प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने का महापर्व, वर्षा ऋतु के पश्चात उत्तम कृषि उपज की कामना का पर्व, नयी पीढ़ी के उत्तम भविष्य की प्रार्थना का पर्व, …बिहार की उत्कृष्ट संस्कृति का महापर्व “छठ-पूजा” के नाम से देश-विदेश में विख्यात है ।
बिहार में मनाये जाने वाले इस पर्व के साथ बिहारियों की भावनायें कहीं बहुत गहराई से जुड़ी हुयी हैं । वे जहाँ भी गये, अपनी भावना और अपनी संस्कृति साथ लेकर गये । मारीशस, सूरीनाम, गुयाना और अफ़्रीकी देशों से लेकर योरोपीय देशों तक ....जहाँ-जहाँ बिहारी हैं, वहाँ-वहाँ सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह महापर्व भी है ...और प्रकृतिपूजा का वैश्विक संदेशप्रसारण भी।छठ पर्व की विशेषता उसके निष्ठापूर्वक मनाये जाने वाली परम्पराओं, अनुष्ठानों और लोकगीतों में अंकित है । यह अनुभव का विषय है जो हृदय की गहराइयों से हिलोरें मारता हुआ मन को श्रद्धा और करूणा से आप्लावित कर देता है ।
यद्यपि कृषिप्रधान बिहार की धरती को नदियों और सूर्य का विशेष अनुदान प्राप्त है तथापि ब्रिटिश पराधीनता के युग में युवकों को स्वावलम्बन के लिये बंगाल और वर्मा जाना पड़ता था । छठपूजा पर पत्नी के साथ पति की सहभागिता आवश्यक मानी जाती है, इससे जहाँ दाम्पत्य बंधन को और दृढ़ता मिलती है वहीं शेष विश्व को भारतीय पारिवारिक परम्पराओं का एक संदेश भी मिलता है । यही कारण है कि छठपूजा पर लोग एन-केन-प्रकारेण अपने घर जाने का प्रयास अवश्य करते हैं । अनुष्ठान में सूर्य को अर्पित किये जाने वाले स्थानीय फल, कंद और पुष्प प्रवासी बिहारियों को अपनी मातृभूमि से जोड़ते हैं । सतपुतिया और शकरकंद जैसी चीजें हमारे लिये बहुत साधारण हैं पर प्रवासियों से पूछिये इनका रागात्मक महत्व !
छठ पर्व पर गाये जाने वाले गीत कृतज्ञता, करुणा, भक्ति और मनोकामना से परिपूर्ण होते हैं । बहुत साधारण से शब्दों और भावों में रचे-बसे छठ गीत जितना आकर्षित करते हैं, उतने अन्य भक्तिगीत नहीं । इन गीतों में भक्त और भगवान के मध्य की दूरी सिमटती हुयी दिखायी देती है । यहाँ किसी विद्वतापूर्ण संवाद या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होती । अँजुरी में भरे जल के साथ उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिये शीतल जल में खड़े होकर प्रतीक्षा करने वाली स्त्री जब सूर्य से परिवाद करती है तो भक्त की यह निश्छलता उसकी निष्ठा का प्रमाण बन जाती है – “जल बिच खड़ा होई दरसन लऽ असरा लगावेलि हो । सितली बयरिया सितल दूजे पऽनिया । कब देबो देवता तू आके दरसनिया” और “उगा हो सुरुज देव अरघ के बेरिया भऽइल”।
#अक्षरासिंह के गाये इस गीत – “काँच हि बाँस के बऽहँगिया, बऽहँगी लचकत जाय । होई ना बलम जी कहरिया, बहँगी घाटे पहुँचाय” ने तो योरोप तक अपनी पहुँच बना ली है वहीं #अनुदुबे के गाये गीत – “कोसी भरे चलली अमिता देई । नौलखा हार भीजे । अ भीजता त हार मोरा भीजे देहु । कोसा मोरा नाहीं भीजे” ने भी ...गर्दा उड़ा देले बा ।
परदेश गये पति की प्रतीक्षा करती पत्नी के विरह भावों ने छठगीतों को भी प्रभावित किया है – “...पिया के सनेहिया बऽनइहा, मइया दिहऽ सुख सार”।
ससुराल में पहली बार छठ का निर्जला व्रत करने वाली नवोढ़ा का यह गीत – “पहिले-पहिले हम कऽइनी छठि मैया बरत तोहार । दिहऽ असिस हजार, बऽढ़े कुल परिवार..” #निवेदितानिष्ठा के स्वरों में बहुत अच्छा बन पड़ा है ।
उगते सूर्य की प्रतीक्षा में गंगाजी के शीतल जल में खड़ी युवती के लिये यह कठिन व्रत और भी कठिन हो जाता है तब वह सूर्य देव को झिड़की देने से भी नहीं चूकती । भक्त की अपने इष्ट के प्रति निश्छल प्रेम की यह पराकाष्ठा बिहारियों में अच्छी तरह देखने को मिलती है – “उगा हो सुरुज देव भेल भिनसरवा, अरघ केरे बेरवा पूजन केरे बेरवा हो, बड़की पुकारे देव दुनु कर जोरवा...” #स्वातिमिश्रा के मधुर स्वर में गाये इस गीत के शब्द मनोहारी हैं ।
छठपूजा के इन लोकगीतों को भोजपुरी और मैथिली के लालित्य ने बड़ी दृढ़ता से बाँध रखा है, आज हम इनके बिना छठपूजा के गीतों की कल्पना भी नहीं कर पा रहे हैं । कदाचित् ही अन्य किसी बोली में ये गीत उतने प्रभावी और आकर्षक हो सकें ।
एक बात और, गंगा जी हर गाँव से तो होकर बहती नहीं, पर छठपूजा और सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा हर गाँव में है, इसलिये छठपूजा के दिन गाँव के तालाब भी गंगाजी हो जाते हैं । हमें गर्व है कि विप्लवों से घिर कर भी हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति के वाहक बन पा रहे हैं ।
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