीठ विचार कर रही है उसका प्रारम्भ सन् 1986 में तब हुआ जब
एक विवाद को समाप्त करने उद्देश्य से महाराष्ट्र सरकार ने “महाराष्ट्र हाउसिंग
एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी” के नियमों में एक लोकहितकारी परिवर्तन किया जिसके अनुसार
यदि किसी मकान आदि अचलसम्पत्ति के सत्तर प्रतिशत उपभोक्ता उस सम्पत्ति को
अधिग्रहीत करने के लिये सरकार से अनुरोध करते हैं तो सरकार उस अचल सम्पत्ति को
लोकहित में अधिग्रहीत कर सकती है जिससे कि उन वंचित उपभोक्ताओं की आवश्यकतायें पूरी
हो सकें और उन्हें लाभ हो सके।
कल्पना कीजिये कोई भूमाफिया या
अचलसम्पत्ति का स्वामी मुम्बई में एक चाल बनवाकर कुछ लोगों को रहने की सुविधा
उपलब्ध करवाता है जिसके बदले में वह हर उपभोक्ता से एक निर्धारित धनराशि प्राप्त
करता है। कुछ समय बाद सम्पत्ति का स्वामी उपभोक्ता से किराया तो लेता है पर जर्जर
हो चुके चाल में न तो कोई सुधार करवाता है और न मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध करवाता
है जिसके कारण उपभोक्ताओं को सामान्य जीवनयापन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता
है। यह परिवाद जब शासन-प्रशासन के समक्ष लाया जाता है तो उसके सामाधान के विकल्पों
पर विचार करना शासन-प्रशासन का दायित्व हो जाता है। अब चाल के स्वामी को सरकार
द्वारा या तो सुधार के लिये बाध्य किया जाय या फिर सरकार उस सम्पत्ति का अधिग्रहण
कर उसमें सुधार करवाये और उपभोक्ताओं की कठिनाइयों को दूर करे। जब सम्पत्ति-स्वामी
ने चाल में सुधार करने से मना कर दिया तो सरकार ने प्रस्ताव रखा कि यदि कुल
उपभोक्ताओं (किरायेदारों) के 70 प्रतिशत लोग उस चाल या भूमि को अधिग्रहीत करने का
सरकार से अनुरोध करते हैं तो सरकार उस अचल सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकती है ।
तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार द्वारा लोकहित में लिये गये इस निर्णय की सराहना की
जानी चाहिये ।
निजी सम्पत्ति के स्वामियों ने
प्रॉपर्टी ऑनर्स असोसिएशन बनाकर सरकार के इस नवनिर्मित नियम के विरुद्ध सन् 2001
में सर्वोच्च न्यायालय में सात जजों की पीठ के समक्ष वाद प्रस्तुत किया जिसमें
महाराष्ट्र सरकार को प्रतिवादी बनाया गया। पीठ ने अगले वर्ष यानी सन् 2002 में यह
वाद नौ जजों की पीठ के पास भेज दिया पर पीठ का गठन ही नहीं हो सका। बाइस साल बाद
सन् 2024 में चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़ की पहल पर पीठ का गठन किया जाकर सुनवाई प्रारम्भ
की जा चुकी है।
अब सर्वोच्च न्यायालय को
संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) और 31 (सी) के आलोक में यह विचार करना है कि –
1-
क्या कम्पनियों या निजी सम्पत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना
जा सकता है?
2-
ऐसे प्रकरणों में समुदाय की परिभाषा क्या होगी?
संविधान के अनुच्छेद 39 (बी)
के अनुसार राज्य अपनी नीति से यह सुनिश्चित करेगा कि “समुदाय के भौतिक संसाधनों का
स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार वितरित किया जाय जो आम लोगों की भलाई के लिए
सर्वोत्तम हो”।
संविधान का अनुच्छेद 14 ‘समानता’ का और अनुच्छेद 19 ‘स्वतंत्रता’ का अधिकार प्रदान करता है। इन
मौलिक अधिकारों की रक्षा एवं अनुच्छेद 39 (बी) और अनुच्छेद 39 (सी) की स्पष्टता व
क्रियान्वयन के लिये सन् 1971 में संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 31 (सी) को जोड़ा
गया।
केंद्र सरकार की ओर से अटार्नी
जनरल आर. वेंकरमण और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सरकार का पक्ष रख रहे हैं। कल
दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये गये जिन्हें महाराष्ट्र के उपरोक्त
वाद की पृष्ठभूमि के संदर्भ में समझने से स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी –
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी –
“यह कहना गलत होगा कि सरकार किसी निजी सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं
कर सकती है, यदि ऐसा कहा गया तो यह अतिवाद
होगा”।
अटॉर्नी जनरल – “मौलिक अधिकार
और नीति निर्देशक तत्व को दो विपरीत ध्रुव नहीं माना जा सकता”।
न्यायालय – “क्या कोई कार, सेमीकंडक्टर या मोबाइल उत्पादक निगम ‘समुदाय’ के भौतिक संसाधनों का गठन
करेगा”?
अटॉर्नी जनरल – संविधान निर्माण
करते समय “यूटोपियन या समाजवादी विचारधाराओं से उधार लिये गये सार्वजनिक भलाई के
संसाधनों पर विचार करते समय प्रारम्भिक ध्यान कारखानों या भूमि जैसी मूर्त
संपत्तियों तक ही सीमित रहा होगा, विशेषकर 18वीं और 19वीं
शताब्दी में। संसाधन का सही अर्थ हमेशा राज्य के जनहितकारी उत्तरदायित्वों पर
केंद्रित होगा“।
न्यायालय – “समुदाय की
व्याख्या आप कैसे करते हैं, आप किसे समुदाय मानते हैं”?
अटॉर्नी जनरल – “समुदाय एक
राष्ट्र हो सकता है या राष्ट्र का एक हिस्सा या एक भौगोलिक क्षेत्र जहाँ लोगों का
जीवन जीने का एक व्यवस्थित तरीका है, एक समुदाय है”।
जस्टिस नागरत्ना – “संविधान की
प्रस्तावना में न्याय (सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक ) को सम्मिलित किया गया है। इसलिए संविधान द्वारा तय
किये गये इस लक्ष्य को सुनिश्चित करने के लिए हमारे पास अनुच्छेद 39 है”।
न्यायालय – “क्या कम्पनी अथवा
निजी संपत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है”?
अटॉर्नी जनरल – “अनुच्छेद 39 (बी)
सदा से सभी राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांतों से स्वतंत्र रहा है । संसाधनों और
ज़रूरतों के बारे में समाज की व्याख्या समय के साथ परिपक्व होती रहती है, ऐसे में अनुच्छेद 39 (बी) को आर्थिक दृष्टिकोण से देखना गलत
होगा”।
जस्टिस बिंदल – “31 (सी) पहले
ही निरस्त हो चुका है। क्या प्रावधान निरस्त होने के बाद संसद संशोधन करने, हटाने या जोड़ने आदि के लिए बाध्य है?”
एड. अंध्यारुजिना – “इसे लेकर
चीफ़ ज़स्टिस ने भी एक बार कहा था कि निरस्त किए गए कानून किताबों में इटैलिक
अक्षरों में लिखे होंगे जो यह संकेत देंगे कि इसे निरस्त कर दिया गया है। यह केवल जानने
और पढ़ने के लिए रखा गया है”।
सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई अभी जारी है .....।
वसीयत टैक्स के
संदर्भ में सैम पित्रोदा के वक्तव्य और महाराष्ट्र के इस वाद पर सरकार के उद्देश्यों
में अंतर को समझा जाना चाहिये। सैम पित्रोदा का वक्तव्य पैतृक सम्पत्ति पर वसीयत टैक्स
लिये जाने के संदर्भ में है जबकि सॉलिसिटर जनरल के तर्क उस वाद के संदर्भ में हैं जो
किरायेदार से किराया लेने के बदले में उपभोक्ता को सुविधायें न देने की स्वेच्छाचारिता
के आर्थिक अपराध से जुड़ा हुआ है । व्यक्तिगत सम्पत्ति आगे भी व्यक्तिगत ही रहेगी जबतक
कि लोकहित में उसकी आवश्यकता का कोई अन्य विकल्प उपलब्ध न हो।
“रेल आपकी सम्पत्ति है,…” – इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने राष्ट्रीय सम्पत्ति पर किसी व्यक्ति
का अधिकार सुनिश्चित कर दिया है, भले ही हम सब उसका उपभोग क्यों
न करते हों। वास्तव में यह अधूरी जानकारी है, रेलवे के इस विज्ञापन में सरकार व्यक्तियों को जो सूचना दे रही है
वह सरकार के अनुरोध के संदर्भ में है। पूरा विज्ञापन इस प्रकार है – “रेल आपकी सम्पत्ति है, कृपया इसे क्षति न पहुँचायें, इसकी सुरक्षा में सहयोग करें”।
अधूरी बात का अर्थ कुछ भी हो सकता
है किंतु इसी विज्ञापन को पूरा पढ़ा जाय तो अर्थ और उद्देश्य कुछ भिन्न ही स्पष्ट होते
हैं, यथा – “रेल सार्वजनिक संपत्ति है किंतु उसकी रक्षा उसी प्रकार कीजिये
जैसे कि वह आपकी अपनी निजी सम्पत्ति हो”।
निजी और सार्वजनिक सम्पत्तियों
को लेकर सुस्थापित एक लोकहितकारी नियम पर चल रही सुनवाई का अर्थ यह कदापि नहीं है कि
केंद्र सरकार के प्रधान मोदी जी वामपंथी हो गये हैं और चुनाव जीतने के बाद भाजपा सोवियत
रूस की तरह देश में निजी सम्पत्तियों का अधिग्रहण कर लेगी। मोदी और भाजपा को वामपंथी
कहना चुनावी दुष्प्रचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।